कल शब-ए-मालवा इंदौर में वसीम बरेलवी, मुनव्वर राणा , और राहत इन्दौरी साहब को सुना एक लम्बे अरसे के बाद बड़ा सुकून मिला। शक़ील आज़मी जी ने बड़ी ही ज़हनी बात कही की शायरी वो ताजमहल है जिसे बनाने के लिए हज़ारों कारीगरों की ज़रुरत नहीं होती, ये वो ताजमहल है जिसे शायर खुद अकेला बनता है। वो खुद ही इस ताजमहल का राजमिस्त्री है, शाहजहाँ है सब कुछ वही है। शुक्रिया हिदायतुल्ला खान साहब का जिन्होंने कल शब-ए-मालवा की शाम को और खूबसूरत बनाया इस महफ़िल को सजाकर। पेश-ए-खिदमत है वसीम बरेलवी साहब की चंद शायरी।
१.
मैं बोलता गया हूँ वो सुनता रहा ख़मोश
ऐसे भी मेरी हार हुयी है कभी कभी।।
२.
फूल तो फूल है आँखों से घिरे रहते हैं
कांटे बेकार हिफाज़त में लगे रहते हैं।।
उसको फुरसत नहीं मिलती की पलटकर देखे
हम ही दीवाने हैं दीवाने बने रहते हैं।।
मुन्तज़िर मैं ही नहीं रहता किसी आहट का
कान उसके भी दरवाज़े पे लगे रहते हैं।।
देखना साथ न छूटे बुज़ुर्गों का कहीं
पत्ते पेड़ों पे लगे हों तो हरे रहते हैं।।
१.
मैं बोलता गया हूँ वो सुनता रहा ख़मोश
ऐसे भी मेरी हार हुयी है कभी कभी।।
२.
फूल तो फूल है आँखों से घिरे रहते हैं
कांटे बेकार हिफाज़त में लगे रहते हैं।।
उसको फुरसत नहीं मिलती की पलटकर देखे
हम ही दीवाने हैं दीवाने बने रहते हैं।।
मुन्तज़िर मैं ही नहीं रहता किसी आहट का
कान उसके भी दरवाज़े पे लगे रहते हैं।।
देखना साथ न छूटे बुज़ुर्गों का कहीं
पत्ते पेड़ों पे लगे हों तो हरे रहते हैं।।
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