Saturday, March 21, 2015

हास्यव्यंग-----
टीवी पे ब्रेकिंग.....हाय रे मेरा झाड़ू
साहब, सुनता तो आ रहा हूं तब से जब मुझे अपने कच्छे का नाड़ा बांधना भी नहीं आता था कि कभी न कभी घूरे के दिन भी बहुरते हैं यानी कि घूरे के भी अच्छे दिन आते हैं। लेकिन इसका सटीक उदाहरण तो अब सन् 2015 में देखने को मिला जब उम्र का साठवां शुरू हो गया। खैर देर आयद दुरूस्त आयद आखिरकार झाड़ू को उसका उचित सम्मान मिल ही गया वरना मैने हमेशा से इसे घर के किसी उपेक्षित कोने में ही पड़ा पाया है। हालांकि घर को स्वच्छ रखने में प्रतिदिन काम आने वाला यह उपकरण उपयोगिता की दृष्टि से अव्वल है। ठीक उसी तरह जैसे गली मुहल्ले को साफ-सुथरा रखने में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले सफाई कर्मियों का स्थान समाज में सबसे निचले पायदान पर होता है। पर वाह रे झाड़ू की किस्मत, राजनीति का स्पर्श पाकर कहां से कहां जा पहुंची। हो भी क्यों न जब राजनीति के पवित्र जल में डुबकी लगा विधायक, सांसद, बनकर एक से बढ़कर एक अपराधी,लुच्चे,लफंगे माननीय बन जाते हैं।
जी करता है अब से बच्चों को यही आशिर्वाद दिया करूं कि तुम सब झाड़ू की तरह तरक्की करो ,देश दुनिया में छा जाओ।यूं तो झाड़ू को सन् 2013 में ही शोहरत मिल गई थी जब कांग्रेस का हाथ मरोड़ कर उसे कुर्सी से उतार दिया और बाद मे उसी हाथ के सहयोग से कुर्सी पर काबिज भी हो गई। समाचार पत्र, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों हर जगह झाड़ू का बोलबाला देखकर ही तो प्रधानमंत्री मोदी ने झाड़ू को अपने हाथ में लिया और नारा दिया स्वच्छ भारत का।अब भारत कितना स्वच्छ हो पाता है इस नारे से यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा लेकिन सन् 2015 के दिल्ली विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ साथ भाजपा पर भी झाड़ू फिर गई। अब तो झाड़ू की बल्ले बल्ले थी। यहां तक की शपथ ग्रहण समारोह में कोई कोई समर्थक तो अनते गले में झाड़ू की माला पहन कर नाचे थे पग घुंघरू बांध मीरा नाची की तर्ज पर। अब झाड़ू ता इससे ज्यादा भला और क्या सम्मान हो सकता था।
      पर झाड़ू तो झाड़ू ही है अपने धुन की पक्की, सिर्फ सफाई करना जानती है वह, चुप बैठना नहीं।उसने शुरू कर दिया अपना काम। जीत के जश्न को अभी महीने भर भी नहीं बीते थे कि आम आदमी पार्टी के नेताओं में आपस में ही झाड़ू चलने लगी। योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण जैसे वरिष्ठ नेताओं को झाड़-बुहार कर पीएसी से बाहर कर दिया गया। जिस तरह से एक के बाद एक खुलासे हो रहे थे लग रहा था आप कार्यकर्ताओं के सारे किये कराये पर ही न कहीं झाड़ू फिर जाय। शुक्र है कि आप कार्यकर्ताओं का आक्रोश देख नेताओं को सदबुद्धि आई और अब सुलह सफाई की बातें की जा रही है। लेकिन अभी आल इज वेल भी नहीं कहा जा सकता।
  यह तो अब सारी दुनिया मानने लगी है कि झटपट नकल करने और मौके का फायदा उठाने में हम हिंदुस्तानियों का कोई सानी नहीं है। बालीवुड की फिल्मों ने इस क्षेत्र में बहुत नाम कमाया है। हो सकता है कि झाड़ू पर ताबड़तोड़ कुछ सस्पेंस थ्रिलर,रोमैंटिक या कमेडी फिल्में आ जायें। ऐसे में विज्ञापन वाले भला कब पीछे रहेगें, बहुत संभव है जल्द ही आपको कार,बाइक,बंदूक या फिर तमाम घरेलू उत्पादों तक का प्रचार सुंदर माडल एक हाथ में कलात्मक ढंग से झाड़ू लेकर करती मिलें। चौंकियेगा मत अगर किसी हाई फाई रेस्टोरेंट में आपको झाड़ू की शेप में कोई नई डिश सर्व की जाये। जी हां जरा दिमाग पर जोर डालिये और याद करिये कि खाड़ी युद्ध के दौरान सद्दाम हुसैन की स्कड मिसाइलें बहुत फेमस हुईं तो कई रेस्टोरेंट में उसी शेप की डिश ग्राहकों को पेश की जिन्हें बहुत पसंद भी किया गया। अब सफलता को दुनिया सलाम करती है तो माएं क्यों पीछे रहेंगी, इम्तहान अच्छा जाये इसके लिए बच्चे को जाते समय थोड़ा सा दही चिनी जरूर खिलाती हैं अब अगर इसके साथ साथ ही वे उसके पाकेट में छोटा सा जेबी झाड़ू भी रख दें तो क्या आश्चर्य। कहते हैं जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि,तब तो फिर साहब पूरी संभावना है कि झाड़ू चालीसा, झाड़ू पच्चीसी जैसी रचनायें साहित्य के प्रतिष्ठित पुरस्कारों का दरवाजा खटखटाने के लिये जन्म ले लें क्योंकी कहा ही गया है समय होत बलवान।
           --- अजय

