मौत के मुहाने पर खड़ी एक और ज़िन्दगी : दास्तान-ए-रैगिंग
दिल्ली के अपोलो अस्पताल में एक ज़िन्दगी मौत से लड़ रही है। ४८ घंटे से खामोश पड़ी इस ज़िन्दगी के एक बार पलक झपकाने से डॉक्टरों और परिजनों के दिल में उम्मीद की किरण जाएगी है। ऊपर वाला इस उम्मीद को कायम रखे। मौत से जूझने वाली ये ज़िन्दगी महज़ १४ साल की है जिसका नाम है आदर्श। आदर्श ग्वालियर के सिंधिया स्कूल फोर्ट में ९ वीं का छात्र है जिसने अपने सीनियर्स की रैगिंग से परेशान होकर ख़ुदकुशी की कोशिश की। दुखद पहलू तो ये है की स्कूल प्रबंधन इस मामले को छुपाने में लगा है। जिस चादर से उसने फांसी लगाने की कोशिश की उस चादर तक को छुपाया गया। आदर्श के साथी कह रहे हैं की उसको हॉस्टल की गैलरी में एंगल से लटका देख बेहोशी की हालत में नीचे उतारकर अस्पताल भेजा गया तो स्कूल प्रबंधन कह रहा है की उन्हें वो अपने कमरे में बेहोश मिला। इस घटना से स्कूल के सभी बच्चे ख़ौफ़ज़दा है और उनके परिजन फिक्रमंद इसलिए सिंधिया फोर्ट में अपने बच्चों से मिलने आने वाले परिजनों का तांता लगा रहा। आदर्श के माता पिता की आँखों में दर्द भी है और गुस्सा भी।
ज़्यादा पुरानी घटना नहीं है २००९ में भी हिमांचल प्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाले १९ वर्षीय अमन कचरू की रैगिंग की वजह से ही मौत हो गयी थी। रैगिंग के नाम पर उसके नशे में धुत्त सीनियर्स ने उसे बेरहमी से पीटा और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया था जिसके कारण वो ज़िन्दगी से हार गया। माना दोषी छात्रों को ४ साल की सजा मिली पर अच्छे आचरण के आधार पर वो ९ महीने पहले ही जेल से रिहा हो गये। ऐसा ही अच्छा आचरण उन्होंने अमन के साथ क्यों नहीं किया, क्यूँ उसके साथ दरिंदगी से पेश आये और उसकी जान के दुश्मन बन बैठे ? ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाओं से हम कोई सबक क्यों नहीं लेते ?
अब जब रैगिंग की बात निकली है तो चलिए रैगिंग के इतिहास के पन्नों को खोल कर देखते हैं। इसका इतिहास १२०० साल पुराना है। ग्रीक के ओलम्पिक खेलो से शुरू हुयी रैगिंग मिलिटरी से होती हुयी मेडिकल
कॉलेजों, इंजीनियरिंग व अन्य कॉलेजों के मार्फ़त स्कूलों तक पहुँच गयी। भारत में इसकी शुरुआत अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के साथ हुयी। पहले यह विषय उतना चर्चित इसलिए नहीं क्यूंकि अंग्रेजी शिक्षा उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। जैसे जैसे अंग्रेजी शिक्षा आमजन तक पहुंची वैसे वैसे रैगिंग भी इसके साथ नत्थी हो गयी।
एम्स, क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज, आई आई टी जैसे कॉलेजों में रैगिंग का इतिहास नाकाबिल-ए-बर्दाश्त और भयावह रहा है। खासतौर से मेडिकल कॉलेजों का। रैगिंग के नाम पर सीनियर्स अपने जूनियर्स के मज़े लेने के लिए उन्हें तरह तरह से परेशान करते हैं। सबके सामने कपडे उतारकर न्यूड परेड करना , सीनियर्स के कपडे धुलवाना, सर के बल खड़े होने को कहना, कॉलेज गेट से आने वाली किसी भी लड़की को किस करने को कहना, इंटीमेट सीन्स करवाना, चालू हीटर पर पेशाब करवाना आदि रैगिंग के हथियार हैं। जो इसके करने से इंकार करता है उसको सबके सामने मारना पीटना, गाली गलौच करना रैगिंग करने वाले सीनियर्स का काम होता है। जो छात्र भावनात्मक रूप से कमज़ोर होते है वो अवसाद में चले जाते हैं। जो रैगिंग की ज़िल्लत बिलकुल नहीं झेल पाते वो मौत को गले लगा लेते हैं।
