Thursday, May 7, 2015

बतकही-----
...... तेरा दरद न जाने कोय
देखने में तो यही लगता है कि संकट की इस घड़ी में सभी राजनीतिक पार्टियां किसान के साथ खड़ी हैं। राहुल गांधी ने आते ही किसान के मुद्दे पर शंखनाद कर दिया, रेल की जनरल बोगी में बैठ पंजाब की यात्रा कर किसानों से मिले, विदर्भ में पद यात्रा कर किसानों के बीच गये। इधर भारत सरकार के मंत्री नितिन गडकरी भूमि अधिग्रहण बिल पर किसी से भी बहस करने के लिए ताल ठोंक रहे हैं और दावा करते हैं कि इससे किसान को लाभ होगा। कमोबेस अन्य पार्टियां भी मौसम की मार से बदहाल किसान के लिए मातमपुर्सी कर अपनी रोटियां सेंक रही हैं, पर आम आदमी पार्टी ने तो बेशर्मी की सारी हदें तोड़ दीं जब किसानों के समर्थन में निकाली गई उनकी रैली के दौरान जंतर मंतर पर किसान गजेन्द्र ने आत्महत्या कर ली और कार्यक्रम बदस्तूर चलता रहा। यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जब शासन और विपक्ष दोनो ही किसान के साथ खड़े होने का दावा कर रहे हैं, केन्द्र और राज्य सरकारें तमाम घोषणायें कर रही हैं, आश्वासन दे रही हैं फिर भी किसानों की आत्महत्याएं रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं। यह इस बात का सबूत है कि देश के किसान को किसी पर भरोसा नहीं रहा, वह सबको तो आजमा चुका है। वह देख रहा है कि खेती से सीधे सीधे जुड़े तमाम व्यवसाय जैसे खाद, बीज, कीटनाशक, कृषियंत्र आदि तो खूब फलफूल रहे हैं बस खेती ही हमेशा घाटे का धंधा रहा। आजादी के बाद भले ही किसान जमींदारों के चंगुल से छूट गया हो पर अब वह बाजार के गहरे दलदल में बुरी तरह घंस गया है जहां आत्महत्या ही उसे छुटकारे का एकमात्र रास्ता दिखाई देती है।
         देश में अंगरेजों के आने के पहले तक राजाओं, नवाबों, जागीरदारों का जमीन पर भले ही सैद्धांतिक अधिकार रहा हो पर व्यवहार में गांव समाज का ही दखल रहता था और कृषि उपज का कुछ भाग टैक्स के रूप में राजकोष में जाता था। पहली बार अंगरेजों ने भारत में जमींदारी प्रथा लागू की। दरअसल जब बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को युद्ध में  हरा कर अगरेजों ने बंगाल की दीवानी हासिल की तब उन्हें लगा कि बिना कुछ किये धरे, बिना कोई जोखिम उठाए आमदनी का बढ़िया जरिया हाथ लग गया। फिर क्या था जल्द ही लगान वसूली के लिए पुख्ता इंतजाम किये गये। किसानों से सीधे लगान वसूल करना कठिन लगा इसलिए दबंग, असरदार लोगों को जमींदार बनाया और उन्हें जमीन के मालिकाना हक के साथ साथ तमाम अधिकार दिये, अंगरेजों की छत्रछाया तो उन्हें मिली ही थी। इस तरह से अंगरेजों ने भारत में अपना एक पिट्ठू वर्ग तैयार कर लिया जिसने किसानों का सबसे अधिक शोषण किया। उस दौर में जमींदारों द्वारा  किसानों पर किये गये अत्याचार, शोषण इतिहास के पन्नों, साहित्य, सिनेमा आदि विभिन्न माध्यमों में दर्ज हैं।
        जिस तरह वनों को सरकार की सम्पत्ति घोषित करने पर आदिवासी समाज ने अंगरेजों के खिलाफ जबरदस्त विद्रोह किये उसी प्रकार जमींदारों, साहूकारों की लूट, अत्याचार के खिलाफ किसानों नें बड़े पैमाने पर आन्दोलन किये। उस समय किसानों ने नारा दिया था जमीन जोतनेवाले की। किसान आन्दोलनों  के दबाव के चलते  ही कांगरेस ने जमींदारी प्रथा  के खात्मे को सबसे पहले नंबर पर रक्खा। आजादी मिलने पर कांगरेस सरकार ने जमींदारी विनाश कानून तो बनाया पर उसमें इतने सुराख थे कि किसान आन्दोलन का सपना-जमीन जोतनेवाले की, सपना ही रहा। इससे ज्यादातर बड़े किसानों को लाभ हुआ और वे भू स्वामी बन गये। बड़ी जोतवालों से फालतू जमीन लेकर भूमिहीनों में बांटने के लिए सीलिंग कानून लाया गया पर इस कानून को लागू करने में ही दस साल लग गये जिससे नतीजा खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाला हुआ। एक तो कानून ही बहुत लचर था, उस पर क्रियान्वयन और भी घटिया। अनुमान से बहुत कम और वह भी घटिया किस्म  की जमीन भूमिहीनों मे बटी। समाज में बढ़ते असंतोष को देखकर आनेवाले समय में खूनी संघर्ष को टालने के लिए अहिंसात्मक सामाजिक परिवर्तन का एक गैरसरकारी प्रयास गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त पर बिनोवा भावे जी ने भूदान आन्दोलन के जरिये किया। गांव गांव पद यात्राएं कर बड़े काश्तकारों को समझा बुझाकर कुल जमीन का छठवां भाग स्वेच्छा से दान करने को प्रेरित किया गया। शुरूआती सफलता के बाद आगे चलकर यह आन्दोलन भी कई कारणों से विफल रहा।
         भूमि सुधार के अब तक के प्रयास सही मायने में भूमि के पुनर्वितरण में कारगर सिद्ध नहीं हुए। पुराने जमींदार, बड़े काश्तकार किसी न किसी तरह से बड़ी मात्रा में जमीन बचाने में सफल रहे। भूमिहीन अपनी बारी आने का बस इंतजार करते रहे लेकिन जब उनके सब्र का बांध टूटा तो वे जमीन पर कब्जा करने की सीधी कार्यवाई पर उतर आये। छठवें दशक के अंतिम वर्षों तथा सातवें दशक की शुरुआत में समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टियों ने सीधे जमीन कब्जा करने के अभियान चलाए। इसी दौर में जमीन के मुद्दे पर नक्सलबाड़ी गांव से हिंसात्मक नक्सल आन्दोलन शुरु हुआ।सरकारी दमन के चलते इन प्रयासों को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकी और भूमिहीन किसानों के लिए-जो जमीन को जोते बोए वह जमीन का मालिक होए, एक नारा ही बना रहा तभी तो आज भी देश में लगभग 25 करोड़ भूमिहीन किसान हैं।
.........क्रमश:

Bhonpooo.blogspot.in

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