Saturday, July 31, 2010

मेरे प्रिय मुन्नवर राणा के कुछ शेर आपको नज़र करती हूँ

माँ पर तो उन्होंने जो लिख दिया है वो इतिहास हो गया और उनसे बेहतर कोई और लिख ही नहीं पाया सुनिए-

किसी को घर मिला हिस्से में, या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में माँ आई॥

ऐ अँधेरे देख मुह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दी, घर में उजाला हो गया॥

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
एक मेरी माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती॥

इसके अलावा --

मिटटी में मिला दे की जुदा हो नहीं सकता
अब इससे जियादा मैं तेरा हो नहीं सकता
किसी शक्स ने रख दी हैं तेरे दर पे आँखें
इससे रोशन तो कोई और दिया हो नहीं सकता॥

कहने की ये बात नहीं है लेकिन कहना पड़ता है
एक तुझसे मिलने की खातिर सबसे मिलना पड़ता है
माँ बाप की बूढी आँखों में एक फिक्र सी छाई रहती है
जिस कम्बल में सब सोते थे अब वह भी छोटा पड़ता है॥

ऐसा लगता है की अब कर देगा आज़ाद मुझे
मेरी मर्ज़ी से उड़ाने लगा सय्याद (शिकारी) मुझे
मैं समझता हूँ इसमें कोई कमजोरी है
जिस शेर पे मिलने लगे गर दाद मुझे॥

उनके हाथों से मेरे हक में दुआ निकली है
जब मर्ज़ फ़ैल गया है तो दावा निकली है
एक ही झटके में वो हो गयी टुकड़े टुकड़े
कितनी कमज़ोर वफ़ा की ज़ंजीर निकली है॥

मेरी अनाह(अहंकार) का कद ज़रा ऊँचा निकल गया
जो भी लिबास पहना वो छोटा निकल गया
वो सुबह सुबह आये मेरा हाल पूछने
कल रात वाला खाब तो सच्चा निकल गया
वो डबडबाई आँखों से आये हैं देखने
इस बार तो करेला भी मीठा निकल गया
शायद वफ़ा नहीं है हमारे नसीब में
इस ओधनी का रंग भी कच्चा निकल गया॥

दुनिया सलूक करती है हलवाई की तरह
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह
माँ बाप मुफलिसों की तरह देखते हैं बस
कद बेटियों के बढ़ते हैं महंगाई की तरह
हम चाहते हैं रक्खे हमें भी ज़माना याद
ग़ालिब के शेर तुलसी की चौपाई की तरह
हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए
हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह॥

शायर
मुन्नवर राणा साहब

हसन काज़मी साहब के कुछ शेर

देखिये कितनी सादगी से शायर ने कितनी बड़ी बात कह दी -

खूबसूरत हैं आँखें तेरी रात को जागना छोड़ दे
खुद ब खुद नींद आ जायेगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे॥

और दूसरा तो अद्भुत है इंकलाबी शेर

कोई बच्चा तड़पता है तो माँ का दम निकलता है
मगर जब माँ तड़पती है तो फिर जम जम निकलता है॥

शायर
हसन काज़मी

तेरी खातिर

हवा की बददिमागी से मैं वाकिफ हूँ मगर फिर भी
हथेली पे चरागे जिंदगानी ले के आया हूँ
जहां वालों तुम्हारे वास्ते मैं तपते सेहरा में
रगड़ के एडियाँ अपनी ये पानी लेके आया हूँ ॥

शायर
श्रवण कुमार उज्जैनी

Friday, July 30, 2010

जावेद साहब का एक शेर अर्ज़ है

जावेद साहब की तो बात ही निराली है। इस " जादू" की कलम में वाकई जादू है साथ ही शख्सियत में भी। एक बार आप उनको सुनने बैठेंगे तो बिना रुके बातों का वो सिलसिला चलता रहे ऐसा ही दिल चाहेगा आपका। हर सवाल का जवाब इस कलाकारी से देते हैं की बस मज़ा ही आ जाता है। एक चुटकी जो उन्होंने ली है ज़रा गौर फरमाईयेगा मज़ा आ जाएगा कसम से --

अक्सर वो कहते हैं, वो बस मेरे हैं
अक्सर क्यूँ कहते हैं , हैरत होती है ॥

पारा परा है जिस्म जान मेरे

इंदौर में हर साल एक बड़ा मुशायरा होता है "जश्न जारी" जिसमें देश विदेश से जाने माने शायर आते हैं और इस बार इसमें सम्मानित किया गया था जावेद साहब को । उसी जश्न जारी में दुबई से एक शायर आये थे जुबैद फारूक उनकी एक नज़्म पेश कर रही हूँ आपके सामने --

पारा पारा है जिस्म जान मेरे
मुझको मिलते नहीं निशा मेरे
दर्द दिल से कहीं नहीं जाते
अश्क आँखों से हैं रवां मेरे
गैर की अब करून मै क्या चाहत
जो हैं मेरे वो हैं कहाँ मेरे ॥
(इसको फारूक साहब ने तरन्नुम में सुनाया था )

हवाएं देख के घर से निकल रहा हूँ मैं

हवाएं देख के घर से निकल रहा हूँ मैं
तरीके जीने के अपने बदल रहा हूँ मैं
न कोई शाम न अब तक कोई सहर आई
अजब सफ़र है के सदियों से चल रहा हूँ मैं
अकेला छोड़ के जायेगी तू कहाँ मुझको
ठहर ठहर अरी दुनिया के चल रहा हूँ मैं॥

शायर
श्रवण कुमार बहार "उज्जैनी"

मोहब्बत हर किसी पे मेहरबान नहीं होती

जब भी आप किसी की मोहब्बत में गिरफ्तार होते हैं वो शक्स ही आपकी पूरी दुनिया बन जाता है। उसके आगे कुछ सूझता ही नहीं। कमज़ोर से कमज़ोर व्यक्ति भी अपनी मोहब्बत को पाने की खातिर दुनिया से बगावत कर बैठता है, अपनों से उलझने लगता है। जितनी शिद्दत से हम मोहब्बत करते हैं मैं सोचती हूँ अगर उतनी ही शिद्दत से हर काम को किया जाए तो पता नहीं किया दुनिया कहाँ से कहाँ पहुच जाए। पर जब वो ही मोहब्बत नाकाम हो जाती है तो ज़िन्दगी वीरान हो जाती है, चेहरे की हंसी न जाने कहाँ खो जाती है, यादें पल पल तडपाती हैं और अक्सर मोहब्बत में नाकामयाब शक्स या तो दर्द के समन्दर में डूब जाता है या फिर दुनिया से किनारा कर लेता है (अगर उसने सच्ची मोहब्बत की हो तो)। बहुत कम लोग ही दुःख के उस सागर को पार कर पाते हैं और अपने जीवन को फिर किसी बड़े मकसद से जोड़ पाते हैं, जीवन को विस्तार दे पाते हैं। अक्सर प्यार की शुरुआत स्कूल या कॉलेज से होती है। कॉलेज में तो फिर भी थोड़ी समझदारी आ जाती है हममें पर स्कूल टाइम पर तो दिल बच्चा ही होता है जी। उस गीली माटी की तरह जिसे मोहब्बत रुपी कुम्हार जो चाहे वो आकार दे। वैसे तो जब भी मोहब्बत होती है तो सारी की सारी होशियारी धरी रह जाती है दूसरों को जो नसीहतें हम दिया करते हैं वो नसीहतें हमारे ही काम नहीं आती। न जाने कैसा पागलपन कैसा जूनून सा छाया रहता है। उसके साथ रहो तो न जाने वक़्त कैसे पंख लगाके उड़ जाता है कुछ पता ही नहीं चलता। आपके जीने का मकसद ही बदल जाता है, आप में ना जाने कितनी तब्दीलियाँ आ जाती हैं खुद को पता ही नहीं चलता। पर जब परिस्थितियों वश या फिर किसी और कारणों वश वो मोहब्बत का खूबसूरत खाब हकीक़त नहीं बन पता तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने खाब से जगा दिया हो, आसमान में उड़ते परिंदे के मनो पर ही काट दिए हों और वो धडाम से नीचे आ गिरा हो। बहुत ही किस्मत वाले होते हैं वो जिनकी मोहब्बत परवान चढ़ती है, जो खाब उन्होंने साथ मिलके देखे थे वो साथ पूरे कर पाते हैं। वरना अक्सर ये हर किसी पे मेहरबान नहीं होती. नाकाम मोहब्बत से भी मैंने यहाँ प्रेरणा लेने की कोशिश की है -

