Thursday, April 30, 2020

फ़िल्म #Angrezimedium की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...02)

फ़िल्म #Angrezimedium की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...02)

 मिशन #Sensiblecinema के तहत इरफ़ान खान को भाव भीनी श्रद्धांजलि स्वरूप मैंने यादों में इरफ़ान सीरीज शुरू की है, उनकी जितनी फिल्में मुझे देखने को मिलेंगी मैं यहां उनकी समीक्षा करने का प्रयास करूंगी। तो यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत आज (30/04/2020) मैंने #Angrezimedium देखी। बहुत ही उम्दा फ़िल्म है, बहुत कुछ सिखाती है हमें। जहां एक ओर इस फ़िल्म में बाप बेटी का प्यार दुलार, उनके बीच की मीठी नोक झोंक, बीच में होने वाली गलतफहमियां, एक पिता की अपनी बेटी के लिए बेपनाह मोहब्बत और परवाह वाले सीन्स और संवाद हमें भावुक करते हैं तो दूसरी ओर चंपक (इरफ़ान खान) और उसके चचेरे भाई गोपी  के बीच असीम स्नेह आखिर में आंखों को नम कर जाता है, लंदन जैसे शहर में काम की व्यस्तता और अपनी प्राइवेसी को बरकरार रखने के कारण रिश्तों की गर्माहट को भूल चुकी एक बेटी (करीना कपूर) को अपनी मां (डिंपल कपाड़िया) के क़रीब फिर से लाने के लिए इरफ़ान उर्फ चंपक का करीना को समझना, उनकी सहज सरल मगर प्रभावशाली संवाद अदायगी मन को छू जाती है।
फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि उदयपुर का मिठाई बेचने वाला चंपक (इरफ़ान खान) अपनी बेटी तारिका (राधिका मदन) को विदेश में पढ़ाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। वो अपनी बेटी के विदेश में पढ़ने के उसके सपने को हर हाल में पूरा करना चाहता है वो नहीं चाहता कि उसकी बेटी के ख़्वाब उसकी पत्नि के ख्वाबों की तरह टूट जाएं। उसकी पत्नी आगे पढ़ना चाहती थी पर उसकी लापरवाही की वजह से वो आगे बढ़ ना सकी, तारिका को जन्म देते ही वो चल बसी। चंपक ने ही तारिका को मां और बाप बनकर पाला। तारिका एक एवरेज स्टूडेंट होती है पर ट्रूफॉर्ड यूनिवर्सिटी जाने की ललक में खूब मेहनत करती है और 55 से 85 प्रतिशत लाती है पर चंपक के उसके कॉलेज में मुख्य अतिथि के रूप में पधारे न्यायाधीश को खरी खोटी सुना देने के कारण कॉलेज की प्रिंसिपल तारिका का परमिशन लेटर फाड़ देती है। चंपक तय करता है कि वो किसी भी हाल में तारू को लंदन भेजकर रहेगा बल्कि खुद उसे लेकर जाएगा पर एयरपोर्ट पर अंग्रेजी ना आने के कारण वो मुसीबत में फंस जाता है और गलतफहमी की वजह से उसका और उसके चचेरे भाई गोपी (दीपक डोबरियाल) का पासपोर्ट रद्द हो जाता है और तारु को अकेले लंदन जाना पड़ता है। इधर चंपक और गोपी दूसरे जुगाड से लंदन पहुंचने की कोशिश करते हैं तो उधर तारु को दूसरे यंगस्टर्स को ख़ुद से काम करके अपनी पढ़ाई और दूसरे खर्चे निकालते देखना उन्हें एक तरह से आत्मनिर्भर बनाने जैसा लगता है। तारु भी पार्ट टाइम जॉब करके अपने लिए रेंट पर एक कमरा लेती है। जैसे तैसे जुगाड से लंदन पहुंचे चंपक और गोपी तारु में आए कई बदलाव महसूस करते हैं। जब तारु कहती है ये स्टूडेंट रूम है आप लोग मेरे साथ नहीं रह सकते आपको दूसरा कमरा देखना होगा तो चंपक उसे भी साथ चलने को कहता है पर वो मना कर देती है, कहती है इस रूम का रेंट मैंने मेरे पैसों से दिया है जॉब करके, मैं रिस्पॉन्सिबल होने की कोशिश कर रही हूं पापा तो इरफ़ान का बड़ा ही खूबसूरत सा डायलॉग है: पता नहीं तू रिस्पॉन्सिबल हो गई है या हमें इरेस्पोंसिब्ल समझ रही है जो अपना खर्चा खुद निकलना चाहती है, तेरा पापा अभी जिंदा है, तेरा खर्च उठा सकता है।
चंपक और गोपी चचेरे भाई हैं उनके बीच उनके परदादा घसीतेरामा के नाम का बोर्ड अपनी मिठाई की दुकान पर लगाने को लेकर आए दिन नोक झोंक होती रहती है पर जब लंदन में तारु के एडमिशन के लिए रुपयों की ज़रूरत होती है तो वही गोपी उस नाम को अपने प्रतिद्वंदी को देने के लिए तैयार हो जाता है। गोपी के किरदार में दीपक डोबरियाल ने जान डाल दी है, उनका अभिनय और संवाद अदायगी इस फ़िल्म में उनके किरदार को भूलने नहीं देगी। इसी तरह टोनी का किरदार निभाने वाले पंकज त्रिपाठी भी अपने इस हटकर किए गए किरदार के लिए हमेशा याद रहेंगे। इरफ़ान राजस्थान से ही हैं इसलिए उनकी संवाद अदायगी और प्रभावशाली बन पड़ी है। 
एक साथ बहुत सारे मैसेज देती ये फ़िल्म लाजवाब है। इस बेहतरीन फ़िल्म का निर्देशन करने के लिए होनी अदजानिया को साधुवाद। अफसोस इस बात का है कि इतनी अच्छी फ़िल्म होने के बावजूद ये फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छा व्यापार नहीं कर पाई। मुझे लगता है हमें दो मिनट रुक कर यह आंकलन करने की जरूरत है कि आखिर हमें कैसा सिनेमा चाहिए, क्या हम सेंसिबल सिनेमा को देखना भूलते जा रहे हैं? क्यूं बेहतरीन फिल्में बॉक्स ऑफिस में चल नहीं पाती? क्या हम सेंसिबल सिनेमा को देखने और उसको बढ़ावा देने के लिए आगे आएंगे?

फ़िल्म #Karwaan की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज ...01)

फ़िल्म #Karwaan की समीक्षा (यादों में इरफ़ान... 01)

