Friday, May 29, 2015

कविता---- कोई यूं ही नहीं मरता


कोई यूं ही नहीं मरता
जिंदगी दांव पर नहीं रखता

बिखर जाता है पारे सा
लगाता मौत को अपने गले
होकर बहुत बेबस बहुत लाचार
जब कोई
सहारा ही नहीं मिलता
कोई यूं ही नहीं मरता

किया होगा जतन सारे
न डूबे नाव माझी ने
लड़ा होगा वह लहरों से
लिए पतवार हाथों में
हवाले लहरों के सबकुछ
कोई यूं ही नहीं करता
कोई यूं ही नहींमरता

कहे जाते बहादुर वो
निकल आए भंवर से जो
कहें कायर उन्हें कैसे
लड़े फिर भी हैं डूबे जो
सरल उपदेश देना है
कि उसमें कुछ नहीं लगता
कोई यूं ही नहीं मरता

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