तुम थे करीब तब न बदल सकी खुद को
तुम दूर होके दे गए नयी पहचान मुझको
तुम थे तो थी एक छोटी सी दुनिया अपनी
तुम्हारे जाते ही विस्तार मिल गया उसको
अब नहीं सालता मुझको तुम्हारे जाने का गम
कर ली है उससे दोस्ती बना लिया हमदम ॥

भावना के
"दिल की कलम से "

Thursday, July 29, 2010

ज़िन्दगी से तो मौत अच्छी है

तन्हाई डसती है अब तो तेरे बिन
दिल से पूछो कैसे कटता है हर दिन
मैक़दे में क्यूँ न ख़ुशी तलाश करूँ
कब तक रात गुजारूं मैं तारे गिन गिन
ज़िन्दगी से तो मौत अच्छी है
कम से कम पास तो आ रही है दिन ब दिन ॥

भावना के
"दिल की कलम से "

मेरे दिल-ओ-अज़ीज़ शेर

चिराग दिल का बुझाना चाहता था
वो मुझको भूल जाना चाहता था
मुझको वह छोड़ जाना चाहता था
मगर कोई बहाना चाहता था
ज़बा खामोश थी उसकी मगर
वो मुझे वापस बुलाना चाहता था ॥

रोना पड़ेगा देर तक अब बैठके मुझे
मैं कह रही थी आपको हंस कर न देखिये
कांटो की रहगुज़र हो की फूलों का रास्ता
फैला दिए हैं पाँव तो चादर न देखिये
मासूमियत पे आपके हंसने लगेगी झील
कच्चे घड़े को पानी से भरकर न देखिये॥


शायर ???

तुम जब इतिहास लिखोगे

जब भी आम आदमी मरता है वो सिर्फ आंकडा ही बन कर रह जाता है, उसी जगह अगर कोई नामी गिरामी आदमी की मौत हो जाए तो उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है। मीडिया वाले इमोशनल फीचर्स लिखते हैं उस पर, उसकी बचपन से लेकर उम्र के उस पड़ाव तक की अगर फोटो मिल जाए तो फिर सोने पे सुहागा एक अच्छा खासा कोलाज तैयार हो जाता है। पर आम आदमी की कीमत तो हमारे यहाँ हर चीज़ से सस्ती है। जियादा विरोध न हो, लोगों का गुस्सा आक्रोश बनके न फूटे इसलिए मरने वालों के परिजनों की तरफ मुआवजे का टुकड़ा फेंक दिया जाता है।

तुम जब इस देश का इतिहास लिखोगे

क्या मेरी भूख मेरी प्यास लिखोगे

दंगे में मुखिया मर गया, बच्चे हुए उदास

तुम आंकड़ों में सिर्फ एक लाश लिखोगे॥

शायद अब इससे आगे कुछ भी कहने की ज़रुरत नहीं मुझे, है न ?

(जिन शायरों का नाम मुझे पता है मै लिख दूंगी पर अगर न लिखूं तो समझिएगा की मुझे पता नहीं है और अगर आपको पता हो तो ज़रूर बताईयेगा )

शायर ???

जिद्द

रौशनी की नयी कतार बनाने की जिद्द
लीक से हटके कोई धार बनाने की जिद्द
हमने क्या क्या न बनाया है कलम को अब तक
इस नए दौर में हथियार बनाने की जिद्द
प्यार माना की है गुनाह ज़माने में मगर
खुद को सौ बार गुनाहगार बनाने की जिद्द
मौत आकर है खड़ी राहे वतन में लेकिन
मौत को हम में है त्यौहार बनाने की जिद्द
बिका दिमाग, बिकी रूह, जुबां भी गिरवी
फिर भी अखबार को अखबार बनाने की जिद्द

शायर का पता नहीं अगर आपको पता हो तो प्लीज़ ऐड कर दीजियेगा पर है ये भी शायर के
"दिल की ही कलम से "

शायर ???

Wednesday, July 28, 2010

मायावती ke जलवे

जो आप पढने जा रहे है उसको पढ़ कर आपको तो मज़ा आएगा पर यकीन मानिए अगर मायावती जी ने पढ़ा तो मेरी खैर नहीं और हो सकता है अगर मैं कोइ आई एय एस अधिकारी होती तो वो मेरा या तो तबादला करा देती या फिर मेरा वो हश्र होता की फिर कभी इतनी बेबाकी से सच्चाई कहने की कभी हिम्मत ही न होती दोबारा। अगर आप लखनऊ गए होंगे तो आपने वहाँ उनकी मूर्तियाँ ज़रूर देखि होंगी और अगर जाना हो तो देखने को मिलेंगी ही वो आपको । मायावती लखनऊ में कई अच्छी भली रोड्स को वापस से तोडवाकर बनवा रही हैं ताकि लखनऊ देखने वाले उनकी तारीफ करते न थके। सारा विकास आपको पूरे उत्तर प्रदेश में सिर्फ लखनऊ में ही देखने को मिलेगा। बाकी शहरों से शायद उतना लगाव नहीं है उनको या फिर वहाँ दौरा ही न लगता हों असली वजह क्या है दूसरे शहरों की इस उपेक्षा की ये तो उनसे बेहतर भला और कौन बता सकता है हम तो बस कयास ही लगा सकते हैं। उनकी मूर्तियों पर ही कलम चलाने का दिल किया। अब कमबख्त दिल को भला कौन रोक सका है। दिल के हाथों मजबूर होकर इस बेचैनी को आपसे कह रही हूँ ताकि कुछ तो सुकून मिले मुझे ---

पत्थर की मूरत भला, करेंगी कितना नाम
जन जन के दिल में बसे, करिए ऐसा काम॥
(माया जी माफ़ कीजियेगा अगर इस भावना ने आपकी भावनाओ को आहत किया हों तो )

बाज़ार का घिनौना चेहरा आपको दिखाने की कोशिश

हम आजकल इस कदर चीज़ों में ख़ुशी तलाशने लगे हैं की असल ख़ुशी के मायने ही भूलते जा रहे हैं। आज गाडी, बंगला, हर तरह का ऐशो आराम ही ख़ुशी का पर्याय बन गया है। पैसा कमाने के चक्कर में सारे रिश्ते नातों को ताक पर रख दिया है। काम के बोझ तले, आगे निकलने की होड़ में, टार्गेट पूरा करने के आगे और कुछ दिखाई ही नहीं देता। खैर इसमें सारा दोष हमारा हो ऐसा नहीं है ये सारा मायाजाल बाजारवाद का फैलाया हुआ है। जिसकी चमक दमक ने हम सबको चका चौंध कर दिया है। इस बाज़ार में हम एक ग्राहक है और हर चीज़ ही बिकाऊ है। रिश्ते नातों, भावनाओ, किसी के सुख दुःख से इसको कोई लेना देना नहीं है। यहाँ उसी की कीमत है जो बिकाऊ हो और जिसकी अच्छी कीमत मिले। अगर आप में खरीदने की क्षमता नहीं है तो माफ़ कीजियेगा इस बाज़ार में आपके लिए कुछ भी नहीं है। पहले आप इतने पैसे लायें की बड़े बड़े मॉलों से कुछ खरीद सकें, अगर आपका स्टेटस हाई फाई नहीं तो आप बड़े लोगों के साथ नहीं उठ बैठ सकते समझे आप ये इस बाजारवादी सभ्यता का कायदा है। तथाकथित विकसित देश विकाशील और पिछड़े देशों का उसी तरह से दोहन कर रहे हैं जिस तरह से अमीर गरीबों का खून चूसता है। हम क्या खो रहे हैं आज भले ही इसका एहसास हमें न हो क्यूंकि चका चौदह ने हमें अँधा बना दिया है पर जब आँखें खुलेंगी तो पता चलेगा सब कुछ लुट गया। अब भी वक़्त है इस जोंक से खुद को को बचा लो वरना इतना भी खून नहीं रह जाएगा, इतनी भी शक्ति नहीं रह जायेगी की मदद के लिए किसी को गुहार भी लगा सको। इस बाज़ार के आगे सरकारों की भी नहीं चलेगी हुज़ूर। मिनरल वाटर के नाम पे वो पानी जिस पर आपका अधिकार है आपको ही उनचन दामों पर बेचा जा रहा है। ज़मीनों के दाम इस कदर बढ़ गए हैं की आज खुद का घर एक आम आदमी के लिए सपने सा ही हो गया है। बड़े बड़े बिल्डर्स का बस चले तो खेतों की सारी ज़मीन पर वो हाई राइज़ बिल्डिंग्स ही बना के उनको ऊँचे दामों पर बेच दें। इस बाज़ार की नग्नता को आपके सामने रखने की एक छोटी सी कोशिश की है ---