मिशन #Sendiblecinema के तहत कल (29/04/2020) इरफ़ान खान की फ़िल्म कारवां देखी। फ़िल्म का निर्देशन किया है आकर्ष खुराना ने। ज़िन्दगी एक कारवां एक सफ़र ही तो है, वो सफ़र जो कई सरप्राइजेज से भरा है, वो सफ़र जिसकी खट्टी मीठी यादें हमारे ज़हन के बक्से में ताउम्र के लिए महफूज़ हो जाती हैं अमिट कहानी सी और हमारे साथ ही जाती हैं। ज़िन्दगी का कैलकुलेशन हमेशा दो दूनी चार हो ज़रूरी नहीं, सब कुछ हमारे हिसाब से ही चले ये भी ज़रूरी नहीं। ज़िन्दगी का कारवां खूबसूरत तब ही बनता है जब हम हर लम्हे को आत्मसात करें, सफ़र का भरपूर आनंद लें, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में तटस्थ बने रहें और सम भाव से उन परिस्थितियों के अनुरूप ख़ुद को ढाल लें। ज़िन्दगी के इस कारवां में हमें किसम किसम के किरदार मिलते हैं, कुछ अपने से लगते हैं कुछ अंजाने से, कुछ दिल के करीब मालूम पड़ते हैं तो कुछ मीलों दूर पर हमें कुछ ना कुछ सीखता हर किरदार है, कुछ हमारा हाथ थामे हमराही बनकर तो कुछ चोट और ज़खम देकर। 
इस फ़िल्म की कहानी दो दोस्तों की कहानी है जिनका सोशल स्टेटस के हिसाब से तो कोई मैच नहीं लेकिन जिनके दिल के तार एक दूसरे की फीलिंग्स के सिग्नल को बख़ूबी कैच करते हैं इसलिए एक दूसरे से बिल्कुल जुदा होने के बावजूद भी शौकत (इरफ़ान खान) और अविनाश (दुलकुयर सलमान) एक दूसरे के अच्छे दोस्त होते हैं। अविनाश बैंगलोर में एक आईटी कंपनी में काम करता है और शौकत एक वैन मालिक है और उसका गुज़ारा इस वैन के ज़रिए ही होता है। अविनाश के पास एक ट्रैवल एजेंसी से फोन आता है कि उसके पिता का एक बस एक्सिडेंट में निधन हो गया वो पास के ही एक कार्गो कंपनी से अपने पिता का पार्थिव शरीर हासिल कर सकता है। अविनाश शौकत के पास जाता है और कहता है उसे अपने पापा की बॉडी लाने के लिए शौकत की वैन चाहिए। शौकत भी अविनाश के साथ उस कार्गो कंपनी बॉडी लेने जाता है पर बॉडी गलती से एक्सचेंज हो जाती है, उनके पास किसी महिला की बॉडी पहुंच जाती है और उसके पिता की बॉडी कोच्चि उस महिला के घर। कंपनी वाले कोच्चि उस महिला के घर का नंबर देते हैं। अविनाश उस नंबर पर कॉल करता है तो वो महिला अकेले होने के कारण बैंगलोर आने में असमर्थता दिखाती है तो अविनाश स्वयं उसकी मां की बॉडी लेकर कोच्चि जाने को तैयार हो जाता है। इरफ़ान अविनाश के इस फैसले पर गुस्सा होता है कहता है रोती हुई औरत और दूध वाले पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए वो तुझे मूर्ख बना रही है और वहां बुला रही है पर दोस्त के कारण वो बॉडी लेकर कोच्चि जाने के लिए तैयार हो जाता है। वो लोग रास्ते में होते हैं कि उस महिला का फिर फोन आता है वो बीच रास्ते से अविनाश को अपनी बेटी तान्या (मिथिला पलकर) को भी साथ लाने की रिक्वेस्ट करती है। इरफ़ान भड़क उठता है और अविनाश से कहता है यार मैय्यत पर रोमांस मत कर जल्द से जल्द बॉडी पहुंचा कर वापस आएं अपन। अविनाश इरफ़ान को मानकर उसकी बेटी को उसके कॉलेज हॉस्टल लेने पहुंचता है और फिर यहां से शुरू होता है तीन लोगों का सफ़र जो एक दूसरे से बिल्कुल जुदा है। उन्हें और कहां रुकना पड़ता है और किन किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है जानने के लिए इन तीन लोगों की ज़िंदगी के इस कारवां को ज़रूर देखिए आपको बड़ा मज़ा आएगा। इरफ़ान की कॉमेडी ज़बरदस्त है। इरफ़ान एक्टिंग के एक चलते फिरते स्कूल थे ये कहना अतिशयोक्ति ना होगी। चाहे कोई गंभीर किरदार हो, रुमानी, खलनायक का या फिर कॉमिक कैरेक्टर इरफ़ान हर किरदार को बड़ी सादगी से आसानी से निभा ले जाते थे। इरफ़ान जैसे कोहिनूर को खोने की टीस दिल से कभी ना जाएगी। दुल्कुयर सलमान और मिथिला पलकर ने भी अच्छा अभिनय किया है। इस कारवां में ऐसा लगेगा मानो आप अविनाश, तान्या और शौकत के साथ आप भी उस सफ़र में हैं।

Wednesday, April 29, 2020

फ़िल्म # Natsamraat की समीक्षा

फ़िल्म #Natsamraat की समीक्षा

अपने मिशन #Sensiblecinema के तहत कल (28/04/2020)  नाना पाटेकर अभिनीत मराठी फ़िल्म #Natsamraat देखी। फ़िल्म को निर्देशित किया है स्वयं एक उम्दा अभिनेता महेश मांजरेकर ने और निर्माता  हैं स्वयं नाना पाटेकर। कहा जाता है कि सैराट के बाद अगर मराठी सिनेमा में जिस फ़िल्म की सबसे ज़्यादा चर्चा होती है और लंबे अरसे बाद कोई सैराट की जगह ले पाई तो वो यही फ़िल्म ही है। यह फ़िल्म बिना सबटाइटल मैंने मराठी में ही देखी और मैं ये स्पष्ट करना चाहती हूं कि मुझे मराठी भाषा नहीं आती। नीरज कुन्देर सीधी भइया आपने सही कहा था कि अगर वाचिक को छोड़ भी दिया जाए तो आंगिक, आहार्य और सात्विक के सहारे बगैर भाषा जाने भी 75%  फ़िल्म समझ में आ जाती है। मैं इस फ़िल्म को जितना समझ पाई आपके साथ उन्हीं अनुभवों को साझा कर रही हूं। यह फ़िल्म दर्द भरी दास्तां है उस नट सम्राट की जिसने अपनी ज़िन्दगी के चालीस वर्ष रंगमंच को दिए, जो अपने अभिनय से रंग प्रेमियों को रुलाता, हंसाता और उद्वेलित करता रहा, जो रंगमंच के अटूट मोह से रिटायरमेंट के बाद भी नहीं निकल पाता, जिसकी आसक्ति पैसे रुपयों में नहीं रिश्ते नातों में रही पर उन्ही अपनों के बीच वो गैरों की तरह रहा और जिसे अपनों से बेहतर गैरों ने समझा और उसका साथ दिया। ख़ून के रिश्ते नाते कैसे पानी हो जाते हैं वक़्त के साथ इस कड़वी सच्चाई को इस फ़िल्म में बड़े ही शानदार तरीके से दिखाया गया है। यूं तो इस फ़िल्म के हर कलाकार ने अपने किरदार को बखूबी निभाया पर जो किरदार अब तक मेरे साथ है वो है गणपत रामचंद्र बेलवलकर (नाना पाटेकर), गणपत रामचंद्र के मित्र राम भाऊ (विक्रम गोखले) और उनकी पत्नि कावेरी (मेधा मांजरेकर) का। इस फ़िल्म को देखकर आपको एहसास हो जाएगा कि क्यूं नाना पाटेकर को ज़बरदस्त अभिनेता कहा जाता है। अभिनय की बारीकियों को समझने की दृष्टि से भी इस फ़िल्म को लाजवाब फ़िल्म कहा जा सकता है।
एक संवाद है गणपत रामचंद्र और राम भाऊ के बीच का: कृष्ण और कर्ण संवाद, ये संवाद बहुत ही शानदार है। वो सीन जिसमें गणपत रामचंद्र एक पेपर में रखकर वड़ापाव खा रहे होते हैं और जब उस पेपर में कुछ लिखा देख ज़ार ज़ार रोने लगते हैं और पाव छोड़ कहीं निकल जाते है वो सीन मन को विचलित करता है और साथ ही अजीब सी बेचैनी भी पैदा करता है पर अगले सीन में जब वो किसी जर्जर हो चुके नाट्य निकेतन पहुंचते हैं और अपने पुराने दिन याद करते हैं, कहानी फ़्लैश बैक के गलियारों से गुजरती है तो कई बार आंखें नम हो जाती हैं। मन कचोटता है कि किसी ज़माने के इतने बड़े रंगकर्मी की आज ये क्या दशा हो गई है। वो अनाथों की तरह फुटपाथ पर सोता है। इस फ़िल्म में राजा का किरदार छोटा है पर दिल को छू लेता है। राजा फुटपाथ पर रहने वाला वही लड़का है जो पहले गणपत रामचंद्र की अटैची में से दारू के लिए पैसे चुराता है फिर आत्म ग्लानि के बोझ से दबकर अपनी गलती स्वीकार करता है और गणपत रामचंद्र की देख रेख अपना बाबा मान कर करता है, उन्हें समझता है, उनको नाटकों का शौक है ये जान बूट पॉलिश कर नाटक के टिकट लाता है। उसे देख लगता है बड़े बड़े महलों में रहने वाले छोटे दिलों के मालिकों से तो फुटपाथ पर रहने वाले बड़े दिल के मालिक हैं जो जस्बात को तो समझते हैं, जो गैर होकर भी अपने से लगते हैं। गणपत रामचंद्र और राम भाऊ की दोस्ती के कई संवाद और सीन भी हमें भावुक कर देते हैं।   नाना पाटेकर ने अदभुत अभिनय किया है, उनके संवाद, भाव भंगिमा दिल को छू जाते हैं। आखरी के दस मिनट में आप खुद को रोने से रोक नहीं पाएंगे। ये पहली ऐसी फ़िल्म है जिसमें नाना पाटेकर के किरदार को याद करके फ़िल्म खत्म होने के आधे घंटे बाद तक भी मैं रोती रही। यकीनन #Natsamraat एक ऐतिहासिक फ़िल्म है और ऐसी फिल्में यदा कदा ही बनती हैं।