रैगिंग एक तरह की संगठित कैंपस हिंसा है जिसमें सीनियर्स का ग्रुप जूनियर्स को इंटरैक्शन और तहज़ीब सिखाने के नाम पर शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। इसके पक्षधर यह दलील देते है की इससे सीनियर्स और जूनियर्स एक बीच मज़बूत रिश्ता बनता है। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हॉउस कॉलेज और हॉस्टल की छात्रा रही हूँ। मैं खुद रैगिंग की भुक्तभोगी हूँ। सीनियर्स को कहीं भी देखते ही दंडवत प्रणाम करना, उनके सामने सर झुका कर चलना, बात बात पर सीनियर्स का चिल्लाना, सारी सीनियर्स का नाम याद रखना और भूल जाने पर उठक-बैठक लगाना मैंने भी किया है। एक तो माँ-बाप से दूर उनकी याद सताती दूसरा सीनियर्स सताते, कई महीने रोते गुज़रे मिरांडा हॉउस में।
अपने देश में तमिलनाडू में सबसे पहले रैगिंग के ख़िलाफ़ कानून बना था १९९७ में उसके बाद २००१ में सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में रैगिंग को बैन कर दिया। पर अफ़सोस रैगिंग पर प्रतिबन्ध होने के बावजूद कई छात्रों को रैगिंग के कारण मौत को गले लगाना पड़ता है। रैगिंग की शिकायत के लिए हेल्पलाइन भी बनायी गयी है। helpline@antiragging.in पर रैगिंग पीड़ित छात्र अपनी शिकायत दर्ज़ करा सकता है। उसकी पहचान गुप्त रखी जाती है, साथ ही वो 1800-180-5522 पर कॉल करके भी शिकायत कर सकता है। २००९ में अमन कचरू की मौत के बाद यू.जी.सी. ने रैगिंग को रोकने के लिए एक रेगुलेशन बनाया जिसके तहत हर कॉलेज में यह अनिवार्य कर दिया गया कि हर कॉलेज नए छात्रों को सीनियर्स से अलग रखेगा, बीच बीच में एंटी रैगिंग स्क्वॉड चेकिंग करेगा खासकर रात में, सभी छात्रों और उनके परिजनों से एफिडेविट भरवाया जाए की वो रैगिंग में किसी भी हाल में शरीक नहीं होंगे। ऐसी ही और बहुत सी शर्ते हैं पर अफ़सोस इन सबके बावजूद रैगिंग ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है।
रैगिंग को महज़ कानून बनाकर नहीं रोक जा सकता। इसके लिए हमें भी कड़े कदम उठाने होंगे। जिस कॉलेज या स्कूल में रैगिंग की घटना हो उस स्कूल प्रबंधन की कड़ी निंदा होनी चाहिए साथ ही बहिष्कार भी। सीनियर्स को अपने जूनियर्स के प्रति संवेदनशील बनाने की भी ज़रुरत है ताकि वो उन्हें अपने छोटे भाई-बहन की तरह समझें। अगर किसी की रैगिंग के कारण मौत हो जाए तो दोषी छात्र को जेल के साथ साथ उसकी मार्कशीट और डिग्री पर भी उसके दोषी होने का ठप्पा लगा होना चाहिए ताकि उसे अपना किया ज़िन्दगी भर याद रहे और वो जहां भी नौकरी के लिए जाए वहाँ का मैनेजमेंट उसके कॉलेज बैकग्राउंड से अवगत हो। SAVE, CURE , स्टॉप रैगिंग, नो रैगिंग फाउंडेशन जैसी गैर सरकारी संस्थाओं को मज़बूत बनाने की ज़रुरत है। इन्हे लोगों का समर्थन मिलना चाहिए। इसके अलावा रैगिंग बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए चाहे वो मज़ाक के स्तर पर ही क्यों न की जाए।
भावना पाठक
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