कुदरत से जो मिल रहे थे हमको उपहार

भरी कीमत ले रहा उनकी भी बाज़ार॥

बना मदारी दुग्दुगी बजा रहा बाज़ार

नाच रही बन्दर बनी देशो की सरकार॥

संसाधन सब छीन कर कहते करो विकास

पंख काट के कह रहे आओ छुए अकास ॥ ( आसमान )

घटी गरीबी वे कहें , करें आंकड़े पेश

मगर गरीबी घुमती नए नए धर वेश ॥

शिक्षा पे कुछ दोहे

जगह जगह खुल रही है शिक्षा की दूकान
घूस कमीशन चल रहा एडमीशन दौरान ॥

इम्तेहान से भी बड़ी एडमीशन की जंग
भाग दौड़ माँ बाप की देख कबीरा दंग ॥

छात्रों से जियादा कहीं हैं बिजनेस स्कूल
दस दस लपकें एक पर , मर्यादा सब भूल ॥
(इतने बिजनेस स्कूल खुल गए हैं की बच्चे कम पद गए हर स्कूल छात्रों को लाने के लिए न जाने क्या क्या लुभावने वादे करता है, जहां भी कोई पढने के लिए इच्छुक दिखा नहीं की सब स्कूल अच्छा मुर्गा देख के उसकी तरफ लपकने लगते हैं। )

चुटकी लेने का भी अपना मज़ा है

हम भारतीय बहुत ही भावनात्मक होते हैं और फिल्म बनाने वाले ये बात बहुत अच्छे से जानते है यही वजह है की वो फिल्मों में हमें भावुक करने के लिए "इमोशंस " का प्रयोग करते ही करते हैं और सच पूछिए तो मैं भी अपने नाम के ही मुताबिक़ हूँ "भावना" बहुत ही "इमोशनल"। कुछ अच्छा हो तो भी आंसू छलक आते है और कुछ बुरा हो तो भी। मेरी ज़यादातर रचनाएँ आपको भावनात्मक ही मिलेंगी व्यंगात्मक बहुत ही कम लिख पाती हूँ ये बड़ी कमजोरी है मेरी जो आपके सामने उजागर कर रही हूँ क्यूंकि अब जब दोस्ती की है आपसे तो फिर आपसे क्या छुपाना। पिता जी ने आज के मज्नुयों पर चुटकी ली है जो मुझे बड़ी अच्छी लगी तो सोचा आपसे भी शेयर कर लूं।
सुनिए--
इश्क और मुश्क "सच" नहीं छिपता
झूठ जियादा समय तक नहीं टिकता
रात कब रोक पायी आने से सुबह को
क्या ये सच तुमको नहीं दीखता ?
अब कहाँ इश्क और इश्क की बातें
हाय वो दौर अब नहीं दीखता
रांझे जाते हैं सुबह से कोचिंग
गलियों में अब तो कोई नहीं मिलता
कैरियर ने उफ़ लगाम यूँ डाली
दायें बायें अब कोई नहीं तकता
हीर हैरान है कैसा रांझा यह
"नेट" (इन्टरनेट पे चैटिंग के अलावा ) के बहार जो कभी नहीं मिलता।

पिता अजय पाठक के
"दिल की कलम से "

बाद मुद्दत के हाँ मिल रहे हैं हम

अगर आप सालों साल बाद अपने किसी पुराने मित्र से मिलो तो उसका दिल आपको पहले जैसा ही मिलेगा। उससे मिलके वही पुरानी बातें करोगे जो वक़्त आपने साथ गुज़ारे थे एक दूसरे के। वो वक़्त भले ही दोबारा न आ सके फिर पर उसकी यादें आप दोनों के ज़ेहन में वैसी की वैसी ही होंगी पर जिस्मानी तौर पे कितनी तब्दीलियाँ आ जाती हैं, नज़र कमज़ोर हो जाती है, आवाज़ में कम्पन, चेहरे पे वक़्त की दी हुयी झुरियां और न जाने क्या कुछ लेकिन फिर भी अपने पुराने साथी से मिलने का वो जोश ठंडा नहीं पड़ता । पुरानी यादें किताब के पन्नों की मानिंद एक के बाद एक कर खुलती चली जाती हैं और शायद मिलन का वो पल हमारी ज़िन्दगी के चंद खूबसूरत लम्हों में शुमार हो जाता है। उन लम्हों के एहसास को ही संजोने और शब्दों में पिरोने की कोशिश की है मेरे पिता अजय पाठक जी ने जिसे मैं आपके सामने रख रही हूँ ---

बाद मुद्दत के हाँ मिले हैं हम

दूर नज़रों से हाँ रहे हैं हम

क्या हुआ जो दूरियां दुश्वारियां थी

आज लो पास फिर खड़े हैं हाम

जानता हूँ समय न लौटा कभी

सीढियां( उम्र की ) कितनी चढ़ चुके हैं हम

बदलें हैं जिस्म कितने दोनों के

देख आईना हंस रहे हैं हम

आ गया वक़्त फिर जुदा होंगे

जाओ तुम भी की जा रहे हैं हम

है बड़ी पूँजी चंद ये लम्हे

रौशनी इनसे पा रहे हैं हम।

पिता अजय पाठक के

"दिल की कलम से "

Monday, July 26, 2010

माँ का आँचल खुदा के दुआओं की नेमत

माँ का आँचल खुदा के दुआओं की नेमत
लगा सकते नहीं उसकी हम कोई कीमत ।
जिसके सर पे है उस माँ के आँचल का साया
ग़म का तूफ़ान उसको डिगा भी न पाया ।
उसकी वजह से है तेरी दुनिया में ज़ीनत ( खूबसूरती)
लगा सकते नहीं माँ की ममता की कीमत।

भावना के
"दिल की कलम से "

असफलता सफलता का ही द्वार है

हार के ऊपर जो मैंने नीचे लिखा है इसकी प्रेरणा हैं मित्र जैपाल जिन्होंने मुझसे हारे हुए दोस्तों के हक में दुआ करने को कहा था ताकि वो भी ज़िन्दगी में कामयाब हो सकें। अगर आपने थ्री idots फिल्म देखि होगी तो आपको याद होगा की आमिर एक जगह कहते हैं की पढना है तो काबिल होने के लिए पढो कामयाब होने के लिए nahi और वास्तव में सुख दुःख की ही तरह, dhoop छाँव की ही मानिद कामयाबी भी स्थायी नहीं है पता चला आज आप कामयाब है और कल नहीं लेकिन काबिलियत में स्थिरता है, वो सदैव आपके साथ है, आपके पास ही और कामयाबी की कुंजी भी वही है। बस जैपाल की बातों पर कलम चलने लगी और एक छोटी सी कविता बन गयी । अब प्रतिक्रया देने की बारी आपकी दोस्तों ---

हार का कहीं कोई साथी नहीं
इससे चेहरे पे कोई ख़ुशी आती नहीं
डरते है सभी हार के नाम से
जानी जाती है कामयाबी ही नाम से
क्यूँ समझते हो वो किसी काबिल नहीं
जिसको आज कोई जीत हासिल नहीं
असफलता सफलता का ही द्वार है
जीत दरसल हार का ही ज्वार है।

भावना के
"दिल की कलम से "