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Friday, March 20, 2015

सामयिक दोहे----
सर्वोच्च न्यायालय के जाट आरक्षण पर दिये गये फैसले से एक बार फिर आरक्षण का मुद्दा गरमाया है।इसी संदर्भ में चंद दोहे पेश हैं

आरक्षण टानिक पियें अब बलशाली लोग
सता रहे कमजोर को दुनिया भर के रोग

पिछड़ों की हो गई है राजनीति की भैंस
वोट की लाठी से हुए वे सब जब से लैस

ताकत से मनवा रहे आरक्षण की मांग
जिसको देखो  दे रहा  आरक्षण की बांग

आरक्षण उनके लिए जो निर्बल कमजोर
ताकतवर करने लगे उनसे ज्यादा शोर

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Wednesday, March 18, 2015

बतकही-----
आप की जीत के मायने----5
देखा जाय तो आम आदमी पार्टी अभी शंकर जी की बारात ज्यादा है पार्टी कम।एकदम अलग अलग विचारधारा के लोग इसमें शामिल हैं।एक तरफ दक्षिणपंथी रूझान वाले कुमार विश्वास हैं तो दूसरी तरफ डा. लोहिया को मानने वाले समाजवादी विचारधारा के योगेन्द्र यादव, अरविंद केजरीवाल वामपंथी रुझान वाले माने जाते हैं।जिस प्रकार शुरूआत के दिनों में कांग्रस पार्टी में भी विभिन्न विचारधारा वाले लोग शामिल थे लेकिन सभी का मकसद एक था भारत की आजादी उसी प्रकार अलग विचारधारा के बावजूद अन्ना आन्दोलन में शामिल युवा, बाद में आम आदमी पार्टी बनानेवाले आन्दोलनकारी नई तरह की,स्वच्छ,पारदर्शी राजनीति के मकसद से एकजुट हुए थे।सब कुछ हवा हवाई, फरेब तो नहीं था। कम से कम दिल्ली में आप के कार्यकर्ताओं ने शहरी गरीबों के बीच जो काम किया,मुहल्ले मुहल्ले जाकर संवाद किया,उनकी मांगों को घोषणापत्र में शामिल किया, इन सब से लोगों का विश्वास बढ़ा क्योंकी लोगों के लिये यह सब नया नया था।
   ऐसा नहीं था कि दिल्ली में जो कुछ आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने किया वह दूसरी पार्टियां नहीं कर सकती थीं।देखा जाय तो पहले समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टियों की जनता के बीच पहचान ही इसी तरह के कामों से थी।वे समाज के कमजोर तबकों की आवाज थीं।इन पार्टियों के कार्यकर्ता गांवों, शहरों के शोषित,पीड़ितों के संघर्ष में उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ते थे।आन्दोलन,संघर्ष के अलावा कार्यकर्ता को मांजने के लिये प्रशिक्षण शिविर, सम्मेलन, कार्यशालाओ आदि का आयोजन किया जाता था।समाजवादियों के बीच यह खूब प्रचलित था कि एक पांव जेल में और एक पांव रेल में होना चाहिए।मुझे याद है जब मैं इलाहाबाद में पढ़ रहा था समाजवादियों के संपर्क में आया और समता संगठन की युवा शाखा समता युवजन सभा का कार्यकर्ता बना।शिवचरन लाल रोड पर विनय सिन्हा,अवधेश प्रताप सिंह के साथ रहने के दौरान अक्सर लोहियाविचार मंच,वनवासी पंचायत के साथियों साथ भी खूब चर्चा बहस होती थी।आसपास होने वाले सम्मेलनों, कार्यशालाओं में हम लोग  चंदा इकट्ठा करके जाते थे और इस तरह के कार्यक्रमों में साथियों को भी भेजते थे।