सामयिक
दोहे----
एक
ओर किसान गजेन्द्र की मौत ने राजनीति में आई संवेदनहीनता को उजागर किया है तो
दूसरी ओर सरकार के आश्वासनों के बावजूद किसानों की न रुकने वाली आत्महत्याएं बता
रहीं हैं कि उसे अव किसी पर भरोसा नहीं रह गया है। खेती में बढ़ती जा रही लागत ने
किसानों को कर्जदार बना दिया है।घाटे की खेती करते करते किसान खेती से विमुख होरहा
है। इस तरह हिन्दुस्तान में बाजार के इशारों पर कारपोरेट खेती की भूमिका तैयार हो
रही है।इसी संदर्भ में हैं ये दोहे
राजनीति
की रोटियां सेंक रहे सब कोय
घड़ियाली
आंसू रहे कोई कोई रोय
कुछ
भी करके मांग लो माफी है आसान
पाप
सभी कट जायेंगे दे करके अनुदान
विपदायें
कब थीं नहीं सब दिन सहा किसान
अब
गिरफ्त बाजार की लेती उसकी जान
कारपोरेट
कृषि के दिखें आने के आसार
बना
रहा है भूमिका उसकी अब बाजार।
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