Saturday, July 24, 2010

मंजिल खुद करीब आती है

प्यास एक आस लेके आती है
आस ही हौसला बढ़ाती है।
इरादों में अगर बुलंदी हो
मंजिल खुद करीब आती है। ।
इससे लिखने के पीछे एक कहानी है सोचा आपसे वो भी शेयर कर लूं आपको सुनके भी अच्छा लगेगा और मुझे भी ख़ुशी होगी। हुआ यूँ की मेरे मन में आया की क्यूँ न मैं एम् फिल कर लूं और इत्तेफाक देखिये जब इंदौर के देवी अहिल्या विश्विद्यालय में एम् फिल के बारे में पता करने गयी तो फॉर्म भरने की आखरी तारिख थी २४ जुलाई और मैं पता करने गयी थी २१ जुलाई को । यानी मेरे पास गिन के तीन दिन थे फॉर्म भरने के लेकिन दिक्कत ये थी की मेरी एम् ऐय की मार्कशीट मेरे पास नहीं थी मैंने हिसार के गुरु जम्बेश्वर यूनीवर्सिटी से एम् ऐय किया था पर मार्कशीट अब तक नहीं आई थी। दिली इच्छा थी की मैं मॉस कमुनिकेसन में एम् फिल करूँ पर उम्मीद कम ही थी मार्कशीट के आने की और वक़्त भी नहीं था मैं जाके खुद ले आती। मैंने अपनी तरफ से हर संभव कोशिश की अपने सारे दोस्तों को जो दिल्ली में हैं उनको फ़ोन किया की वो मेरी मदद करें सबने कोशिश की पर काम बन नहीं पा रहा था। मैंने उस यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पे भी जाके रिजल्ट पता करने की कोशिश की पर नाकामयाब ही रही पर दिल में एक उम्मीद थी न जाने क्यूँ की मेरा ये काम हो जाएगा कैसे भी करके। मैंने वेबसाइट पे यूनिवर्सिटी के डायरेक्टर साहब का मेल आई दी देखा तो पहले तो लगा अगर मैं उनको मेल भी करती हूँ तो क्या फायदा पता नहीं मेरे जैसे कितने ही मेल आते होंगे उनको वो देखेंगे भी या नहीं पर दिल नहीं मन तो मैंने उनको एक मेल किया की सर आपका उठाया एक कदम मेरी ज़िन्दगी बदल सकता है आप मेरी उम्मीद की आखिरी किरण हो और दुसरे दिन ही उनका मेल आ गया और उन्होंने डिप्टी रजिस्ट्रार साहब से कहा था की वो ये मामला देखे एक बच्चे के भविष्य का सवाल है आखिरकार और उन्होंने शाम तक मुझे मेरे मार्कशीट की स्कैनेद कॉपी भेज दी। मुझे यकीं नहीं हो रहा था की वो काम जो कितना मुश्किल लग रहा था जिसके होने की उम्मीद भी बहुत ही कम थी आखिर कैसे हो गया। मैं शुक्रियादा करना चाहूंगी इसके लिए एम् आर पात्र सर का जो उस यूनिवर्सिटी के सर हैं, मेरे दोस्त मनीष और रणजीत का जिन्होंने मेरा साथ दिया मेरी मदद की और मेरे भाई मनु का जो आखिरी में हिसार जाने को तैयार था की वो लेके आएगा मेरी मार्कशीट पर इन सब की ज़रुरत ही नहीं पड़ी। मुझे प्यास थी एम् फिल करने की और मेरी प्यास ही मेरी आस बनी। उम्मीद ने मेरा हौसला बढ़ाया और मेरे इरादे ने मुझे मंजिल तक पहुचाया। कहने के लिए ये कोई बड़ी घटना नहीं पर उम्मीद से भरी है इसलिए आपके साथ शेयर किया।

भावना के
" दिल की कलम से "

निदा फाजली साहब के कुछ दोहे

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दिल ने दिल से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार।

छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है, बाहों भर संसार।

नदिया सींचे खेत को, तोता कुतरे आम
सूरज ठेकेदार सा सबको बाटें काम।

चाहे गीता बांचिये या पढ़िए कुरआन
तेरा मेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान।

मेरे दिल अज़ीज़ शायरों के चुनिन्दा शेर आपको नज़र करती हूँ

दिलों में ज़ख्म हैं तलवों में जिनके छाले हैं
उन्ही के दम पे ज़माने में ये उजाले हैं।

गरीबी देखके घर की वो फरमाईश नहीं करते
नहीं तो उम्र बच्चों की बड़ी शौक़ीन होती है।

प्यास कहती है चलो रेत निचोड़ी जाए
वरना हिस्से में समंदर नहीं आने वाला।

आईये महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं गरीबों की गली तक ले चलूंगी आपको।

कोई जागे के ना जागे ये मुक़द्दर उसका
आपका फ़र्ज़ है आवाज़ लगाते रहिये।

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा।

कुछ तो मज्बूओरियान रही होंगी
यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता।

बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फासला रखना
जहां दरिया समंदर से मिल्य, दरिया नहीं रहता।

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना न चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगा।

लोग टूट जाते हैं जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।

होके मायूस न आँगन से उखाड़ो पौधे
धुप बरसी है तो बारिश भी यहीं पर होगी।

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो।

ये हरे पेड़ हैं इनको न जलाओं लोगों
इनके जलने से बड़ी देर धुँआ रहता है
किसी का दिल न दुखाओ लोगों
इस आशियाने में खुदा रहता है।

कुछ लोग थे जो वक़्त के सांचे बदल गए
कुछ लोग है जो वक़्त के सांचे में ढल गए।



Wednesday, July 21, 2010

दोहावली

लगता है सरकार ने गरीबी को नहीं गरीबों को ही मिटा देने की ठान ली है तभी तो वॉल मार्ट जैसे मल्तीनेस्नल कम्पनी को लूट की खुली छूट के लिए आमंत्रित कर रही है की वो हमारे देश में आकर हमारे ही छोटे व्यापारियों को रौंद डाले। बड़े बड़े मॉलों में कपडे लत्ते से लेकर, आटा, चावल, दाल, सब्जी सब मिले ताकि न तो दुकानों का कोई अस्तित्व रह जाए और न ही हाट बाज़ारों का। ज़रा सोचिये अभी आपको अगर छोटी चीज़ की ज़रुरत होती है तो आप फट से पास की दुकान से ले आते हो अगर पगार न मिली हो या पैसे ghat गए तो उसके यहाँ आपका खाता भी चलता होगा अगर वही दुकान बंद हो जाए और आपको छोटी मोती चीज़ों के लिए भी मॉल जाना पड़े तो कैसा लगेगा। मॉल की पहली खामी आप वहाँ जाके चीज़ों का मोल भाव नहीं कर सकते। पता चला आप लेने तो राशन गए थे पर साथ ही बाजू में टंगी एक शर्ट पे दिल आ गया तो वो भी खरीद लाये, तो हो गयी न जेब ढीली, बिगड़ गया न आपका बजट? सब्जी मंडियों में ढेरों सब्जियां होती हैं एक जगह कुछ नहीं अच्छा लगा या दाम जियादा लगा तो दूसरी जगह से ले लिया पर मॉल में आपको यह सुविधा कहाँ मिलेगी वहाँ तो जो है वही खरीदना पड़ेगा और जब वहाँ से खरीद रहे हो तो मॉल में ऐसी में मज़े से सब्जी खरीदने का चार्ज भी आपको ही देना पड़ेगा।
ज़रा सोचो आपको और हमें तो तकलीफ होगी ही साथ ही उन दुकानदारों का क्या, उन व्यापारियों का क्या जिनकी रोज़ी रोटी इससे चलती है ना जाने कितने लोग बेरोजगार हो जायेंगे। पहले ही बेरोज़गारी कम है क्या ऊपर से महंगाई ने कमर तोड़ रक्खी है। अब ऐसे में आदमी अपना पेट पालने के लिए चोरी डकैती, लूट पात करने लिए तो मजबूर होगा ही न क्राइम रेट तो बढेगा ही। क्या होगा अगर देश में एमेंसीज़ का बोल बाला होता है तो कुछ लिखने की कोशिश की है वक़्त निकाल के ज़रूओर पढियेगा।

छोटे छोटे व्यापारियों का तय है बंटाधार
राज करेंगी एमेंसीज , रोयेगा दुकानदार।
हाट दुकान नहीं होगी, न दिखेंगे फिर बाज़ार
बड़े मॉलों से खरीददारी को होंगे हम लाचार ।
फिक्स दाम पे मोल तोल का नहीं कोई आसार
डेबिट कार्ड बिना तो भैया भूल ही जाओ उधार।

Sunday, July 18, 2010

दोहावली

आतंकी दिखलायेंगे तब तक अपना खेल
जब तक अच्छे से नहीं पड़ती नाक नकेल।

आतंकी हमले हुए अब गहरे नासूर
दवा वही जो जड़ से करे बिमारी दूर।

गिरगिट सहमा देख कर जरदारी के ढंग
पलक झपकते बदलते उससे जियादा रंग।

मीठी गोली दे हमें पहुँची पाकिस्तान
और भी मीठी हो गयी राईस की मुस्कान।

अपनी चोट तो चोट है, औरों की लगे खंरोच
खोटी हरदम ही रही अमरीका की सोच।

दोहावली

है अनंत संभावना मत डालो हथियार
सपना नए समाज का करना है साकार।

ना हो कोई वंचना, न्याय का होवे राज
संता आधारित बने, हिंसा रहित समाज।

न्याय पूर्ड वितरण बिना अमन रहेगा ख्वाब
देना तो हर हाल में होगा तुझे हिसाब ।

दोहावली

पर्यावरण बिगाड़कर बैठे विकसित देश
खुद कहना माने नहीं, हमको दें उपदेश।

ग्लोबल वार्मिंग पर बहुत मचता केवल शोर
करने की जब बात हो, सब बनते मुह्चोर।

कुदरत से हम कर रहे जाने क्यूँ खिलवाड़
थप्पड़ भी यह मारती, करती जितना लाड।

बेलगाम उपभोग और पर्यावरण बचाव
दोनों में से एक का करें हुज़ूर चुनाव।

कुछ मेरे दोहे

तुलसी दास जी के दोहे तो आपने बहुत पढ़े होंगे अब कुछ इस नाचीज़ के भी पढ़ लीजिये । आज की इस्थिती का जायजा लेते हुए मेरे दोहे -

