Thursday, September 18, 2014

तुमने ऐसा क्यूँ किया माँ 


मुझे किस बात की सज़ा दी, मेरा क्या कसूर था माँ ? मैंने ऐसा क्या किया था जो तुम मुझे नाले में बहा आई माँ ? क्या वाक़ई तुमने मुझे इसलिए मारा क्यूंकि मेरी वजह से तुम भाई की ढ़ंग से परवरिश नहीं कर पा रही थी ? अगर तुम मुझे और भाई को एक साथ नहीं संभाल पा रही थी तो मदद के लिए किसी को बुला लिया होता माँ ? और फिर भी मुझे मारना ही था तो कोख में ही मार दिया होता मुझे जन्म क्यों दिया माँ ? कहीं तुमने इस उम्मीद में तो मुझे नौ महीने अपनी कोख में नहीं रखा की भाई की तरह मैं भी लड़का होऊंगी ? अगर मेरी जगह तुमने लड़के को जन्म दिया होता तो क्या उसे भी मेरी तरह मरने के लिए छोड़ आती माँ ? देखो लोग तुम्हारे बारे में क्या क्या कह रहे हैं , तुम्हे मेरा क़ातिल बता रहे हैं माँ। नहीं नहीं तुम मुझे नहीं मार सकती , तुम मुझे खुद से जुदा कैसे कर सकती हो, मैं तो तुम्हारा हिस्सा हूँ न माँ ?

माना कि मैंने तुम्हें बहुत परेशान किया होगा पर बच्चे तो परेशान करते ही हैं न माँ ? भाई ने भी तो किया होगा और अभी भी करता होगा। वो भी बड़ा कहाँ हुआ है और इस बात की क्या गारंटी की बड़ा होकर वो तुम्हे और पापा को परेशान नहीं करेगा ? मनमानियां नहीं करेगा ? तुम्हारा दिल नहीं दुखाएगा ? जिस बेटे को तुम इतने नाज़ों से पाल रही हो, जिसकी परवरिश की खातिर तुमने मुझे अपनी ज़िन्दगी से दूर कर दिया वो बड़ा होकर तुम्हारा सहारा बनेगा, तुम्हारे कुल को तारेगा क्या इस बात का तुम्हे पक्का भरोसा है माँ ? विश्वास तो उन हज़ारों माँ- बाप को भी अपने बेटों पर भी रहा होगा जो आज वृद्धाश्रम में वक़्त गुज़ार रहे हैं। उन्होंने भी तुम्हारी तरह ढेरों सपने देखे होंगे - बेटे को ऊंचाईयों पर देखने के , पोते-पोतियों के साथ खेलने के , बुढ़ापे में आराम से बहू के हाथ का बना गरमा-गरम खाना खाने के, पर उनके सपनो की दुनिया तो रेत की मानिंद ढह गयी। डरती हूँ कहीं तुम्हारे सपने भी चकनाचूर ना हो जाएं माँ। ये सोचकर सहम जाती हूँ कि अगर ज़िन्दगी के सफर में पापा तुम्हे बीच रास्ते में छोड़ के चले गए तो कहीं तुम्हारा हश्र भी मथुरा-वृंदावन की उन हज़ारों विधवाओं की तरह न हो जिन्हे उनके बेटे खुद वहाँ दर -दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ आते हैं। वो विधवाएं भी तो बेटों वाली होती हैं। क्या उन्होंने अपने बेटों की परवरिश तुम्हारी तरह नहीं की थी माँ ?

कल को जब मैं बड़ी होती तो तुम्हारे काम में तुम्हारा हाथ बटाती , अपने दुःख-सुख तुम मुझसे दोस्तों की तरह साझा कर पाती,  मेरे रहते तुम कभी तन्हा न होती माँ। मैं बड़ी होकर बछेंद्री पाल की तरह एवरेस्ट फ़तेह कर सकती थी, सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला की तरह आकाश में उड़ सकती थी। ज्योतिबा फूले, मदर टेरेसा, सरोजनी नायडू, इंदिरा गांधी जैसी बन सकती थी माँ। एक मौक़ा तो दिया होता, मैं भी तुम्हारा नाम रोशन करती माँ।

अगर तुमने मुझे अपनी कोख में ही मार दिया होता तो इस बात का भरम रह जाता कि तुम पापा और घर के दूसरे लोगों की वजह से ऐसा कर रही हो, ये फैसला तुम्हारा नहीं उनका है, तुम मजबूर थी माँ।  पर तुमने तो मुझे अपने हाथों से मार दिया, क्यूँ माँ ? मैं अभी भी इस बात पर यकीन नहीं कर पा रही कि ये फैसला तुम्हारा था माँ क्यूंकि अब तक तो केवल तुम्हारी खुशियों, सपनो और फैसलों पर ही पितृसत्ता का पहरा था पर अब तो तुम्हारी सोच भी उसी रंग में रंग गयी है। तुम भी उनकी तरह सोचने लगी माँ। आखिर तुमने ऐसा क्यूँ किया माँ ?

भावना पाठक
http://bhonpooo.blogspot.in/

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