किताबें पढ़ने का भी खूब चलन था।डाक्टर राम मनोहर लोहिया,आचार्य नरेन्द्र देव,जयप्रकाश नारायण,राहुल सांकृत्यायन,टाल्सटाय,मैक्जिम गोर्की,महात्मा गांधी आदि तमाम लोगों की किताबें,लेख पढ़े जाते थे,साथियों से इन पर चर्चा होती थी।इसी संदर्भ में समता युवजन सभा के कुछ साथियों ने मिलकर सौ से अधिक किताबों की एक लिस्ट भी बनाई थी।इस तरह से कार्यकर्ताओं को गढ़ने,संवारने का काम भी होता था।धीरे धीरे यह परम्परा दम तोड़ती गई।
      बड़े नेताओं की परिक्रमा करने का कांग्रेस पार्टी का कल्चर देखते ही देखते अधिकांश राजनीतिक दलों में छा गया।तहसील या जिला स्तर पर कार्यक्रम भी ऊपर के आदेश,निर्देश पर ही होते। थाने,कलेक्ट्रेट आदि तक सिफारिशें करने,तबादले रूकवाने-करवाने तक ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता सिमट कर रह गई।इसके बाद ही शुरू हुई भ्रष्टाचार को शिष्टाचार और घूस को सुविधा शुल्क कहने की परम्परा।परिणाम सामने आया ऊपर मे नीचे तक हर ओर व्याप्त भ्रष्टाचार के रूप में। इसी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए अन्ना ने जनलोकपाल की मांग की,आन्दोलन किया। खुद अन्ना जी ने भी कहा कि सिर्फ जनलोकपाल भर से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता है।बात भी सही है क्योंकी भ्रष्टाचार तो केवल लक्षण मात्र है रोग का कि मौजूदा व्यवस्था में गड़बड़ी है।आम आदमी पार्टी जिस नई राजनीति की बात करती है उसके लिए यही तो चुनौती है कि वह रोग की पहचान करे फिर उसके निदान के लिये कदम उठाए। तभी तो यह सवाल उठता है कि आम आदमी पार्टी की राजनीतिक सोच क्या है, उसका आर्थिक दर्शन क्या है। अभी तक तो इसका खुलासा नहीं हुआ उल्टे पार्टी में व्याप्त अंतर्कलह खुलकर दुनिया के सामने आ गया।
........क्रमश:

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Tuesday, March 17, 2015

सामयिक दोहे----
प्रकृति की चेतावनियों की अनदेखी कर विकास की अंधी दौड़ के दुष्परिणाम तो होंगे ही।देश के अधिकांश भागों में असमय हो रही बरसात,ओलावृष्टि क्या इसी ओर संकेत नहीं है।इसी संदर्भ में हैं ये चंद दोहे

मौसम भी चलने लगा कैसी टेढ़ी चाल
हमने भी रक्खा कहां प्रकृति का कोई ख्याल

आसमान से मुश्किलें बरसें हैं दिन रात
दुर्दिन बैठा राह में छिपा लगाये घात

ओला पानी इस कदर है मौसम की मार
टूटी कमर किसान की मचा है हाहाकार

मौसम की टेढ़ी नजर सहमा देख किसान
राह नहीं दिखती कोई सांसत में है जान

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Thursday, March 12, 2015

सामयिक दोहे----
आम आदमी पार्टी आज अपने ही हथियार-स्टिंग आपरेशन से लहूलुहान हो रही है।सचमुच यह पार्टी शैशव अवस्था में है तभी तो छोटे बच्चों की तरह इतनी नोचा-नाची,दांत कटौव्वल,मारा-पीटी हो रही है।इसी संदर्भ में चंद दोहे पेश हैं