सूखे के आसार हैं, आसमान है साफ़
बादल भी कह कर गए, अबकी कर दो माफ़।
( अब इस कदर जब ग्लोबल वार्मिंग होगी तो प्रकृती भी कब तक हमारा साथ देगी, उसको छेड़ोगे तो वो सजा तो देगी ही। )

जंगल कटते जा रहे, तेजी से चहु ओर
सऊखे का भी सुन रहे बार बार हम शोर ।

सूखे के संताप से मंत्री जी मायूस
जब जब सूखे है गला, तब तब पीवें जूस।

बाढ़ प्रकृति की दें है, कब इससे इनकार
पर बांधों ने और भी किया है बंटाधार।
(पंजाब और हरयान में अभी हाल ही में कितने लोगों की जान गयी, कितनो के घर बर्वाद हो गए सुना तो होगा ही और अगर वहाँ के हो आप तो भोगा भी होगा ना दोस्त।)



महंगाई पे कुछ दोहे सुनिए हुज़ूर

सब कुछ महंगा हो गया पर सस्ता इंसान
साडी लेने में गयी, कितनो की ही जान ।
(नेता लोग चुनाव के वक़्त जो साड़ियाँ बांटते हैं उसे लेने के लिए ही कितनी छीना छपती मचती है की लोगों की मौत तक हो जाती है। अब अंदाजा लगा लीजिये की आज भी गाँव में कितना अभाव और गरीबी है और एक हम है की ब्रांडेड कपडे से नीचे की बात ही नहीं करते )

वेतन का है एक दिन, खर्च का पूरा मास
महंगाई ज्यों ज्यों बढे, बिगड़े होश हवाश ।

मत खुश हो मन देखके, यह सेंसेक्स उछाल
मरते हैं इस देश के, भूख से अब भी लाल।

महंगाई के बाद अब है मंदी का दौर
लोगों से है छिनती उनके मुह का कौर ।

वे कहते धीरज धरो, करो न चीख पुकार
कमर दोहरी हो गयी जब पड़ी महंगाई की मार।

महंगाई त्यों त्यों बढे , ज्यों ज्यों करें इलाज
डॉक्टर ऐसे मिले सखी, बने न एको काज।






अब कहाँ मिल पाता है दादी नानी का साथ

भास्कर के एडिटोरिअल पेज पे हर रोज़ छोटी सी बात आती है जिसे मैं ज़रूर पढ़ती हूँ उसमें ही पढ़ा था कि हम इस सभ्यता और संस्कारों कि बड़ी दुहाई देते रहते है कि हमारे यहाँ बुजुर्गों का बड़ा सम्मान किया जाता है, बड़ा आदर सत्कार देते हैं हम उनको पर एक सर्वे के हिसाब से बड़े बुजुर्गों का सम्मान करने में चालीस देशों के उस सर्वे के हिसाब से हम आखिरी पायदान पे खड़े हैं उनका सम्मान करने के नाम पे। अब ये सर्वे कितना सही है और कितना गलत ये तो मै नहीं जानती पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि अगर आज भी पहले के जैसा ही हम अपने दादी दादा, नानी नाना या जो कोई भी उम्र दराज़ हो उसकी कद्र करते तो शायद उनको ओल्ड एज होम में जाने कि ज़रुरत नहीं पड़ती। वो अपना बुढापा वहाँ काटने के बजाये अपने नाती पोतों के साथ हंसी ख़ुशी बाकी की ज़िन्दगी बिता देते , उनको किस्से कहानियां सुनाते हुए। इसी पर कुछ लिखने कि एक छोटी सी कोशिश की है मैंने उम्मीद है आप लोगों को पसंद आएगी -

अब भला बच्चों को कहाँ मिल पाता है दादी नानी का साथ

खुद किस्सा बन गई , उनके किस्से कहानियों की सौगात

मम्मी डैडी प्यार से कभी कुछ नहीं सिखाते

डांट डपट और मार पीट बस हमें डराते

दादू के संग गाँव में मेला घूमने जाते

नानू घोडा बनते उनपे हम चढ़ जाते

जब भी मम्मी मारती दादी हमें बचाती

नानी से तो मम्मी उल्टा ही डांट खाती

हमें दादी दादू के आती है बहुत याद

रोते हैं नानू नानी जब करते हैं हमसे बात

भावना की

"दिल की कलम से "

दर्द सा दिल में होता है

कोई छूट जाए, कोई रूठ जाए तो
दर्द सा दिल में होता है
भरी महफ़िल में रुसवाई हो तो
दर्द सा दिल में होता है
खाब की किरिचों पे चलना पड़े तो
दर्द सा दिल में होता है
भाई ही भाई से दगा करे तो
दर्द सा दिल में होता है
पर दर्द के ज़हर को जो पी जाए
यारों वो ही तो "शिव" होता है
भावना के
"दिल की कलम से "

Friday, July 9, 2010

ये बूँदें मुझे बच्चा बनाती हैं

ये बूंदें मुझे बच्चा बनाती हैं
ना जाने कितने यादें ताज़ा कर जाती हैं
वो कागज़ की नाव पानी में तैराना
उसके डूब जाने पे जोर जोर चिल्लाना
कॉपी के पन्नो से फिर से नाव बनाना
वो नन्हे नन्हे पैरों से पानी की गहराई नापना
ऐसा करते देख किसी बड़े का चिल्लाना
पानी गहरा है बेटा आगे ना जाना

ज़रा सी सर्दी ज़ुकाम पे माँ का रात रात भर जागना
वो माँ की डांट खाना मगर फिर भी न मानना
माँ की मार, दादी का दुलार, वो माँ से उनका कहना
"खेले देओ बहु, मारा न करो अच्छा"
दादी की शह पाके फिर से धमाचौकड़ी मचाना
क्लास बंक करके बारिश में नहाना
माँ से बहाने बनाना
बस छूट गयी थी माँ
ये बूंदें-
बचपन, स्कूल, दोस्त सबकी पिक्चर खीच जाती हैं
ये खुद तो नहीं बदलीं
मगर ज़िन्दगी में कितना कुछ बदल जाती हैं
ये बूंदें मुझे बच्चा बनाती हैं
ना जाने कितनी यादें ताज़ा कर जाती हैं

भावना के
" दिल की कलम से "

हमारे लिए काफी था उनका एक ही इशारा

वो बोलते न थे जियादा
हम भी डरते थे उनसे
हमारे लिए काफी था उनका एक ही इशारा

कहीं जाना हो, कुछ करना हो
नहीं कह पाते थे खुद से
ऐसे में माँ ही
होती थी एक सहारा
हमारे लिए काफी था उनका एक ही इशारा

उनकी एक ही आवाज़ में उठ जाते थे हम
उनके डांटने से पहले ही आँखें हो जाती थी नम
ठोंक ठोंक कुम्हार सा
उन्होंने हमें है सवारा
हमारे लिए काफी था उनका एक ही इशारा

नासमझी में उनको पत्थर दिल समझते थे
ये न करो, वो न करो , हिटलर हम कहते थे
बड़े होके जाना
सोचना गलत था हमारा
हमारे लिए काफी था उनका एक ही इशारा