Sunday, April 26, 2020

फ़िल्म #Paansinghtomar की समीक्षा

फ़िल्म #PaanSinghTomar  की समीक्षा

मिशन #Sensiblecinema के तहत आज (26/04/2020) एक बार फिर इरफ़ान खान अभिनीत और तिग्मांशु धूलिया द्वारा निर्देशित पान सिंह तोमर फ़िल्म देखी। ये कहानी भारतीय सेना के जवान और नेशनल एथलीट रहे पान सिंह तोमर के परिस्थितियों और भ्रष्ट व्यवस्था के कारण बागी बनने त्रासदी पूर्ण कहानी है। एक ऐसा एथलीट जिसने दुनिया में देश का नाम रोशन किया और देश के लिए ईनाम जीतकर लाया हो उसे ही पकड़ने के लिए उसके सर पर ईनाम रखा जाए भला इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है। पान सिंह तोमर (इरफ़ान खान) कहता है कैसी विडंबना है जब देश के लिए दौड़े और जीते तब कोई नाम तक नहीं जानता था आज वही पान सिंह तोमर जब बागी हो गया तो सब जानने लगे। बागी कोई शौक़ से नहीं बनता, परिस्थितियां और मजबूरी इंसान को बागी बनने पर मजबूर करती हैं। पान सिंह तोमर को हथियार उठाने पर मजबूर किया हमारी भ्रष्ट व्यवस्था ने, उसने अपने चाचा के विरूद्ध हथियार तब उठाया जब पुलिस, प्रशासन किसी ने उसकी गुहार नहीं सुनी। 
ये कहानी है उस सैनिक, नेशनल एथलीट और बागी पान सिंह तोमर की जो देश के लिए विषम से विषम परिस्थितियों, न्यूनतम सुविधाओं जैसी अनेकों बाधाओं को पार करते हुए सात बार बाधा दौड़ (स्टीपलचेस) विजेता बना लेकिन अफसोस ज़िन्दगी की दौड़ में हार गया। उसके चाचा ने उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया था उसने पुलिस, प्रशासन से कई बार अपनी ज़मीन पाने के लिए गुहार लगाई पर हर बार उसे निराशा ही हाथ लगी ऊपर से चाचा और उसके आदमी पान सिंह के बेटे पर भी हमला करते हैं, उसकी मां को भी मारते हैं तब मजबूरन पान सिंह को बागी बनना पड़ता है। पर एक बार जिसने हथियार उठा लिया हो उसकी सामान्य ज़िन्दगी में वापसी असंभव है। कहानी फ़्लैश बैक में चलती है एक पत्रकार पान सिंह तोमर का इंटरव्यू लेने आता है, पान सिंह भी इंटरव्यू के लिए इसलिए राज़ी हो जाता है ताकि उसके बागी बनने की दास्तां मीडिया के माध्यम से जन जन तक पहुंचे। जब पत्रकार महोदय पहला ही प्रश्न दागते हैं कि आप डाकू क्यूं और कैसे बने तो वो पान सिंह भड़क उठता है कहता है हम बागी हैं, डाकू तो पार्लियामेंट में होते हैं। फिर वो अपनी आर्मी की नौकरी से लेकर नेशनल एथलीट बनने तक के सफर के बारे में पत्रकार को एक एक कर हर घटना बताता है, साथ ही बागी बनने की वजह भी स्पष्ट करता है। वो मारना पसंद करता है पर सरेंडर नहीं करता। वो कहता है सरेंडर का मतलब अपने गुनाहों को क़ुबूल करना, मैंने कोई गुनाह नहीं किया कभी किसी निर्दोष को नहीं मारा। मैं क्यूं करूं सरेंडर, ये पुलिस प्रशासन करे सरेंडर जिन्होंने मुझे बागी बनाया। 
फ़िल्म के कई संवाद बहुत ही ज़बरदस्त हैं जैसे एक सीन में जब पान सिंह के कोच उसे गाली देते हैं तो वो कहता है गुरु जी मां बहन की गाली मत देना, हमारे यहां गाली पर गोली चल जाती है और हमें हमारी मां से बहुत प्यार है। पान सिंह का एक और डायलॉग है: चंबल में दुश्मन खत्म हो जाते हैं पर दुश्मनी नहीं। पुलिस के जिन मुखबिरों को वो मारता है उनके बारे में वो पत्रकार से कहता है उन्होंने हमसे गद्दारी की, वो निहत्थे थे पर निर्दोष नहीं इसलिए उन्हें मारा। बागी होने के बावजूद भी वो संवेदनाशून्य नहीं है, उसकी गैंग का कोई बागी जब पुलिस के हाथो मारता तो वो उसके परिवावालों को भरण पोषण के लिए पैसे भेजता। वो सीन बड़ा ही मार्मिक है जहां पान सिंह अपने चाचा भैरव सिंह से बोलता है: दद्दा तुमने ऐसा क्यों किया, हमें हथियार उठाने पर मजबूर क्यूं किया, हम तो सीधे साधे खिलाड़ी थे, मेरी इस हालत के लिए ज़िम्मेदार कौन है? बुंदेलखंड से ना होने के बावजूद इरफ़ान ने बुन्देली बोलने का अच्छा प्रयास किया है। जब पत्रकार पान सिंह का इंटरव्यू ले रहा था उस वक़्त बैकग्राउंड में जो म्यूज़िक बजता है अगर आप बुंदेलखंड या बृज भाषा वाले क्षेत्र से तालुक रखते हैं तो आपको अपनी मातृभूमि की याद दिलाएगा। अंतिम सीन जिसमें पान सिंह तोमर को गोली लगती है और उसे अपने पुराने दिन याद आते हैं वो सीन दिल को बेचैन कर देता है। भिंड मुरैना की पृष्ठभूमि पर बनी, हमारी व्यवस्था पर सवाल उठाने वाली इस फ़िल्म में बेहतरीन अभिनय से पान सिंह तोमर के किरदार को जीवित करने के लिए इरफ़ान हमेशा याद किए जाएंगे।