उठा पटक यह आपकी देखे सकल जहान
उम्मीदें थीं आप से जिनको वे हैरान

जनता ने तुमको दिया बेहद प्यार दुलार
सीने में क्यों भोंकते उनके आप कटार

जनता तुमसे चाहती खुशियों की सौगात
आमादा क्यों मारने पर खुशियों को लात

रखलो अपनी म्यान में खिंची हुई तलवार
मिलजुल सारे रोग का करो शीघ्र उपचार

जीतेगा कोई नहीं हारेंगे बस लोग
टूटेगा विश्वास फिर यह कैसा संजोग

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Tuesday, March 10, 2015

बतकही-----
आप की जीत के मायने---4
जब देश में भ्रष्टाचार का यह आलम था इंडिया अगेन्स्ट करप्शन से जुड़े युवकों ने गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे जी की अगुवाई में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनान्दोलन छेड़ा जिसे भ्रष्टाचार से त्रस्त पूरे देश की जनता का जोरदार समर्थन मिला।निश्चित रूप से इस आन्दोलन के इतने कम समय में देशव्यापी प्रचार प्रसार में मीडिया-विशेषकर सोशल मीडिया का बड़ा हाथ रहा।इसी प्रकार युवा वर्ग,विशेषकर शहरी पढ़े लिखे युवाओं ने न केवल इस आन्दोलन को जबरदस्त समर्थन दिया बल्कि बढ़ चढ़कर इस आन्दोलन मे अभूतपूर्व भागीदारी की जिससे युवा वर्ग पर अब तक कैरियरिस्ट, सामाजिक दायित्वों के प्रति उदासीनता आदि के लगने वाले तमाम आरोप एक ही झटके में गलत साबित हुए।
    जन लोकपाल पर संसद में हुई चर्चा में सभी राजनीतिक दलों के सांसद बेनकाब हुए थे।जब सांसदों द्वारा आन्दोलनकारियों को चुनाव लड़ कर संसद में आने की चुनौतियां दी गईं तब आन्दोलन के कुछ साथियों ने आम आदमी पार्टी का गठन कर यह चुनौती स्वीकार की। उस समय तरह तरह के कयास लगाये जारहे थे कि ये आन्दोलनकारी राह से भटक गये हैं,कि घाघ राजनीतिज्ञों से चुनावों में इन्हें मुंह की खानी पड़ेगी, कि इतने मंहगे चुनावों के लिए ये पैसे कहां से जुटाएंगे वगैरह वगैरह। लेकिन राजनीति मे गुणात्मक बदलाव लाने के मजबूत इरादों के साथ राजनीति में उतरे युवाओं ने  इस तरह के सारे अनुमानों को गलत साबित करके दिखा दिया।
   राजनीति में वंशवाद,परिवारवाद,जातिवाद,धनबल,बाहुबल की गहरी पैठ के कारण अब तक राजनीति के नाम मात्र से बिदकने वाले युवा वर्ग ने पिछले कुछ वर्षों से राजनीति में दिलचस्पी लेना शुरू किया। भ्रष्टाचार के विरूद्ध अन्ना आन्दोलन ने ऐसे युवाओं को मंच प्रदान किया।इसके बाद जो कुछ हुआ वह सारी दुनिया ने देखा।आम आदमी पार्टी के गठन के बाद अन्ना आन्दोलन के साथ राजनीति में आई इस युवा शक्ति को अपने राजनैतिक आदर्शों को वास्तविकता के धरातल पर उतारने का अवसर मिला क्योंकी इस पार्टी का नेतृत्व पूरी तरह से युवा हांथों में था।बड़ी तादाद में युवकों ने अपनी पढ़ाई,नौकरी से अवकाश ले लेकर आम आदमी पार्टी के लिए स्वयं-सेवी भाव से काम किया जिसके चमत्कारी परिणाम भी आये।ऐसा नहीं है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों में युवा नहीं हैं।राष्ट्रीय लेकर क्षेत्रीय सभी पर्टियों के अपने अपने युवा मोर्चा,महिला मोर्चा हैं लेकिन उनकी नकेल पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर कुंडली मारे,तथाकथित अनुभवों से लबालब भरे यथास्थितिवादी बुजुर्ग नेताओं के हांथ में होती है।कुछ ही वर्षों में इन पार्टियों के युवा भी उसी रंग में रंग जाते है और किसी तरह से पार्टी के किसी बड़े नेता का कृपापात्र बनने में ही अपनी भलाई समझते हैं।