भावना के
" दिल की कलम से "
पिता के नाम पाती

Sunday, July 4, 2010

लोन मेला

विनय- " माया फटाफट नाश्ता लगा दो सोच रहा हूँ आज कार मेला देख ही आऊं। अपनी वैगनार भी तो खटारा हो गयी है बेचारी, अब तो इसे ड्राईव करने में भी इमबैरेस फील होता है। इट्स अ हियूज कार मेला। लेटेस्ट से लेटेस्ट कार मॉडल डिस्प्ले पर है।
माया- " ठीक है तुम तैयार हो जाओ मै नाश्ता लगाती हूँ। "
उधर पंचू विनय और माया की बातें सुन रहा था। जीजा अंगरेजी में गिटर पिटर कर रहे थे इसलिए उसको कुछ और समझ में तो नहीं आया पर पर अपने मतलब की बात भांप ली उसने की वो किसी मेले में जाने की बात कर रहे थे। वो माया के पास किचन में पहुचता है और बोलता है -ऐ दिदिया जीजा मेला देखे जात हैं का, हमहूँ चले जाई का उनके साथ? हियाँ घर माँ पड़े पड़े उक्तायित (बोर होना) थी। जब से हियाँ आये हन तब से एकौ मेला नहीं देखा। अपने गाँव माँ केत्ता मेला लागत है- सेमरा बाबा का मेला, बाले सहीद का मेला, गाजी मियाँ मेला, काली माई का मेला। हियाँ ससुर एकौ मेला नहीं देखान। नहीं तो टीकू लाला का लेके जाईत और घुमाय लेआयित। बड़े दिना बाद तो मेला का नाम सुनाई पड़ा है। हमार बड़ा मन है मेला घुमे का दिदिया। "
माया- (मन ही मन अपने भाई के भोलेपन पे मुस्कुराती है और मेला जाने के लिए हरी झंडी दिखाती है)।
पंचू ख़ुशी ख़ुशी जीजा के साथ मेला देखने पहुचता है।
विनय- " हाँ जी साले साहब ये रहा मेला। आप घुमो मैं ज़रा इसकी कवरेज करके आता हूँ।

पंचू को जीजा की बात पूरी तरह से समझ में तो नहीं आई पर उसने अंदाजा लगा लिया की जीजा किसी काम से गए हैं। पंचू जिधर भी नज़र दौडाता है उसको कार ही कार नज़र आती है। वो मन में सोचता है - " ससुर सहरान मा तो बस कारे कार देखाई देती हैं। ई कैसा मेला आये न एकौ झूला दिखाई दे, न बच्चन की भीड़, न खाए पिए के कौनो ठेला और न आसपास कौनो मंदिर। होई सकत है कहूँ आगे मेला लाग होए। पंचू बाउंडरी वाल के पीछे तक झाँक झाँक के देख आता है पर दूर दूर तक मेले का कहीं कोई नाम-ओ-निशाँ तक नहीं दिखाई देता। अगर कुछ नज़र आता है तो सिर्फ कारें, तरह तरह की। इतने में एक कार सेल्स एक्साकुतिव पंचू के पास आता है और अपनी कंपनी के लतेस्ट मॉडल की कारों के बारे में पंचू को बताने लगता है। सर इसमें पावर ब्रेक है और यह माईलेज भी जियादा देती है, इन्सुरेंस भी फ्री ऑफ़ कास्ट है सर साथ ही ट्वेंटी थौसेंट की एसेसरीज भी फ्री है।
पंचू - पर भैया हमको ई नहीं लेना है, हम तो यहाँ मेला घुमने आये थे बस।
एक्सेकुतिव - सर अच्छा एक बार आप टेस्ट ड्राइव तो करके देखिये आपको मूड चेंज हो जाएगा यह मेरा दावा है। इतनी स्मूथ और फास्ट ड्राइव कार विद लोट ऑफ़ स्पेस आपने आप को कहीं नहीं मिलेगी ऊपर से मेंटनेंस भी कम मांगती है सर। इससे पहले की पंचू कुछ कह पाता उसने कार की चाभी पंचू के हाथ में थमा दी और कहा आप खुद ड्राइव करके देखिये सर। पंचू ने धीरे से चाबी उसको पकडाते हुए कहा आप ही चलाओ भैया। वो आदमी पूरे रास्ते नॉन स्टॉप कैसेट की तरह पंचू को कार की ना जाने क्या क्या खूबियाँ गिनाता रहा और पंचू बेचारा संकोच में हां में सर भर हिलाता रहा। मन ही मन सोचता - ई कौन आफत गले पड़ गए हमरे। ई आदमी अपने आगे कुछ सुनते नहीं आये? और लागात है ससुर ई रस्त्वव और लंबा होइगा लगत है। "
खैर जब वो टेस्ट ड्राइव से लौट कर आते हैं तो पंचू के बार धीएरे से उससे फिर अपनी जान छुडाने के असफल कोशिश करता है और कहता है ई सब तो ठीक आये भैया पर ई महंग बहुत है। इत्ता पैसा कहाँ पऊब।
सेल्स एक्सेक्युतिव कहता है कैसी बातें करते हैं सर आप भी आप तो बस हाँ कहिये कार आपके पास होगी जीरो परसेंट डाऊन पमेंट पर कार लोन दिलाता हूँ आपको चलिए मेरे साथ।
इतने में पंचू के जीजा जी पंचू को धुन्ध्ते हुए वहाँ पहुच जाते हैं और कहते हैं - क्या सेल साहब कहाँ गायब हो जाते हैं आप कितनी देर से ढूंढ रहे हैं हम आपको। जीजा को देखके पंचू के जान में जान आती है और वो छोटे बच्चे की तरह उनके पीछे छिप जाता है। जीजा- क्या कर रहे हैं आप क्या हुआ।
पंचू - ऐ जीजा ई आदमी कब से भूओत की तरह हमरे पीछे लाग है। ऐसे बचाए लो हमका।
पंचू के जीजा को समझते देर न लगी की यह एक्सेक्युतिव पंचू के पीछे पड़ गया होगा कार लेने के लिए। जीजा जी ने उससे कहा की अभी हम सिर्फ देखने आये थे अच्छा ऑटो एक्सपो लगा रखा है आप लोगों ने. अभी हमारे पास वक़्त नहीं है हम फिर इत्मीनान से आते हैं। एक्सक्यूज अस प्लीज़।
गाडी में बैठते ही पंचू ने राहत की सांस ली और जीएजा से बोले ई कहाँ फसाए दिए रहेओ हमका और हमका तो कहूँ कौनो मेला नहीं देखाई पड़ा सग्लों ढूंढें तबहूँ।
जीजा- यह मेला ही तो था, कार मेला। यही देखने तो आये थे हम।
पंचू- कारौ के मेला लागत है का। हम का जानी हम तो सोचा होई अपने गाँव हसके के बढ़िया मेला एही से तो हम तुम्हरे साथे आवा रहा।
जीजा पंचू के भोलेपन पे मंद मंद मुस्कुरा रहे थे।
(घर पहुचते ही माया पंचू से)- क्यूँ भैया कैसा लगा मेला?
पंचू भी भांप गया था की दीदी और जीजा उसके मज़े ले रहे हैं। वो बोला- मेला रहा की झमेला।( और सब हसने लगते हैं...........................)
भावना के
" दिल की कलम से "