Saturday, April 25, 2020

फ़िल्म #श्वास की समीक्षा

फ़िल्म #Shwaas की समीक्षा

मिशन #Sensiblecinema के तहत आज (25/04/2020) मराठी फ़िल्म #Shwaas देखी जो 2004 में ऑस्कर के लिए नामांकित हुई थी साथ ही इस फ़िल्म को 2004 का नेशनल अवॉर्ड भी मिला था। महज़ तीस लाख की लागत में तीस दिनों के भीतर बनी ये फ़िल्म भीतर से झंकझोर देती है। फ़िल्म अपने टाइटल के अनुरूप सत प्रतिशत खरी उतरती है, इस फ़िल्म को देखते हुए कई बार आपको ऐसा महसूस होगा कि सच में आपकी श्वास कहीं अटक सी गई है, आप ऑक्सीजन की ज़रूरत महसूस करेंगे। ये फ़िल्म पुणे की एक सच्ची घटना पर आधारित है। 
फ़िल्म की कहानी एक सात आठ वर्षीय बच्चे परशुराम (अश्विन चितले) के इर्दगिर्द घूमती है जिसे साफ साफ दिखाई नहीं देता और कई बार तो कोई चीज़ दो दो नज़र आती हैं। उसके आजोबा यानि दादा जी (अरुण नालावादे) उसकी आंखों की जांच कराने शहर जाते हैं तब उन्हें पता चलता है कि परशुराम को रेटिनल कैंसर है और अगर जल्द ही दोनों आंखें नहीं निकाली गईं तो कैंसर को बढ़ने से रोकना मुश्किल हो जाएगा। वो बच्चा जिसने अभी ढंग से दुनियां तक नहीं देखी, जिसकी ज़िन्दगी में अभी रंग भरने ही शुरू हुए थे कि क़िस्मत ने उन सभी रंगों को स्याह रंग में बदल देना चाहा, जो फिर कभी चांद तारे नहीं देख पाएगा, दूसरे बच्चों की तरह दौड़ भाग नहीं पाएगा, जो किसी का सहारा बनता उस नन्ही सी जान को खुद सहारे की ज़रूरत होगी ये सब सोचकर ही उसके आजोबा सिहर जाते हैं और उस बच्चे से ये बताने की हिम्मत नहीं कर पाते कि उसकी सपनीली आंखें अब कभी हसीं ख़्वाब नहीं देख देख पाएंगी। डॉक्टर साने कहते हैं बिना मरीज़ को हकीकत से रूबरू किए वो ऑपरेशन नहीं करेंगे। परशुराम के आजोबा को ये सच्चाई बतानी ही पड़ेगी और अगर उसे बचाना है तो ये फैसला जल्द से जल्द लेना होगा। उस नन्हे से बच्चे को ऑपरेशन थिएटर में जाते देखना बड़ा ही हृदय विदारक है। ऐसा लगता है ईश्वर इस बच्चे का सारा दुःख हमें दे दे और मेरे हमारे हिस्से की सारी खुशी उसके दामन में डाल दे, भगवान पर गुस्सा भी आता है कि आख़िर उस मासूम ने किसी का क्या बिगाड़ा था जिसकी इतनी बड़ी सजा उसे मिल रही है। ऑपरेशन से एक दिन पहले परशुराम बहुत ज़िद करता है, सबके ऊपर गुस्सा दिखाता है,  उसका मन बहलाने के लिए और ज़िन्दगी के कई अनदेखे रंगों से उसका परिचय कराने के लिए उसके आजोबा उसे चुपके से अस्पताल से सबकी नज़रों से बचाकर मॉल ले जाते हैं, घोड़े पे बिठाते हैं, मंदिर लेके जाते हैं, उसके उदास चेहरे पर ख़ुशी लाने की कोशिश करते हैं। इधर हॉस्पिटल में परशुराम और उसके दादा के अचानक किसी को बिना बताए गायब हो जाने से अफरातफरी मच जाती है। मीडिया और पुलिस प्रशासन तक हरकत में आ जाता है। परशुराम का मामा किसी अप्रत्याशित घटना हो जाने के डर से सिहर उठता है। डॉक्टर मिलिंद साने परेशान होते हुए अपनी कार से कहीं निकलने को होते हैं कि तभी उन्हें वो दोनों सामने से आते दिखते हैं। उस वक़्त डॉक्टर और परशुराम के दादा के बीच का संवाद बड़ा ही प्रभावशाली बन पड़ता है। पहले तो परशुराम के दादा चुपचाप डॉक्टर की बात सुनते रहते हैं पर फिर वो जो सवाल करते हैं वो डॉक्टर मिलिंद को निरुत्तर कर देते हैं साथ ही विचलित भी। पहली बार डॉक्टर होते हुए वो दिमाग़ की जगह दिल से काम लेते हैं। 
अरुण नलावादे और अश्विन चीतले का अभिनय तो उम्दा है ही, डॉक्टर के किरदार को संदीप कुलकर्णी ने भी जीवंत कर दिया है। मलयालम, बांग्ला और मराठी सिनेमा में कहानी कहने की कला बेमिसाल है। कहानी और किरदार दोनों अंत तक बांधे रखते हैं। आपको ये फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। इस फ़िल्म को सजेस्ट करने के लिए मैं अपने मित्र डॉक्टर कैलाश यादव जी का शुक्रिया अदा करना चाहूंगी।

मालूम नहीं

क्या है क्यूं कैसी ये खलिश मालूम नहीं
नज़रों में तेरी ये कैसी कशिश मालूम नहीं
क्या खींचे मुझको तेरी ओर मालूम नहीं
है कौन सी वो अनजानी डोर मालूम नहीं।।

बच्चों सा तू निश्छल निर्मल
मुखड़े पे हंसी बहती छल छल
सोचूं तुझको, खोजूं तुझको
पाऊं तो कभी को दूं तुझको
तुझसे ये कैसा नाता है मालूम नहीं
मुझको तू क्युंकर भाता है मालूम नहीं।।

कोई ख्याल, आस या कि कोई प्यास है
है मीलों दूर फिर भी लगता आसपास है
भटकती रूह को रहती तेरी तलाश है
मिलेंगे कहीं किसी मोड़ पर इक आस है
उम्मीद क्यूं है तेरे मिलने की मालूम नहीं
क्यूं समझ नहीं कुछ आता है मालूम नहीं।।

Friday, April 24, 2020

फ़िल्म #मसान की समीक्षा

फ़िल्म #मसान की समीक्षा

आपमें से ज़्यादातर लोगों ने मसान फ़िल्म देखी होगी। मुझे ये फ़िल्म कैसी लगी और मैंने इस फ़िल्म से क्या सीखा उसे शब्दों में पिरोने की एक छोटी सी कोशिश कर रही हूं। ये कहना अतिश्योक्ति ना होगी कि मसान जैसी फिल्में कम ही बनती हैं। नीरज घ्यवान निर्देशित #मसान ने भारतीय सिनेमा को विक्की कौशल जैसा नायाब अभिनेता दिया। दरअसल हम सबके भीतर एक मसान हैं जहां कुछ ना कुछ सुलगता रहता है, कई आरज़ू राख़ हो जाती हैं पर फिर भी कहीं कोई आस की चिंगारी उस राख के भीतर दबी रह जाती है जो नया कुछ गढ़ती है। 

