Monday, December 1, 2014

एक थी सिंगरौली--11
आपने मजमेबाजों को देखा होगा किस तरह वे अपनी लच्छेदार बातों से दर्शकों को प्रभावित कर लेते हैं अौर मंजन,तेल,दवाइयां आदि बेंच कर चले जाते हैं।उनके जाने के बाद या फिर घर पहुंच कर हकीकत से दो चार होने पर पता चलता है कि हम तो ठग लिये गये।यही खेल थोड़ा अौर नफासत के साथ विकास परियोजनाअों में खेला जाता है।विकास परियोजना की प्रोजक्ट रिपोर्ट विशेषज्ञ  लोग तैयार करते हैं।प्रोजेक्ट रिपोर्ट मंजूर कर ली जाय इसके लिये लागत अौर लाभ के अनुपात को दुरुस्त रखने के लिये परियोजना से होने वाले फायदों को बढ़ा चढा कर दिखाया जाता है।एेसे एेसे सब्जबाग दिखाये जाते हैं जो कभी पूरे नहीं होते बल्कि बाद में तो येशेखचिल्लियों के सपने लगते हैं।सुनहरे भविष्य का एेसा खाका खींचा जाता है कि मानो देश की बेहतरी के लिये यह परियोजना बहुत जरुरी है वरना देश विकास की दौड़ में बहुत पीछे हो जायेगा।एक अोर तो परियोजना के फायदे बढ़ा चढ़ा कर गिनाये जाते हैं वहीं दूसरी अोर परियोजना की लागत कम कर के दिखाई जाती है।लागत के मद में कई खर्चों को जोड़ा ही नहीं जाता जबकी वे कीमतें तो किसी को चुकानी ही पड़ती हैं।अक्सर देखने में आता है कि परियोजना में पुनर्वास के मद में काफी किफायत से काम लिया जाता है।इसी प्रकार परियोजनाअों की पर्यावरणीयअौर सामाजिक कीमतें स्थानीय लोगों को ही चुकानी पड़ती हैं।
         गरज यह कि परियोजना को लाभदायक दिखाने के लिये पर्दे के पीछे बहुत सारी कवायदें की जाती हैं।इन सारी कवायदों का एक ही उद्देश्य होता है कि परियोजना मंजूर हो जाय जिससे तमाम लोगों के हित सीधे सीधे जुड़े रहते हैं।इनमें वैश्विक वित्तीय संस्थान जो परियोजना को धन उपलब्धकरातेहैं,बड़ेबड़ेकंसलटेंट,रिसर्च इंस्टीट्यूट,बड़ी कंपनियां जो टेक्नोलाजी अौर मशीनरी उपलब्ध कराती हैं,सभी शामिल हैं।इसीलिए विकास परियोजनाअों की तगड़ी लाबीइंग की जाती है जिनमें देशी अौर विदेशी ताकतों की मिली भगत रहती है।परियोजना की मंजूरी के समय गिनाये गये लाभों की असलियत का पता तो तब लगता है जब ये पूरी होकर काम करने लगती हैं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।अक्सर देखने में अाता रहा कि ये भारी भरकम परियोजनायें घोषित क्षमता से काफी कम पर कार्य करती हैं,कभी कभी तो 40 प्रतिशत या उससे भी कम।इस खराब प्रदर्शन के लिए भी बाद में सफाई के तमाम तर्क गढ़ लिये  जाते हैं।इस तरह की विकास परियोजनाअों से होने वाली देश के संसाधनों की बरबादी,पर्यावरणीय क्षति,विस्थापन की त्रासदी के लिए आखिर कौन जिम्मेदार होगा क्योंकी परियोजना के निर्माण से जिनको मलाई काटनी थी वे तो मलाई काट कर काम पूरा होते ही बंजारों कीतरह कहीं अौर डेरा डालने चले जाते हैं।
           इस तरह की परियोजनाओं का एक उदाहरण सिंगरौली से ही देना चाहूंगा,वह है रिहंद बांध का जो गोविंद वल्लभ पंत सागर के नाम से भी जाना जाता है।सिंगरौली क्षेत्र के अौद्योगीकरण के इतिहास में रिहंद बांध एक मील के पत्थर की तरह है।सन् 1960 में रिहंद बांध के निर्माण के बाद ही यहां एक के बाद एक परियोजनायें आती गईं।उस समयदेश के लिये यह कितनी महत्वपूर्ण परियोजना थी इसका अंदाजा सिर्फ इस घटना से लगाया जा सकता है जिसे इस इलाके के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता,दुद्धी क्षेत्र के भूतपूर्व विधायक ग्रामवासी जी ने एक मुलाकात के दौरान सुनाया था।बात उस समय की है जब रिहंद बांध के शिलान्यास के लिये प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु यहां आ रहे थे,उनके साथ कांग्रेस के अौर भी दिग्गज नेता थे।ग्रामवासी जी ने बताया कि मैं पं.कमलापति त्रिपाठी जी के बगल में बैठा था उन्होंने मुझसे कहा अरे ग्रामवासी तुम्हारी तो चांदी ही चांदी है,इतनी बड़ी परियोजना तुम्हारे क्षेत्र में लग रही है,अब तुम्हें कौन हरा सकता है,तुम्हारी सीट तो अजर अमर हो गई।पं.नेहरु जी इस इलाके के प्राकृतिक सौंदर्य से इतने प्रभावित हुए थे कि शिलान्यास के अवसर पर भाषण में उन्होंने कहा था कि आगे चलकर यह स्विटजरलैंड बनेगा।उस दौर में एेसी परियोजना के विरोध के बारे में कोई सोच भी कैसे सकता था।
         राजस्व कर्मचारियों द्वारा मुआवजा निर्धारण,वितरण,पुनर्वास-व्यवस्था आदि में की जा रही धांधलियों को लेकर लोगों में काफी असंतोष था जिसने बाद में आंदोलन का रुप भी लिया।सिंगरौली क्षेत्र(म.प्र.)के भूतपूर्व विधायक अौर समाजवादी नेता पं,श्याम कार्तिक जी ने बताया कि उस दौरान डा. राममनोहर लोहिया मिर्जापुर आये हुए थे,उन्हें जब इस बाबत जानकारी मिली तो वे यहां आये अौर आंदोलन का नेतृत्व किया।पर वह दौर पं. नेहरु का था,रिहंद का विरोध नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गया।
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