Saturday, July 3, 2010

पंचू और दिल्ली की होली

होली में गिन के पांच दिन बाकी रह गए हैं और इस त्यौहार के कारन ट्रेनों में इतनी भीड़ है की पंचू को इलाहाबाद का रेजर्वेसन ही नहीं मिलता. वो बड़ा दुखी होता है और बहन से कहता है- " ए दिदिया कौनो ट्रेन मा जगह नहीं आये? अरे हम ठाड़ होइके चले जाब(जाऊंगा), लटक के चले जाब, हमरे साथ कौनो जनाना (महिला ) तो आये नहीं. सुक्खू काका, गप्पी मओसिया सब निहारे (इंतज़ार कर रहे होंगे) होइन्हें हमका. बहुत पेट बरत है हमार ( बहुत याद आ रही है). कल जीजा के साथ खेलगांव जमुनाविहार तरफ से आवत रहा तो ढोलक ओलक बाजत रही, फाग जमा रहा. हम जीजा से कहा तनी रुक जाओ, सुन लीं जाए एक दुई फाग तो जीजा हुडुक (फटकार देना) दिहिन हमका. कहीं बिहारी लेबर हैं उनके बीच बैठोगे. सब दारू पिए होंगे. अपना नहीं तो कम से कम हमारे स्टेटस का तो ध्यान रखो."
पंचू- "ए दिदिया हमार मन हियाँ नहीं लागत आये. जीजा से कहो हमका कौनो तरह ट्रेन मा बैठाए भर दें हम पहुँच जाउब.
माया - " भैया इस बार शहर की होली भी तो मना के देखो. तुम रहते हो तो टीकू का भी मन लगा रहता है. "
पंचू- "अच्छा अब इत्ता कहती हौ तो रुक जाइत (जाता हूँ) ही. देख लीई कसत(कैसी ) होत ही दिल्ली की होली."
माया- " भैया बाजार से खोवा (मावा ) ले आओ तो कुछ गुझिया बना दें. "
पंचू- " और पापड़? आलू का पापड़, चालवल की कचहरी, चिप्स ई न बनहियो का? (ये नहीं बनोगी क्या)
माया- " पापड़ हम बना तो दें सुखायेंगे कहाँ? अपने गाँव के घर जैसे खुली छत कहाँ है यहाँ? "
पंचू- " दिदिया तुम कहाँ हियां एक दरबा मा आये के बसी हौ. न धुप मिले, न रौशनी. दिनौ मा अंधियार रहत है. "
माया- " अच्छा अब छोडो भी. तुम भी एक बार बातें शुरू करते हो तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लेते हो. जाओ जल्दी से बाजार से सामान ले आओ, नहीं तो टीकू आ जाएगा स्कूल से तो फिर कुछ नहीं करने देगा वो. "
पंचू- " ( लिए झोला अपनी मस्ती में चला जा रहा है) ताभ्ही अचानक से कहीं से पानी से भरा एक गुब्बारा उसके चश्मे पर पड़ता है- "फचाक" . ए को आये( कौन है) . का भैया ई होली की रिहार्सर ( प्रैक्टिस ) होत ही का.अरे अबहीं तो दुई रोज बाकी है होली मा तनी गम खाओ( रुक जाओ). सड़क तो पार कर ले देओ. एक तो वैसेन दिल्ली की सड़क पार करब मुस्किल आये. हियाँ आदमी कम गाडी जिआदा देखाती हैं. तभी अचानक से पानी से भरा एक गुब्बारा एक बाईक सवार के चेहरे पे पड़ता है और उसका बैलेंस बिगड़ जाता है और वो गिर पड़ता है. कुछ लोग दौड़ते हुए आते हैं और उसे घेर लेते हैं. सड़क पे ट्रैफिक जाम. अपनी गाड़ियों से कोई नहीं उतरता सब सिर्फ कान फोडू होर्न बजाते हैं. पंचू को गुस्सा आता है पहले तो वह होर्न बजाने वालों पे चिल्लाता है -" देखाई नहीं देत एक आदमी गिर गा और तुम पाचन का आपण लाग ही( और तुम लोगों को अपनी पड़ी है)" और फिर गुस्से में उस घर की तरफ जाता है जिधर से वो गुब्बारा आया था. वहाँ पहुँच के - " ई कसत के होली आये हो(ये कैसी होली है) कौनो केर जीव लेई हौ का ( किसी की जान लोगे क्या). हाथ टूट गा ओकर. तुम्हार ई मजा मजा मा ओकर तो सजा होइगा न?' उस घर के लोग शर्मिन्दा होते हैं और पंचू से वडा करते हैं की वो आगे से ऐसी गलती नहीं करेंगे. नीचे आते ही वो लोगों से बाईक चालक के बारे में पूछता है और पता पड़ने पे की उसको अस्पताल पहुचा दिया गया है भगवान् का नाम लेके आगे बढ़ता है.
पंचू मिठाई की दुकान पर पहुच कर - " भैया एक किलो खोवा दई देओ. जब दुकानदार खोवा तौल रहा होता है वो खोवे को हाथ लगा कर देखता है और सूंघता है फटाक से बोलता है - ई तो नकली खोवा आये. एमा तुम शकरकंदी और आलू मिलाये हो न? " पंचू की बात सुनकर दुकानदार पहले तो थोडा सकपकाता है और फिर- क्या बकवास कर रहे हो पता नहीं कहाँ कहाँ से देहाती चले आते हैं नहीं लेना तो जाओ यहाँ से. पर पंचू अपनी बात पे अड़ा रहता है और उससे बहस करने लगता है. अब तो वहाँ खड़े लोगों को भी पंचू की बात पे यकीन होने लगता है. इत्तेफाक से उनमें से एक ग्राहक पत्रकार होता है वो फ़ौरन अपने चैनल वालों को खबर करता है और थोड़ी ही देर में वहाँ टीवी चैनल वालों की ओबी वैन आ जाती है और एक पत्रकार जोर जोर से उस दुकान की तरफ इशारा करता हुआ कहता है- ये दिल्ली की सबसे पुरानी मिठाई की दुकान है सोचिये जब यहाँ नकली खोवा मिल सकता है तो फिर और किस दुकानदार पे आप भरोसा करेंगे. कल कानपुर में भी एक क्विंटल नकली मावा बरामद हुआ है. टीवी चैनल के दबाव के चलते उस दुकान के मावे का सैम्पल चेक होता है और वो खोवा वाकई नकली होता है. अब तो हर चैनल पे पंचोऊ छा जाता है हर कोई उससे यही सवाल करता है की उसने नकली खोवे का पता लगाया कैसे.? वो बड़े अभिमान से कहता है हम गाँव के आदमी हैं भैया असली नकली का फरक हमें ख़ूब पता है.
पंचू के जीजा जी जब पंचू को टीवी पे देखते हैं तो पत्नी से पूछते हैं- साले साहब कहाँ हैं माया? माया- भैया खोवा लेने गए हैं क्यूँ कोई काम है क्या? विनय- " माया जल्दी आओ देखो साले साहब तो टीवी पे छाए हुए हैं. विनय मन ही मन सोचता है- " दिल्ली का हीरो तो अपना साला ही है. पंचू का एक्सक्लूसिव इन्तार्विव तो अब हम लेंगे अपने चैनल के लिए फिर देखना टी आर पी कैसे ऊपर जाती है अपने चैनल की आज. "
पंचू के घर आते ही विनय कहता है- " क्या साले साहब आप तो छ गए पूरी दिल्ली में.
पंचू- " जीजा वो दुकानदार नकली खोवा बचत रहा तो पकडाए दिया सरऊ का "
विनय- " बहुत बढ़िया किया आपने. अब जियादा वक़्त मत बर्वाद करो जल्दी से अपनी सबसे पुरानी धोती और थोड़ी फटी पुरानी बनियान पहन लो आपको मेरे साथ इन्तार्विव के लिए मेरे स्टूडियो चलना है पूरा देश आपको देखेगा.
पंचू- " ए जीजा सब देखियेहें हमका तो नायका वाला कपडा पहिने देओ नहीं तो मनग्रहोनी मा सब कईहें की देखो कैसे बनके टीवी मा आयित थी हम."
विनय- " अरे साले साहब आपकी किसी की बरात में थोड़े ही जा रहे हो इस सिचुएसन के लिए आपको वसे ही तैयार होना है जैसे मैंने कहा आपको. तुमको गाँव का हीरो हीरा लाल दिखाना है मुझे समझे.
पंचू- " अब तुम कहत हौ तो ठीक है होई, इत्ते बड़े पत्रकार हौ गलत थोड़े बोलिहौ?"
विनय बड़ी शान से पंचू को लेके अपने चैनल के स्टूडियो पहुचता है. पंचू के चेहरे से लगभग सभी लोग वाकिफ हो गए थे अब तक पर एक्सक्लूसिव इन्तार्विव अब तक किसी ने नहीं चलाया था क्यूँ की पंचू कैमरा देख के घबरा गया इसलिए जल्दी ही भाग आया था अपने घर.
एक पत्रकार ने विनय से पुछ्हा सर कहाँ से ले आये आप इन्हें और अभी तो ये कितने खुश हैं दुसरे चैनल पे तो ये बड़े घबराए हुए दिख रहे थे. हर चैनल वालों को इनकी ही तलाश है. आपको ये कहाँ मिल गए.
पंचू- " (बड़े गर्व से छाती चौड़ी करके बोलने ही वाला होता है ) ई हमार जी ....................
उतने में खटाक से विनय बोलता है -ये ये हमारे गाँव के ही रहने वाले हैं किसी काम से दिल्ली आये थे. घर पे कोई नौकर था नहीं उस वक़्त तो माया ने इन्हें बाजार खोवा लाने भेजा था और बाकि का किस्सा तो आप जानते ही हैं...............
पंचू ने आश्चर्य से विनय को देखा और फिर उसके चेहरे पे एक व्यंगात्मक मुस्कराहट आ गयी....................................