यह फ़िल्म उत्तर प्रदेश के बनारस में फिल्माई गई है।  फ़िल्म में दो कहानियां एक दूसरे के पैरलल चलती है: एक देवी (ऋचा चड्ढा) की कहानी तो दूसरी दीपक यानि विक्की कौशल की कहानी। फ़िल्म की शुरुआत होती है देवी की कहानी से। देवी एक कंप्यूटर सेंटर में काम करती है वहीं उसकी मुलाक़ात पीयूष से होती है जो एक कॉलेज स्टूडेंट है, दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं और एक होटल में मिलते हैं। होटल स्टाफ को शक होता है कि देवी और पीयूष शादी शुदा नहीं है इसलिए वो पुलिस को बुलाता है। इंस्पेक्टर मिश्रा (भगवान तिवारी) पीयूष और देवी को आपत्तिजनक स्थिति में देख पीयूष को मारता पीटता है और देवी का वीडियो बना लेता है। पीयूष घबराकर खुद को बाथरूम में बंद कर लेता है और हाथ कि नस काटकर आत्महत्या कर लेता है। इंस्पेक्टर मिश्रा देवी के पिता (संजय मिश्रा) को बुलाता है उनसे मामले को रफा दफा करने के लिए तीन लाख घूंस देने को कहता है। देवी के पिता एक रिटायर्ड संस्कृति के मास्टर थे और अब जीविकोपार्जन के लिए बनारस के घाट पर ही कर्म कांड करते हैं। इतना पैसा एक साथ देना उनके लिए बड़ा मुश्किल होता है। देवी को जैसे तैसे रेलवे में नौकरी मिल जाती है। पिता बार बार बेटी को ऐसा कदम उठाने के लिए कोसते हैं। देवी पीयूष को भुला नहीं पाती और एक आत्म ग्लानि से विचलित है कि उसकी जान उसकी वजह से गई।
दूसरी कहानी है डोम राजा (विनीत कुमार) के छोटे बेटे दीपक (विक्की कौशल) और शालू गुप्ता ( श्वेता त्रिपाठी) की। विक्की को शालू से प्रेम हो जाता है। विक्की विशुद्ध इंजीनिरिंग वाला बंदा है और शालू को संगीत और शेर आे शायरी का शौक है पर बड़ी ही सादगी से वो शालू के सामने ये स्वीकार करता है कि शेर आे शायरी उसकी समझ में नहीं आते पर उसे शालू के मुंह से सुनना अच्छा लगता है। शालू कई बार उससे पूछती है कि वो कहां रहता है पर वो कभी भी उसे सही सही नहीं बताता। उसको डर है कि अगर शालू को उसकी हकीकत का पता चला कि वो और उसका परिवार शमशान पर लाशें जलाने का काम करते हैं और वो डोम है जाति से तो कहीं शालू उसे छोड़ ना दे। पर बार बार पूछने पर एक दिन वो उसे घीझकर सच्चाई बता ही देता है। इधर शालू का पूरा परिवार एक बस करके बद्री विशाल की यात्रा पर निकलते हैं। शालू दीपक से फोन पर बात करती है और कहती है वो बस जल्दी से अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ ले बाकी वो संभाल लेगी। दीपक भी शमशान की इस नर्क भरी ज़िन्दगी से निकलना चाहता है। वो पढ़ाई तैयारी ज़ोर शोर से शुरू कर देता है। दीपक गहरी नींद में था कि उसका बड़ा भाई उसे जगाता है और जल्दी शमशान घाट पहुंचने को कहता है क्यूंकि घाट पर एक साथ अचानक बहुत सी लाशें आ जाती हैं जिन्हें जलाने के लिए जगह और लोग दोनों ही कम पड़ते हैं। दीपक नींद भरी आंखों से शमशान घाट पहुंचता है और जब एक लाश को जलाने की तैयारी कर ही रहा होता है कि अचानक उस कफ़न से उस लाश का हाथ बाहर निकल जाता है। उस हाथ को देखकर जब वो लाश का चेहरा खोलता है तो उसके होश उड़ जाते हैं। किसकी थी वो लाश जिसे जलाते हुए वो ख़ुद भीतर भीतर धधक रहा था। मरघट का वो दृश्य मन को विचलित के देता है। 
गांव के लड़के को जब पहली बार इश्क़ होता है तो उसे कैसा लगता है, दोस्तों की चुहलबाज़ी से वो कैसे शर्माता है, दबे स्वर में वो अपनी प्रेमिका से कैसे अपने प्रेम का इज़हार करता है, पहली बार जब वो उसे स्पर्श करता है तो कैसा महसूस करता है हर हाव भाव को विक्की कौशल ने बड़ी कुशलता से निभाया है, श्वेता त्रिपाठी का किरदार भी प्रभावशाली है। उत्तरप्रदेश के बनारस की एक शरमाई सकुचाई इश्क़ की गिरफ्त में क़ैद प्रेमिका के किरदार के साथ श्वेता ने भी न्याय किया है। ऋचा का अभिनय अच्छा है पर उनके भीतर वो बनारस की लड़की नहीं दिखाई देती। डोम राजा के किरदार में विनीत कुमार ने जान डाल दी है, उनकी आंखें, उनके संवाद, उनके हाव भाव ज़बरदस्त हैं। विनीत कुमार जी ने बताया था कि डोम राजा के किरदार को निभाने से पहले वो बनारस के डोम लोगों के बीच 8-10 जाकर रहे थे ताकि उनके हाव भाव, उठने बैठने के तरीके को आत्मसात कर सकें और उनकी वो मेहनत इस फ़िल्म में रंग लाई। संजय मिश्रा भी एक उम्दा कलाकार हैं। एक बेबस बाप की बेबसी को बहुत अच्छे ढंग से निभाया है संजय मिश्रा ने। फ़िल्म का एक डायलॉग मुझे भीतर तक छू गया: संगम में लोग दो ही बार आते हैं एक बार किसी अपने के साथ और दूसरी बार अकेले। जी हां ये वही संगम है जहां एक बार एक आत्म का दूसरी आत्मा से संगम होता है तो दूसरी बार उस आत्मा का परमात्मा से संगम होता है। अंतहीन दुखों की दास्तां बयां करती अदभुत फ़िल्म है। नहीं देखी तो एक बार ज़रूर देखिए इस फिल्म को।

Wednesday, April 22, 2020

फ़िल्म #Irumugan की समीक्षा

फ़िल्म #Irumugan  की #समीक्षा

मिशन #Sensiblecinema के तहत आज (22/04/2020) चियान विक्रम और नयनतारा अभिनीत फ़िल्म #Irumugan देखी जिसे निर्देशित किया है आनंद शंकर ने जिन्होंने विजय देवेरकोंदा अभिनीत #NOTA  भी डायरेक्ट की है। इरू मुगन तमिल भाषी साइंस फिक्शन ऐक्शन फ़िल्म है जो 2016 में रिलीज़ हुई थी। साइंस और तकनीक की नित नई उपलब्धियां अगर सुरक्षित, सजग, दूरदर्शी और संवेदनशील हाथों में हों और मानव जाति के कल्याण के लिए उपयोग में लाई जाएं तो फायदेमंद साबित होंगी पर अगर उनका उपयोग स्वार्थ के वशीभूत होकर किया जाए तो समुची मानव सभ्यता के लिए खतरा पैदा हो सकता है। 
इस फ़िल्म में लव नाम का क्रिमिनल साइंटिस्ट होता है जो गैरकानूनी ढंग से स्पीड ड्रग को इन्हेलर के ज़रिए आतंकियों तक पहुंचाने की कोशिश करता है पर रॉ एजेंट विनोद (चियान विक्रम) उसके मंसूबों पर पानी फेर देता है, उसके सभी ठिकानों को सरकार ध्वस्त कर देती है पर इस मिशन को पूरा करने के दौरान वो अपनी वाइफ मीरा (नयनतारा) को खो बैठता है और उसकी वजह से अपना आपा खो दो लोगों को मार देता है जिसके कारण विनोद को रॉ से चार सालों के लिए बर्खास्त कर दिया जाता है पर रॉ को पता चलता है कि जिस लव को चार साल पहले विनोद ने मारा था वो लव था ही नहीं। रॉ फिर से विनोद को अप्रोच करता है, उसे उसकी माया के क़ातिल से बदला लेने के लिए उकसाता है। विनोद तैयार हो जाता है और इस केस में रॉ की जूनियर एजेंट आरुषि (नित्या मेनन) विनोद के साथ मलेशिया जाती है। विनोद वहां माया को लव के साथ काम करता देख हैरान रह जाता है। लव उसे पूरी कहानी बताता है कि किस तरह माया उस दिन मरी नहीं थी, कुछ आदिवासियों ने उसकी जान बचाई पर वो अपनी यादाष्त खो बैठी। लव माया को आजमाने के लिए उसे विनोद को शूट करने को कहती है और वो बिना माथे पर शिकन लाए गोली चलाती है तो लव को यकीन हो जाता है कि वो उसकी साइड है। माया की यादाश्त कैसे वापस आती है, इस मिशन में कौन कौन अपनी जान गंवाता है, लव किस तरह अपने लिए काम करने वाले आदमियों पर कंट्रोल रखता है, स्पीड ड्रग लेते ही कोई शक्तिशाली कैसे बन जाता है, विनोद लव को कैसे मारता है इन सभी सवालों का जवाब फ़िल्म देखते हुए एक एक कर क्लियर होते जाएंगे। 
फ़िल्म का ट्रीटमेंट ज़बरदस्त है। साइंस फिक्शन होते हुए भी पूरी फ़िल्म कहीं इलॉजिकल नहीं लगती, इस फिल्म में विक्रम का डबल रोल है। विक्रम ही इस फ़िल्म के नायक और खलनायक दोनों हैं। लव के ट्रांसजेंडर वाले किरदार को विक्रम ने बख़ूबी निभाया है। रॉ के एजेंट विनोद के किरदार के साथ भी उन्होंने न्याय किया है। चाहे स्टंट्स हो, फाइट सीन या फिर इमोशनल सीन हर इमोशन को विक्रम ने एक सधे हुए कलाकार की तरह निभाया है। नयनतारा की भी ऐक्टिंग, उनकी बॉडी लैंग्वेज एक रॉ एजेंट जैसी मालूम होती है, एकदम बैलेंसड। बैकग्राउंड स्कोर फ़िल्म को और अपीलिंग बनाता है। यकीनन विक्रम को ऐक्ट करते देखना किसी ट्रीट से कम नहीं। इरु मूगन का अर्थ है दोहरा चेहरा, इस फिल्म में भी विक्रम के दो चेहरे हैं एक नायक का और दूसरा खलनायक का।