       क्रमश:……

Sunday, March 8, 2015

हास्यव्यंग-----
है बजट बड़ा यह मस्त मस्त.......
मैं विगत कई दिनों से बजटानंद में गोते लगा रहा था,खुशी थी कि हृदय में समा ही नहीं रही थी,छाती छप्पन इंच से ज्यादा ही चौड़ी हो गई थी। जैसा कि हमेशा से होता आया है भगवान से मेरी यह खुशी देखी न गई तभी तो उन्होंने हंस जी को भेज दिया मेरी खुशियों पर तुषारापात करने के लिये।हुआ यों कि मैं बाहर लान में टहलते हुए स्मार्ट इंडिया के सपनों में खोया हुआ था कि तभी हेलो कामरेड के स्वर ने बरबस ही मेरा कालर पकड़ कर सपनों की दुनिया से मुझे घसीट बाहर किया,देखा तो सामने हंस जी चिरपरिचित जेएनयू छाप मुस्कान के साथ खड़े थे।
   हंस जी तो वे मित्रों के बीच कहे जाते हैं अपनी नीर-क्षीर विवेक वाली तीव्र बुद्धि के कारण हालांकि वे ज्यादातर अपनी कुशाग्र बुद्धि का दुरूपयोग ही करते रहे हैं सामने वाले पर तर्कों की भीषण बमबारी कर उस पर अपना बौद्धिक आतंक जमाने में।इस काम में उनकी जेएनयू मार्का वेषभूषा- ढ़ीली ढ़ाली जींस पैंट पर खादी का लंबा कुर्ता,आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा भी काफी मदद करती है।उड़ती उड़ती खबर उनके बारे में यह भी है कि कभी हंस जी की दिली ख्वाहिश जेएनयू में पढ़ने की थी लेकिन एंट्रेंस न निकाल पाने के कारण वह हसरत दिल में ही रह गई लेकिन मन पर जेएनयू का रंग इतना गाढ़ा चढ़ा कि आप की चाल ढ़ाल सब उसी रंग में रंग गई।
   बिना किसी भूमिका के हंस जी ने सीधा प्रश्न दागा, कामरेड बजट के बारे में  क्या ख्याल है। सौभाग्य से आज मुझे सुनहरा मौका मिल ही गया था अपनी धाक जमाने का,हंस जी से अपनी बौद्धिकता का लोहा मनवाने का,तो फिर भला मैं क्यों चूकता।हर तरफ बजट की ही तो चर्चा हो रही है लगातार कई दिनों से।सारे टीवी चैनेल एक सुर में वाहवाही कर रहे हैं वजट की,अखबारों में सम्पादकीय और लेख लिखे जा रहे हैं इसकी शान में।मैने भी तुर्की ब तुर्की जवाब दिया, कामरेड क्या आपको इस बजट के सन्तुलित, विकासोन्मुखी, देश को आगे ले जाने वाला होने में कोइ सन्देह है।फिर उनको बोलने का कोई मौका दिये बगैर मैने कहना जारी रक्खा कि पहली बार सब को साथ लेकर सबका विकास कर अच्छे दिन लाने वाला बजट आया है।आप ही बताइये कोई क्षेत्र छूटा है जिस ओर ध्यान न दिया गया हो इस बजट में। रही बात मध्यम वर्ग की उसकी तो मानसिकता बन गई है हर समय रिरियाने की।दो तो भी तमाम नाक भौं सिकोड़ेगा,ना दो तो भी।वित्त मंत्री जी ने ठीक किया जो झिड़क दिया इसको कि अपनी देखभाल खुद करे।पूरी दुनिया जानती है कि कुछ पाने के लिये कुछ खोना भी पड़ता है इसलिये अगर थोड़ा सा सर्विस टैक्स बढ़ा दिया तो क्या गलत किया। जब अपना इंड़िया स्मार्ट बनेगा तो सारे के सारे देशवासी स्मार्ट हो जायेंगे,मुझे तो अभी से गुदगुदी हो रही है सोच सोच कर।
    इतना कह कर मैने गर्व से विजेता वाली दृष्टि हंस जी पर डाली लेकिन वे अप्रभावित रहते हुए बोले कामरेड यह सब तो मैं भी पढ़-सुन चुका हूं,मैं तो यह जानना चाहता हूं कि आप क्या सोचते हैं इस  बारे में। चलिये मान लिया कि जो कुछ कहा जा रहा है सच है तो क्या सचमुच देश खुशहाल होगा।बजट का चेहरा ही बता रहा है कि उद्योगपति लाबी हावी रही। सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश इसका जीता जागता प्रमाण है।अब पढ़े लिखे को फारसी क्या, सब जानते हैं कि सरकार से कुछ भी पाने के लिये कितना एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है,तमाम अच्छी योजनाएं दम तोड़ देती हैं।दूसरी ओर बजट दर बजट ताकतवर सम्पन्न लोगों का प्रकृतिक संसाधनों पर कब्जा किसी न किसी बहाने बढ़ता ही जा रहा है। यह वर्ग सीधी उंगली के साथ साथ टेढ़ी उंगली से भी घी निकालने में उस्ताद है, कभी कभार ही टूजी स्पेकट्रम घोटाला,कोयला खदान आबंटन घोटाला के रूप में इनकी काली करतूत जनता के सामने आ पाती है वरना तो पर्दा ही पड़ा ही रहता है।कोई भी सरकार हो इनका काम बेरोकटोक चलता रहता है,सारी महत्वपूर्ण,गोपनीय जानकारियां इनको मिलती रहती हैं,हाल ही में उजागर हुआ पेट्रोलियम मंत्रालय जासूसी कांड यही तो बताता है।इधर साल दर साल जल, जंगल, जमीन जैसे जीविका के बुनियादी संसाधनों से बेदखल होकर लोकविद्या के जानकारों का एक बड़ा तबका जबरन अकुशल श्रमिक बना दिया जाता है,जबकी वह अपने हुनर के बल पर समाज को उपयोगी सेवाएं दे रहा था।पूंजी तो श्रम से पैदा होती है पर अब तक एक के बाद एक सरकारें विदेशी निवेशकों के पीछे झोली फैलाकर दौड़ना ही परम धर्म मानती रही हैं। आज जरूरत लोकविद्या की प्रतिष्ठा और राष्ट्रीय संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण की है ताकि हांथों को काम मिले, समाज में खुशहाली हो,ना कि गरीबी,भुखमरी के रेगिस्तान के बीच सौ-पचास स्मार्ट सिटी खड़ी करने या एकाध बुलेट ट्रेन चला देने की।
    इतना कह कर हंस जी तो चले गये पर मुझे स्मार्ट इंडिया के सपने से बाहर निकाल यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा कर गये थे