भावना के
"दिल की कलम से "

पंचू का घोड़ा

पंचू अखबार में लीन था की तभी भांजे टीकू के रोने की आवाज़ आती है - "मिम्मी मैं स्तूल नहीं दाउन्दा नीनू आ लही है"। पंचू के बहन माया गुस्सा करते हुए-नहीं बेटा स्कूल मिस करने वाले बच्चे गंदे होते हैं। आज आपको गीता मैम नयी पोयम सिखाएंगी न और नया वर्ड भी तो सीखना है ना सी फॉर "कैट" मियाऊँ" और अगर आप स्कूल नहीं जाओगे तो कैट आपका सारा दूधू पी जाएगी फिर टीकू बाबा स्ट्रोंग कैसे बनेगा सुपरमैन की तरह? सूपरमैन का नाम सुनते ही टीकू आँखों में नींद भरे उठता है। माया उसे जल्दी से ब्रश कराते ही स्कूल ड्रेस पहनाती है की तभी स्कूल का ऑटो आ जाता है, ड्राईवर लगातार होर्न बजाता है। टीकू दूध नहीं पीता, माया उसके पीछे पीछे दौड़ती है -टीकू जल्दी से दूधू पियो , ऑटो वाले अंकल आ गए हैं बेटा. टीकू - दूधू गन्दा है, मनु भी नहीं पीता. उसकी मिम्मी चौकलेट देती है मै भी चौकलेट खाउन्दा, मै स्कूल नहीं जाउन्दा, वो जोर जोर से रोने लगता है. पंचू से उस ढाई साल के नन्हे से बच्चे का रोना नहीं देखा जाता और वो अपनी बहन से बोलता है - ''ए दिदिया लाला का मन नहीं आये स्कूल जाए का रहे देओ, कहे रोआये पड़ी हौ? एक दिन स्कूल ना जाई तो कवन आसमान फाट पड़ी. या कवन पढाई आये की कसाई हस (की तरह) लाला के पीछे पड़ी हौ. हमार लाला बहुत समझदार हैं, आखिर लाला पूरे दिन खेल खेल मा घरौ मा तो पढते रहत हैं. इत्ते छोट हैं और इत्ता जानत हैं की हमहूँ नहीं जनतें . चिड़िया, कऊआ, मुर्गी सब चीन्हत (पहचानता है) हैं. केत्ता तो गाना सुनावत हैं. तनी(थोडा) और बड़े होए देओ तब बस्ता(बैग) पकडाओ. स्कूल नहीं अच्छा लागत उनका. कल बतावत रहे की कौनो फ़रीन मैडम हैं कल लाला से कुछ बिगड़ गा रहा तो बहुत डाटें लाला का. हमार मानो तो दुई तीन साल अबै तुम इनका घर मा पढाओ और खेले कूड़े देओ. आओ लाला हिया आओ, चलो चली खेले. हम बन जाई घोडा तुम हमरे ऊपर करो सवारी. उधर माया के हसबैंड की आवाज़ आती है- क्या कर रही हो, कितनी देर से ड्राईवर होर्न बजा रहा है, सुनाई नहीं देता? कहाँ है टीकू? माया - वो ना तो दूध पी रहा है और न स्कूल जाने को तैयार है, कहता है मामा के साथ घोडा घोडा खेलूंगा, मै क्या करून? " हसबैंड वो तो बच्चा है तुम तो बच्ची नहीं हो न ? रिपोर्ट कार्ड नहीं देखा पड़ोस के मनु से कितना पिछड़ गया है इस बार?"
पंचू - " अरे जीजा ई नन्ही सी जान और इत्ता बोझ. अरे ई खेले खाए की उमिर (उम्र) आये,अबे आणखी मा नींद भरी है. भाई हमसे ई अतियाचार नहीं देखा देख जात. जब देखो तब लड़का के पीछे डंडा लईके ठाड़ (खड़े) रहत हौ. ना खेले पावे, न सोवे पावे, ना खाए पावे. ई पढाई आये की सजा? "
जीजा- "पंचू बाबू ये दिल्ली है दिल्ली. तुम्हारा गाँव मनग्रहोनी नहीं है की हुआ सवेरा और गुल्ली डंडा लेके निकल गए खेलने. यहाँ कितना खर्च करना पड़ता है पढाई में कुछ पता है आपको? स्कूल फीस, एक्टिविटी फीस, टूर ट्रिप फीस, टियुशन फीस कचुम्बर निकल जाता है अच्छे अच्छों का . आपके यहाँ क्या बस सरकारी स्कूल में हांक दिया और छुट्टी और सरकारी स्कूलों में भी कोई पढाई होती है क्या? अगर आप भी अंग्रेजी मीडियम में पढ़े होते तो आज मनग्रहोनी में हल नहीं जोत रहे होते बल्कि दिल्ली या बम्बई जैसे शहर में मेरी तरह नौकरी करते होते. ज़रा बताईये तो आपके गाँव के कितने लड़के डॉक्टर या इंजीनिअर हैं? "
पंचू- " जीजा गोस्सात ( गुस्सा क्यूँ करते हो) कहे हौ हमसे लाला का रोब (रोना ) नहीं देखगा तो हम कही दिया."
माया- " अरे आप जीजा साले क्यूँ लड़ रहे हो, चलो चलके टीवी देखो. अब सरकार ने भी चार साल से कम उम्र के बच्चों को स्कूल भेजने पे रोक लगा दी है. अब हमारा टीकू की डेढ़ साल तक खेलने कूदने की छुट्टी. माया (हँसते और पति की चुटकी लेते हुए) देखा जीत हमारे भैया की ही हुयी."
पंचू- एक बार अपनी दीदी और जीजा की तरफ देख के मुस्कुराता है और फिर भांजे को बुलाते हुए कहता है-" आओ आओ लाला आओ चलो घोडा घोडा खेली.......लकड़ी की काठी, काठी का घोडा ...................
भावना के
"दिल की कलम से"

जहां मुस्कुराता है बचपन दादी माँ के साथ

"मैं बला होते दागतर बनूँगा और गलीब लोदों की मदद तरुन्दा उनको दवाई दून्दा और उनको ठीक तर दून्दा" यह चाहत है कक्षा एक में पढने वाले विशाल की जिसकी परवरिश "मानव सेवा ट्रस्ट" इंदौर में हो रही है। विशाल को यहाँ आये तीन बरस हो गए हैं। माँ जब से छोड़ के गयी तब से एक बार भी देखने नहीं आई। विशाल के पिता की मौत इलाज के अभाव में हुयी थी यह बात ट्रस्ट वालों ने ही उसे बतायी थी तभी से वो डॉक्टर बनना चाहता है ताकि उसके पिता की तरह किसी और के पिता का साया उसके सर से ना उठे। विशाल की माँ ने दूसरी शादी कर ली इसलिए अब वो चाह कर भी विशाल से मिलने नहीं आ सकती डरती है की कहीं दुसरे पति को पता चला और उसने उसे छोड़ दिया तो क्या होगा? विशाल की परवरिश तो ट्रस्ट में अच्छी खासी हो ही रही है शायद इतने अच्छे से तो उसका पालन पोषण वो भी न कर पाती पर ट्रस्ट में उसके लिए तो जगह भी नहीं क्यूंकि वहाँ या तो अनाथ और गरीब बच्चे रहते हैं या फिर बुज़ुर्ग महिलाएं और वो अभी बुज़ुर्ग महिलाओं की श्रेणी में नहीं आती इसलिए शायद उसे अपनी ज़िन्दगी में इतना कड़ा फैसला लेना पड़ा होगा वरना कौन माँ ख़ुशी से अपने बच्चे को खुद से जुदा करना चाहेगी ? सबके माँ बाप घर परिवार में से कोई न कोई बच्चों से मिलने ज़रूर आता है पर विशाल का तो माँ के सिवा कोई और था ही नहीं। जब दुसरे लोगों और बच्चों से मिलने आते हैं और उसे मिलने कोई नहीं आता तो वह बड़ा उदास हो जाता है किसी से कहता तो कुछ नहीं लेकिन चुप सा हो जाता है। मानव सेवा ट्रस्ट में विशाल जैसे पचीस बच्चे और हैं जिनकी अलग अलग कहानी है। चार साल से सात साल तक के बच्चों को इस ट्रस्ट में लिया जाता है और वो जब तक पढना चाहें उनके पढाई का पूरा खर्च ट्रस्ट उठाता है। ८६ साल की रुकमा अम्मा इस ट्रस्ट के सब बच्चों की जान है जो यहाँ तेरह साल से हैं। किसी भी बच्चे की पैंट शर्ट फट गयी हो बटन टूट गयी हो, वो बीमार हो गया हो रुकमा अम्मा सब ठीक कर देती है और हमेशा मुस्कुराती रहती है। इस ट्रस्ट में रुकमा अम्मा की तरह ८-१० बुज़ुर्ग महिलायें है जिनका वक़्त इन बच्चों के साथ हँसते मुस्कुराते उनको कहानिया सुनाते कैसे कट जाता है पता ही नहीं चलता।