Sunday, April 19, 2020

फ़िल्म #NOTA की समीक्षा

फ़िल्म #NOTA  की समीक्षा 

मिशन #Sensiblecinema के तहत अभी अभी ( 19/04/2020) #Vijaydeverkonda  अभिनीत तमिल पॉलिटिकल थ्रिलर मूवी #NOTA देखी। फ़िल्म को निर्देशित किया है आनंद शंकर ने। इस फ़िल्म में वरुण के किरदार में हैं (विजय देवरकोंडा), वरुण के पिता विनोदन सुब्रमण्यम का किरदार निभाया है नसर ने और वरुण के पॉलिटिकल गुरु महेंद्रन की भूमिका में हैं सत्यराज। ये फ़िल्म हमें कई सशक्त संदेश देती है जैसे: राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता, पद, पैसा, पॉवर कोई भी अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता, राजनीति में कई तरह के जोड़ तोड़ चलते हैं और उसमें कदम रखने वाले को सभी दांव पेंच आने चाहिए लेकिन फिर भी अगर नियत और इरादे नेक हो अच्छे लोगों का समर्थन ज़रूर मिलता है और गलत करने वाले भी भीतर ही भीतर आपसे खौफ खाते हैं।
ये कहानी है उस युवा वरुण की जो अपने दोस्तों के साथ अपना जन्मदिन मना रहा होता है और तभी अचानक से उसे रात आे रात तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बना दिया जाता है। दरअसल वरुण तमिलनाडु के ही मुख्यमंत्री का बेटा होता है जो अमेरिका में गेम मेकिंग कंपनी में काम करता है और कुछ दिनों के लिए भारत आया है। उसके पिता को धोखाधड़ी के आरोप में अपने पद से इस्तीफा देना पड़ता है और वो एक साधू के आदेशानुसार तय करते हैं कि उनका बेटा उनकी जगह अगला सीएम बनेगा। वरुण को पॉलिटिक्स का ए बी सी भी नहीं आता। उसके पिता कहते हैं उसे सिर्फ कुछ दिनों तक ही ऐसा करना है और पार्टी के सीनियर लीडर्स उसको गाइड करेंगे। वरुण के पिता पर आरोप साबित हो जाने के कारण उन्हें जेल हो जाती है और इधर पार्टी के कार्यकर्ता अपने लीडर को जेल हो जाने से बौखला उठते हैं और राज्य में अफरा तफरी का माहौल बन जाता है, आगजनी की घटना में एक मां को अपनी बच्ची गंवानी पड़ती है। वरुण पुलिस अधिकारियों को आदेश देता है कि दोषी को सज़ा दी जाए अगर पार्टी के कार्यकर्ताओं को विरोध ज़ाहिर करना है तो वो घर या पार्टी ऑफिस में मौन होकर विरोध करें जबकि वरुण के पिता चाहते हैं कि हिंसक विरोध हो ताकि सरकार पर उन्हें छोड़ने का दबाव बने पर वरुण ऐसा नहीं होने देता। राज्य की जनता को उसका फैसला अच्छा लगता है वो अपने नए सीएम की तारीफ करती है। इधर विपक्ष दल वाले भी वरुण के लिए कई मुश्किलें खड़ी करते हैं जिसमें वरुण के गुरु महेंद्रं उसका साथ देते हैं। वरुण के पिता को बेल मिल जाती है पर रास्ते में ड्रोन एक्सप्लोजन से उन पर जान लेवा हमला होता है और वो कोमा में चले जाते हैं। वरुण दुविधा में पड़ जाता है कि अब वो क्या करे? उसके गुरु माहेंद्रं उसे समझाते हैं कि उसे मिड टर्म इलेक्शन लड़ना चाहिए पर ये ध्यान रखते हुए कि राजनीति वो गेम है जहां असली खून बहता है, दुश्मन कभी भी कहीं भी घात लगाए बैठा मिल सकता है इसलिए उसे हर समय चौकन्ना रहना होगा। वो जब मिड टर्म इलेक्शन लड़ने के लिए कैम्पेनिंग के लिए निकलता है तो उसकी सौतेली बहन का फोन आता है कि उसके पापा के शरीर में हरकत हुई है, उन्हें शायद होश आ रहा है। वरुण ये बात उसे किसी और को नहीं बताने के लिए कहता है ताकि वोटर्स के मन में उसके पिता को लेकर सांत्वना का भाव बना रहे। उधर उसके पिता को जब ये पता चलता है कि उनका बेटा वरुण इलेक्शन जीत गया तो उन्हें झटका लगता है क्यूंकि वो अपने हाथों से सत्ता जाने नहीं देना चाहते थे। वो वरुण से तो उसकी तारीफ करते हैं पर पार्टी के दूसरे लीडर को बुलाकर वरुण के खिलाफ एमएलए द्वारा वोट ऑफ नो कॉन्फिडेंस के ज़रिए वरुण को सीएम पद से हटाने के लिए कहते हैं। इधर वरुण को पता चलता है कि उसके पिता की 100 मिलियन की संपत्ति दूसरे देश में जमा है वो अपने एक हैकर दोस्त की मदद से उस संपत्ति को वापस लाने का प्रयास करता है। इधर वरुण को पकड़ने का आदेश होता है, महेंद्र की बेटी पर कोई जान लेवा हमला करता है। विदेश के बैंकों में जमा बेनामी संपत्ति से और किस किस के तार जुड़े हैं, वरुण के पिता पर हमला किसने कराया, क्या वरुण वापस सीएम बन पाता है, महेन्द्र क्यूं और किसके कहने पर हर वक़्त ढाल बनकर वरुण के साथ खड़े होते हैं और वरुण के पिता को महेन्द्र से नफ़रत क्यूं हैं इन सारे सवालों के जवाब आपको फ़िल्म देखने पर मिल जाएंगे। 
फ़िल्म का कॉन्सेप्ट बहुत सटीक है, साथ ही विजय, नसर और सत्यराज तीनों का अभिनय भी ज़बरदस्त है। घाघ पॉलिटीशियन के रोल के साथ नसर ने न्याय किया है। बैकग्राउंड स्कोर, पॉलिटिकल ट्विस्ट फ़िल्म के साथ हमें बांध कर रखता है। अगर ये फ़िल्म आपने नहीं देखी तो राजनीतिक रूप से सजग होने के लिए, राजनीति में होने वाले जोड़ तोड़ को समझने के लिए आपको ये फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। एक काम कीजिए अभी ही इसे अपनी व्यू लिस्ट में ऐड ऑन कीजिए।