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Saturday, March 7, 2015

सामयिक दोहे----
जी हां,बहुत हाथ-पैर पटकने के बाद भी सरकार रोक न पाई समाज का नंगा सच सामने आने से कि महिलाओं के प्रति अभी भी सोच में बदलाव नहीं आया है,कि पुरूष पढ़ालिखा हो या अनपढ़  आज भी महिला उसके लिये उपभोग की एक वस्तु ही है,कि महिला के उकसाने पर ही पुरूष गलती कर बैठता है आदि आदि।इस बीमार मानसिकता से मुक्त स्वस्थ समाज के लिये बड़े पैमाने पर घर-परिवार से शुरू कर प्रयास करना जरूरी है।इसी संदर्भ में चंद दोहे प्रस्तुत हैं

सच को करना चाहते दफन इस तरह आप
खाई मुंह की इस दफा बैन हो गया फ्लाप

सच आया है सामने देखो आंखें फाड़
मर्दों वाली सोच को दो जमीन में गाड़

कोख से ही करते विदा देते बेटी मार
बच जातीं उन पर सदा होते अत्याचार

गहरी है जड़ भेद की जड़ पर करो प्रहार
नई नई कोपल निकल आती है हर बार

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Thursday, March 5, 2015

फाग----

फागुन का महीना है,फागुनी बयार के साथ कानों में फाग गुनगुनाते हुए प्रकृति भी उमंग में भर कर हमेशा की तरह आज भी खिलखिली,इठलाती,बलखाती हर तरफ लाल,पीले,हरे,नीले विविध रंग जम कर बरसा रही है।प्रकृति का यह मनभावन श्रंगार देखकर न जाने कितने हृदयों में कविता की कोपलें फूट पड़ती हैं।मन फगुनाया हो तो उम्र कब आड़े आती है भला ढ़ोलक की थाप पर थिरक उठने में।तभी तो कोई मन गा ही उठता है – फागुन में बाबा देवर लागैं,फागुन में।फाग के विविध रंग हैं- भक्ति, प्रकृति वर्णन, श्रृगार, मिलन, विरह आदि।बचपन में गांव में सामाजिक विसंगतियों पर हंसते हंसाते गहरी चोट करने वाली फाग भी सुनी।पहले तो होली के इस रंगारंग पर्व पर सभी को बहुत बहुत बधाई साथ ही आज के संदर्भ में यह गुदगुदाती हुई फाग प्रस्तुत है।तर्ज है-होली खेलैं रघुवीरा अवध में होली खेलैं रघुववीरा।

कैसे धरै मन धीरा करेजे बजट दै गयो पीरा
बजट दै गयो पीरा करेजे कैसे धरै मन धीरा

होरी को त्याहार आ गयो होरी को त्योहार आ गयो
निकरै न मुख से कबीरा करेजे बजट दै गयो पीरा

आस लगी थी छूट की दीन्हो आस लगी थी छूट की दीन्हो
सर्विस  टैक्स को चीरा करेजे बजट दै गयो पीरा

निफ्टी और सेंसेक्स उछल रहे निफ्टी और सेंसेक्स उछल रहे
बजा के ढ़ोल मजीरा करेजे बजट दै गयो पीरा

