Sunday, August 31, 2014

शुक्रिया प्रकाश पुरोहित जी। 

आज प्रकाश पुरोहित जी से मुलाक़ात हुयी। प्रकाश पुरोहित जी इंदौर से निकलने वाले प्रभातकिरण अखबार के संपादक हैं। उनसे मिलकर मुझे विष्णु नागर और जनसत्ता के प्रसून लतांत जी की याद आ गयी जिनकी हौसला-अफजाई की वजह से क़लम का सिपाही बन आप तक पहुँचने की हिमाक़त कर रही हूँ। वो कलम जो एक लम्बे अरसे से नहीं चली थी प्रकाश पुरोहित जी की वजह से फिर से चलने की कोशिश कर रही थी। पुरोहित जी ने कहा की हर लेखक को पढ़ने वाले के कंधे पर हाथ रखकर लिखना चाहिए। जिन शब्दों का इतेमाल हम बोल-चाल की भाषा में नहीं करते उनका इतेमाल आखिर लिखने में क्यों करते हैं ? अगर आप लिखते वक़्त अपने पाठक से कद में ऊंचा होकर लिखोगे तो आपको पढ़ने वाला शख्स आपके नीचे से गुज़र जाएगा। वो खुद को आपके करीब महसूस नहीं कर पायेगा, आपसे जुड़ नहीं पायेगा। जैसा आप सोचते हैं वैसा ही हर आम आदमी भी सोचता है फ़र्क़ सिर्फ इतना है की वो अपनी बातों को आपकी तरह बयां नहीं कर सकता। उसके पास आप जैसा अंदाज़-ए -बयां नहीं होता और न ही शब्दों का वो खज़ाना जिसके मालिक आप हैं। बेहतर होगा कि आप अपने लेख में आकड़ों का अंबार लगाने के बजाय ऐसी बात कहें जो लोगों के दिलों तक पहुंचे। आंकड़े लोगों को याद नहीं रहते लेकिन पढ़ी सुनी कोई पते की बात उसके ज़हन में घर कर जाती है। अपने आस-पास के लोगों, उनके काम धाम और बातों को ध्यान से देखो -सुनो और अपनी कलम को उनके हिसाब से उनके ही अंदाज़ में चलाओ  फिर देखो लोगों को पढ़ने में कितना मज़ा आएगा। अगर छोटे बच्चों को हम बड़े ही नीरस ढंग से नैतिकता का पाठ पढ़ाएं तो उनको वो सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं होती लेकिन अगर हम वही बात किसी कहानी के ज़रिये उन तक पहुंचाएं तो उन्हें मज़ा आता है। आपकी कलम से शब्द नदी की मानिंद कल-कल, छल-छल कर अपनी धुन में रवानी के साथ बहने चाहिए। कहीं पढ़ा भी था - जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख, फिर इस भीड़ में सबसे बड़ा तू दिख। सूचना और संचार क्रांति के इस युग में 

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