फ़िल्म #Trapped की समीक्षा

फ़िल्म #Trapped की  समीक्षा

मिशन #SensibleCinema के तहत आज (19/04/2020) राजकुमार राव अभिनीत फ़िल्म #Trapped देखी। इस फ़िल्म को डायरेक्ट किया है विक्रमादित्य मोटवाने ने जिन्होंने देव डी, उड़ान, दे दना दन गोल और अनुराग कश्यप के साथ सैक्रेड गेम्स डायरेक्ट की थी। ये फ़िल्म इंस्पायर्ड है फ़िल्म 127 ऑवर्स से।बहुत ही छोटे बजट (5 करोड़) में बनी ये एक उम्दा फ़िल्म है जिसे काफी सराहना भी मिली पर अफसोस फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर चल नहीं पाई। ये सब देखकर दुःख होता है कि बे सिर पैर वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई करती हैं पर सेंसिबल फिल्में दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पातीं। हम बतौर एक दर्शक कब सिक्स पैक एब्स, विदेशी शूटिंग लोकेशन, फ़िल्म में कभी भी कहीं भी अचानक से टपक पड़ने वालेआइटम सॉन्ग्स, ओवर एक्सपोज्ड बॉडी, हीरो मतलब सुपर मैन जैसी चीज़ों से बाहर आकर अच्छे सिनेमा को देखना शुरू करेंगे? 
फ़िल्म #Trapped  कहानी है बूंद बूंद रिस्ती उम्मीदों को बचाने की। ज़िन्दगी को बचाने के लिए उम्मीद और नाउमीद के बीच झूलते शौर्य (राजकुमार राव) के अथक प्रयासों की। रोज़ इस आस में उठने की कि शायद आज कोई आकर ज़िन्दगी के दरवाज़े खोल दे पर अफसोस हर संभव कोशिश करने के बावजूद नाउम्मीदी के काले बादल उम्मीद की नन्ही किरण को निगल लेना चाहता है, त्रास से आस को बचाने के जद्दोजेहद की कहानी है #Trapped. फ़िल्म की कहानी कुछ इस कदर है कि शौर्य (राजकुमार राव) एक मध्यमवर्गीय परिवार से है जो शहर में एक अदद नौकरी करता है उसे अपने ऑफिस में ही काम करने वाली नूरी (गीतांजलि थापा)से प्रेम हो जाता है पर नूरी की दो महीने बाद शादी है। वो नूरी से खुद शादी करने के लिए कहता है और उसके लिए एक इंडिपेंडेंट फ्लैट की तलाश करता है। शौर्य का जो बजट है उतने कम के कोई फ्लैट रेंट पर देने के लिए तैयार नहीं होता। जब वो फ्लैट के लिए एक ब्रोकर से बात कर रहा होता है तब एक लड़का उसकी बात सुन रहा था। वो जैसे ही बाहर निकलता है वो लड़का कहता है कि वो उसे उसके है बजट में पास की ही एक मल्टी में फर्निश्ड फ्लैट दिला सकता है। शौर्य उसके साथ फ्लैट देखने जाता है, उसके यह पूछने पर कि कोई उस मल्टी में रहता क्यूं नहीं, वो कहता है कि कुछ लीगल इश्यूज़ हैं पर नीचे चौकीदार है। शौर्य बार बार उससे पूछता है कोई प्राब्लम तो नहीं होगी, वो कहता है नहीं, और अगर होगी तो वो सब सॉल्व कर देगा। शौर्य फ्लैट में शिफ्ट हो जाता है और इस उम्मीद में जैसे तैसे रात काट लेता है कि कल से तो उसकी नूरी भी होगी उसके साथ। दूसरे दिन जब वो उठता है तो ना बिजली, ना पानी कुछ भी नहीं मिलता उसे फ्लैट में। वो जल्दी जल्दी में फोन रूम पर ही छोड़ कर नूरी को लाने के लिए दरवाज़ा लॉक कर रहा होता है कि अचानक फोन की याद आती है उसे। वो दरवाज़े पर ही चाबी लगी छोड़ फोन लेने कमरे में आता है और बाहर से दरवाज़ा लॉक हो जाता है। इधर फोन की बैटरी भी चली जाती है। उस गगनचुंबी इमारत में बहुत ऊंचाई पर था उसका फ्लैट, रूम पर ना बिजली है, ना पानी है और खाने के नाम पर महज़ बिस्कट का एक पैकेट होता है। वो वॉचमैन को खूब आवाज़ लगाता है, पैन बजाता है, हेल्प हेल्प चिल्लाते चिल्लाते उसका गला बैठ जाता है पर कोई उसकी मदद के लिए नहीं आता। किसी का भी ध्यान उस पर नहीं जाता। वो इस फ्लैट में #Trapped  है। वो किस किस तरह से मदद की गुहार लगाता है, कितने दिनों तक उस फ्लैट में कैद रहता है, कोई उसकी मदद के लिए आता है या नहीं, वो वहां से कैसे निकलता है उस पूरे संघर्ष को फ़िल्म में बख़ूबी दिखाया गया है। बिना डायलॉग प्रभावी ढंग से अभिनय की ज़बरदस्त बारीकियों को राजकुमार राव ने बख़ूबी निभाया है। एक कमरे में कैद ज़िन्दगी की बेबसी को राव ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है। उनकी बेबसी और बीच बीच में उम्मीद की लौ जलती देख बच्चाें की सी खुशी को आप महसूस कर सकते हैं। तिल तिल मरती उम्मीद इस कदर आपको बेचैन कर देगी कि हर वक़्त आप ईश्वर से उसकी मदद के लिए किसी के आने की प्रार्थना करने से खुद को रोक नहीं पाएंगे। उम्दा अदाकारी के लिए राव को साधुवाद, साथ ही इस फ़िल्म के डायरेक्टर विक्रमादित्य को भी बधाई लीक से अलग फिल्म बनाने का रिस्क उठाने के लिए। अगर ये फ़िल्म नहीं देखी तो इसे अपनी व्यू लिस्ट में शामिल कर सकते हैं।

Saturday, April 18, 2020

फ़िल्म "गीता गोविंद" की समीक्षा

फ़िल्म "गीता गोविंद" की समीक्षा

मिशन #Sensiblecinema के तहत आज (18/04/2020) परशुराम निर्देशित "गीता गोविंद" फिल्म देखी जो कि एक रोमांटिक कॉमेडी स्टोरी है जिसमें मुख्य किरदार निभाया है विजय देवेरकोंडा और रश्मिका मङन्ना ने। ये जोड़ी "डियर कॉमरेड" सहित कई फ़िल्मों में एक साथ नज़र आयी है। रश्मिका और विजय की केमिस्ट्री लाजवाब है। विजय रोमांटिक किरदार में जंचते है। 
फ़िल्म की कहानी कुछ इस कदर है कि विजय एक लेक्चरार है और उसे गीता से मंदिर में पहली नज़र में प्यार हो जाता है। इतेफाक से जिस बस में वो अपने गांव जा रहा होता है उसी बस में गीता भी सवार होती है और उसकी सीट भी विजय के बगल वाली ही होती है। विजय की खुशी का ठिकाना नहीं होता पर बस में सोयी हुई गीता के साथ सेल्फी लेने के चक्कर में विजय के साथ जो होता है उसकी वजह से उसे बस से बीच रास्ते में ही कूदना पड़ता है। बस में विजय से हुई उस गैर इरादतन गलती की वजह से गीता उसे आवारा लड़का समझती है और रोते हुए सारी घटना अपने भाई को बताती है। उसका भाई पागलों की तरह उसकी तलाश करता है। इतेफाक़ तो देखिए विजय की बहन से ही गीता के भाई की शादी तय होती है। गीता को अपने घर देखकर विजय के होश उड़ जाते हैं। लगभग आधी फ़िल्म में विजय गीता से गुज़ारिश करता रहता है कि वो अपने भाई को ना बताए की बस वाला लड़का वो ही है। वो लड़की जो विजय को एक नम्बर का आवारा लड़का समझती है, उसकी सोच विजय को लेकर कैसे बदलती है, क्या गीता को भी विजय से मोहब्बत हो जाती है, उनकी ज़िंदगी में क्या ट्विस्ट आता है, जिस लड़की से शादी करने के विजय दिन रात सपने देखा करता है आखिर वो उसी से शादी करने से इंकार क्यूं कर देता है जानने के लिए आप यूट्यूब पर ये फ़िल्म हिंदी डब वर्ज़न में देख सकते हैं।
इस फ़िल्म की कहानी बहुत ही साधारण है, कहानी के किरदार अपने आसपास के ही जान पड़ते हैं। सिचुएशनल कॉमेडी अच्छा खासा गुदगुदाती है। विजय का बार बार गीता को मैडम मैडम बोलना आपको लंबे समय तक याद रह जाएगा।