कारपोरेट तो ऐसे थिरक रहे कारपोरेट तो ऐसे थिरक रहे
थिरके जैसे शकीरा करेजे बजट दै गयो पीरा

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Monday, March 2, 2015

बतकही-----
आप की जीत के मायने---3
आजादी के पहले और आजादी के समय के नेताओं के प्रति लोगों में सम्मान का भाव था,उनका त्याग और संघर्ष प्रेरित करता था।लेकिन आजादी के बाद राजनीति में आई गिरावट ने आमजन को राजनीति से विमुख किया।राजनीति में जाने का मकसद अब सेवा नहीं था,मकसद था ताकत बटोरना,दौलत इकट्ठी करना जिससे आनेवाली सात पुश्तें मौज कर सकें।बाद में बाहुबलियों,अपराधियों के राजनीति में सीधे प्रवेश पर नेता शब्द गाली बन गया।मान लिया गया कि राजनीति में जाना शरीफ  लोगों के बस की बात नहीं है।मां-बाप घर से दूर जा कर पढ़ने वाले बच्चे को बार बार यही हिदायत देते थे कि सिर्फ पढ़ाई में मन लगाना राजनीति के चक्कर में कभी भूलकर भी मत पड़ना।
जिस तरह दिनोदिन चुनाव खर्चीले होते गये,मतदान केन्द्रों पर कब्जा,मत पेटियों की लूट आदि का चलन बढ़ता गया, लोगों के मन में यह धारणा पक्की होती गई कि साधारण आदमी अब चुनाव नहीं लड़ सकता है।बिहार-झारखण्ड के मेरे मित्रगण दिलीप भाई,अजय भाई वहां पर चुनाव के समय के बड़े रोचक किस्से सुनाया करते थे कि जिस प्रकार शादी ब्याह में लोग महीनों पहले से हलवाई,टेंट वाले , बैंड वाले को बयाना देकर बुक कर लेते हैं उसी तरह चुनाव के समय प्रत्याशी को बूथ कैप्चरिंग करवाने,जहां से हारने की आशंका हो वहां बूथ में गड़बड़ी करवाने के लिए विरोधी प्रत्याशी से पहले ही इन कामों में महारत रखने वाली पार्टियों को पेशगी की रकम देकर बुक करना पड़ता है।धीर धीरे कमोबेस पूरे देश की यही स्थिति हो गई।पचास- साठ के दशक के चुनाव तो अब किस्से-कहानियों जैसे लगते हैं।काफी पहले बैढ़न(सिंगरौली,म.प्र.) में स्व.लाल गजमोचन सिंह एडवोकेट जी पुराने समय के चुनाव का किस्सा सुनाया करते थे जब वे और पूर्व विधायक पंडित श्याम कार्तिक जी अलग अलग पार्टी से एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते थे और प्रचार करने गांवों में साथ साथ जाते थे,गांव में लोगों को इकट्ठा कर पहले एक फिर दूसरा अपनी बात रखता था।शाम को वापस आकर दोनो लोग तय करते थे कि कल किस ओर प्रचार में निकलना है।
      समाज में जब राजनीति के प्रति इतनी गहरी उदासीनता और घृणा का भाव हो तब युवा वर्ग भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।आजादी के आन्दोलन,संघर्ष में तो युवकों ने खूब बढ़ चढ़कर भाग लिया था चाहे क्रान्तिकारियों की जमात में शामिल होकर या गांधी जी के सत्याग्रह में शामिल होकर।इसके बाद तो युवा वर्ग राजनीति से किनारा करता गया।जन संगठनों के सम्मेलनों , बैठकों में अक्सर यह जुमला सुनने को मिलता था कि आज का युवक कैरियरिस्ट हो गया है,समाज के दुख दर्द से उसका जैसे कोई लेना देना ही नहीं रह गया है।हां, बीच में सन् 1974 में भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आन्दोलन में युवकों ने बड़े पैमाने पर भाग लिया था जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण जी ने किया और उसे सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन का नाम दिया था।यह जनान्दोलन देखते ही देखते पूरे उत्तर भारत में फैल गया था।उसके बाद तो लम्बे समय तक इस प्रकार का आन्दोलन नहीं दिखा जिसमें इस तरह से जमकर युवकों ने भाग लिया हो।अस्सी के दशक में एनजीओ कल्चर की देश में आमद के साथ ही डीपोलिटकलाइजेशन बढ़ता गया।पहले तो फंडिंग एजेंसियां जमीनी स्तर पर चलने वाले आन्दोलनो के पास सहयोगियों केरूप में जाती थींऔर विभिन्न प्रकार से सहयोग करने की पेशकश करतीं थीं जैसे संघर्ष के डाक्यूमेंटेशन,कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविर,एक्सपोजर ट्रिप,कुछ के लिए फेलोशिप की व्यवस्था वगैरह वगैरह,पीछे इन्ही आन्दोलनों के कुछ साथी एनजीओ बनाकर काम करने लग जाते थे,तरह तरह के सुविधाजनक तर्क गढ़ लिये जाते थे-संघर्ष के साथ साथ रचना भी जरूरी है,रचना और संघर्ष साथ साथ चल सकते हैं या फिर हमारा काम तो चेतना फैलाना है,जागृत होने के बाद लोग खुद ही संघर्ष कर लेंगे।जैसे जैसे एनजीओ का विस्तार हुआ,फंडिंग एजेंसियों की पकड़ मजबूत होती गई।फिर तो ये एजेंसियां ही मुद्दे तय करने लगीं जिन पर उनसे फंड लेने वाले एनजीओ को काम करना था।लगभग हर दो तीन साल पर मुद्दे बदल जाते थे।अब आन्दोलन संघर्ष की जगह हर मर्ज का इलाज एनजीओ में देखा जाने लगा।जमीनी स्तर पर चलने वाले स्थानीय आन्दोलनों को धीरे धीरे एनजीओ कल्चर निगलता गया।समाजवादी चिंतक किशन पटनायक जी ने इस खतरे के प्रति शुरू में ही आगाह किया था।                                           