फ़िल्म "महर्षि" की समीक्षा

फ़िल्म "महर्षि" की समीक्षा

तेलुगू सिनेमा के सुपर स्टार महेश बाबू अभिनीत फ़िल्म "महर्षि" डायरेक्शन, ऐक्शन, ऐक्टिंग, स्टोरी लाइन, म्यूज़िक, समाज को दिए जाने वाले सशक्त संदेश, हर दृष्टि से एक अविस्मरणीय फ़िल्म है। आज ((17/04/2020) मिशन #SensibleCinema के तहत वामशी पैडिपैली द्वारा निर्देशित "महर्षि" फ़िल्म सजेस्ट करने के लिए छोटे भाई चंदन का दिल से आभार। पहले तो फ़िल्म का नाम "महर्षि" सुनकर लगा किसी साधु संत पर आधारित फ़िल्म होगी। सच कहूं तो नाम सुनकर इस फ़िल्म को देखने के लिए बहुत उत्सुक नहीं थी पर क्यूंकि चंदन ने सजेस्ट की थी तो यकीन था फ़िल्म में कुछ तो ख़ास होगा क्यूंकि वो ख़ुद बहुत #SensibleCinema देखता है, शुक्रिया भाई फ़िल्म ज़बरदस्त थी।  दूसरा कारण ये भी था कि आज साउथ के ही उम्दा  #ActorVikram का जन्मदिन था तो सोचा था उनकी कोई फ़िल्म देखूं क्यूंकि विक्रम के अभिनय का लोहा मैं #pithamagan  फ़िल्म से मान गई थी जिसमें वो पूरी फ़िल्म में एक भी डायलॉग नहीं बोलते पर अपने अभिनय की ऐसी छाप छोड़ते हैं जिसे भुलाया नहीं जा सकता। खैर वापस फ़िल्म "महर्षि" पर आते हैं। ये फ़िल्म अमेजॉन प्राइम पर आपको मिल जाएगी। 
महर्षि" कहानी है उस ऋषी (महेश बाबू)  की जो अपनी किस्मत अपनी मेहनत के दम पर खुद लिखता है। जब उसके इंस्टीट्यूट में बड़ी बड़ी कंपनियां सभी स्टूडेंट्स को जॉब ऑफर कर रही थीं तो ऋषी उन कंपनियों से ऑफर लेटर लेने के बजाए एक नए प्रोजेक्ट के लिए ख़ुद उन्हें ऑफर देता है, विजनरी होने के कारण वो एक बड़ी अमेरिकन कंपनी का सीईओ बन जाता है पर उसकी उसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, उसका सबसे अच्छा दोस्त और उससे बेइंतहां मोहब्बत करने वाली पूजा को भी वो पीछे छोड़ आता है। अपने गोल को हासिल करने का जुनून ऋषी पर इस कदर हावी रहता है कि उसे अपनी मोहब्बत दिल पर बोझ लगने लगती है। उसने करियर में वो मुकाम हासिल कर लिया था जिसकी उसे चाहत थी पर तभी कहानी में ट्विस्ट आता है और वहां से उसकी पूरी ज़िन्दगी और जीवन जीने का नज़रिया ही बदल जाता है। उसकी सेक्रेटरी ने ऋषी के लिए एक सरप्राइज पार्टी प्लान की होती है जिसमें उसके सभी बैचमेट्स और उसके फेवरेट टीचर को वो इन्वाइट करती है पर उस गैदरिंग में ऋषी का प्यारा दोस्त और उसका रूम पार्टनर रवि नहीं दिखता। ऋषी अपने सर से रवि के बारे में पूछता है, पहले तो वो नजरअंदाज करते हैं पर फिर बार बार ऋषी के आग्रह करने पर बताते हैं कि रवि को इंस्टीट्यूट से रस्टीकेट कर दिया गया क्यूंकि रवि ने ऋषी पर लगे पेपर चोरी के इल्ज़ाम को अपने सर ले लिया था ताकि ऋषी आगे बढ़ सके। ऋषी को यह सुनकर आत्मग्लानि होती है और वो रवि को अपने साथ ले जाने अमेरिका से भारत आता है पर रवि अपने माता पिता के घर गांव को छोड़कर अमेरिका जाने से मना कर देता है और वो अपने गांव को बड़ी कॉरपोरेट कंपनी के चंगुल से बचाने के लिए अकेले धरने पर बैठा रहता है।। ऋषी भी ज़िद में अपनी कंपनी का इंडिया में ऑफिस उसी गांव में खोल लेता है। कहानी फिर एक नया मोड़ लेती है। एक बड़ी कंपनी कई गांव की ज़मीन हथियाकर वहां कोई प्रोजेक्ट शुरू करना चाहती है और उन्हीं गांवों में से एक रवि का गांव भी होता है। खूब राजनीति होती है, रवि पर हमला भी होता है, इस बीच ऋषी को किसानों के दर्द का एहसास होता है, वो खुद खेती में जुट जाता है, दूसरों को भी प्रेरित करता है, शहर के युवा भी वीकेंड पर इस खेती  के मिशन से जुड़ जाते हैं। ऋषी अपनी कमाई का नब्बे प्रतिशत किसानों की भलाई के लिए से देता है, प्रदेश के मुख्यमंत्री को भी चालीस वर्षों बाद एक किसान का बेटा होने पर गर्व होता है। अंत में ऋषी एक संत की तरह बंजर ज़मीन पर हरे भरे खेत लहलहाते और लोगों के दिलों में फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटने का संदेश दे जाता है। एक सच्चे संत की तरह वह लोगों के चेहरे पर खुशी लाया। यकीनन असली तरक्की महज़ खुद आगे बढ़ना ही नहीं बल्कि औरों को भी साथ लेकर चलना है। महर्षि वही है जो लोगों में खुशियां बाटे। इस फिल्म में कई बेहतरीन डायलॉग्स हैं पर मुझे तीन डायलॉग्स बहुत ही अच्छे लगे:"सक्सेज इस नॉट ए डेस्टिनेशन, इट इज़ ए जर्नी और दूसरा " सक्सेज हैज़ नो डेफिनिशन, व्हेन यू बिकम सक्सेसफुल, दैट बिकम डेफिनिशन ऑफ इट। " तीसरा जब सीएम ऋषी कुमार से कहते हैं कि "लोग सोचते हैं असली पॉवर नेताओं के पास है पर ऐसा नहीं है देश को चलाते हैं बड़े बड़े कॉरपोरेट्स, असली ताकत उनके पास है, हमारे पास नहीं।
महेश बाबू ने इमोशनल, रोमांटिक, एंग्री यंग मैन हर किरदार को बख़ूबी निभाया है। इस फ़िल्म को देखकर अच्छे दोस्तों का साथ नसीब होने पर आपको अपनी किस्मत पर भी ऋषी और रवि की ही तरह नाज़ ज़रूर होगा। अच्छा दोस्त हमारी ज़िन्दगी बदल देता है। लाजवाब फिल्म है, पहली फुर्सत में ये फ़िल्म ज़रूर देखिए। आपको लगेगा आपका दिन बन गया।