 इधर देश में नई आर्थिक नीति के साथ  शुरू हुए उदारीकरण,भूमंडलीकरण के दौर ने स्थिति को बद से बदतर ही किया।राजनीति में आई गिरावट ने भ्रष्टाचार के लिए उर्वर जमीन उपलब्ध कराई।देश में चारो तरफ लूट खसोट  का माहौल बढ़ा।युवकों में भी होड़ सी लगी  देश के प्रतिष्ठित संस्थानों-आई  आई टी, आई आई एम से पढ़ाई करके बड़े पैकेज पर विदेशों में नौकरी पाने की।मां-बाप की भी अधिकतर यही कोशिश रहती कि जायज-नाजायज किसी भी तरीके से उनके बच्चे मंहगे स्कूलों में दाखिला पा जायें ताकि पढ़ाई के बाद अच्छे पैकेज वाली नौकरियां पा सकें।मीडिया ने भी आक्रामक विज्ञापनों के जरिये बेलगाम उपभोग को हवा दी।देश में माल कल्चर के आगमन ने आग में घी का काम किया।मंहगे रेस्तरां में यार दोस्तों या परिवार के साथ खाना खाना,ब्रांडेड आइटम इस्तेमाल करना स्टेटस सिंबल बन गया।जिसे देखो वही इस मृगमरीचिका के पीछे दौड़ में शामिल होता चला गया।इतनी ख्वाहिशें वैध कमाई से तो पूरी होने से रहीं फिर तो अवैध कमाई का ही सहारा था।ऐसे में चपरासी से लेकर अफसर,संतरी से लेकर मंत्री तक ही नहीं बल्कि हर तरफ यहां तक की शिक्षा जैसे पवित्र समझे जाने वाले क्षेत्र में भी जो जिस स्तर का था उस स्तर पर भ्रष्टाचार के दलदल में खुशी खुशी धंसता गया।परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार नये नये कीर्तिमान बनाता गया।कभी कुछ सौ करोड़ रूपयों के हर्षद मेहता घोटाले की पूरे देश में गूंज थी।अब तो टूजी घोटाला,कोयला खदान आबंटन घोटाला आदि के सामने यह बहुत बौना दिखने लगा है।
.........क्रमश:
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Sunday, March 1, 2015

सामयिक दोहे-----
बड़ी हसरत से जनाब इंतजार था इस आम बजट का,सरकार ने तो आते ही कड़वी दवा पिला दी थी लेकिन......।इसी संदर्भ में प्रस्तुत हैं चंद दोहे

हमको तो बंधवा रहे अच्छे कल की आस
कारपोरेट को दे रहे हैं वे च्यवनप्राश

अच्छे दिन सपने हुए मंहगाई की मार
वे कहते थोड़ा अभी और करो इंतजार


अंधे को आंखें मिलें तब ही वह पतियाय
अच्छे दिन के बोल अब देते आग लगाय

अच्छे दिन का बजट भी करता  कड़वी बात
सर्विस टैक्स बढ़ाय के मारी कमर पे लात

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