Saturday, April 25, 2020

फ़िल्म #श्वास की समीक्षा

फ़िल्म #Shwaas की समीक्षा

मिशन #Sensiblecinema के तहत आज (25/04/2020) मराठी फ़िल्म #Shwaas देखी जो 2004 में ऑस्कर के लिए नामांकित हुई थी साथ ही इस फ़िल्म को 2004 का नेशनल अवॉर्ड भी मिला था। महज़ तीस लाख की लागत में तीस दिनों के भीतर बनी ये फ़िल्म भीतर से झंकझोर देती है। फ़िल्म अपने टाइटल के अनुरूप सत प्रतिशत खरी उतरती है, इस फ़िल्म को देखते हुए कई बार आपको ऐसा महसूस होगा कि सच में आपकी श्वास कहीं अटक सी गई है, आप ऑक्सीजन की ज़रूरत महसूस करेंगे। ये फ़िल्म पुणे की एक सच्ची घटना पर आधारित है। 
फ़िल्म की कहानी एक सात आठ वर्षीय बच्चे परशुराम (अश्विन चितले) के इर्दगिर्द घूमती है जिसे साफ साफ दिखाई नहीं देता और कई बार तो कोई चीज़ दो दो नज़र आती हैं। उसके आजोबा यानि दादा जी (अरुण नालावादे) उसकी आंखों की जांच कराने शहर जाते हैं तब उन्हें पता चलता है कि परशुराम को रेटिनल कैंसर है और अगर जल्द ही दोनों आंखें नहीं निकाली गईं तो कैंसर को बढ़ने से रोकना मुश्किल हो जाएगा। वो बच्चा जिसने अभी ढंग से दुनियां तक नहीं देखी, जिसकी ज़िन्दगी में अभी रंग भरने ही शुरू हुए थे कि क़िस्मत ने उन सभी रंगों को स्याह रंग में बदल देना चाहा, जो फिर कभी चांद तारे नहीं देख पाएगा, दूसरे बच्चों की तरह दौड़ भाग नहीं पाएगा, जो किसी का सहारा बनता उस नन्ही सी जान को खुद सहारे की ज़रूरत होगी ये सब सोचकर ही उसके आजोबा सिहर जाते हैं और उस बच्चे से ये बताने की हिम्मत नहीं कर पाते कि उसकी सपनीली आंखें अब कभी हसीं ख़्वाब नहीं देख देख पाएंगी। डॉक्टर साने कहते हैं बिना मरीज़ को हकीकत से रूबरू किए वो ऑपरेशन नहीं करेंगे। परशुराम के आजोबा को ये सच्चाई बतानी ही पड़ेगी और अगर उसे बचाना है तो ये फैसला जल्द से जल्द लेना होगा। उस नन्हे से बच्चे को ऑपरेशन थिएटर में जाते देखना बड़ा ही हृदय विदारक है। ऐसा लगता है ईश्वर इस बच्चे का सारा दुःख हमें दे दे और मेरे हमारे हिस्से की सारी खुशी उसके दामन में डाल दे, भगवान पर गुस्सा भी आता है कि आख़िर उस मासूम ने किसी का क्या बिगाड़ा था जिसकी इतनी बड़ी सजा उसे मिल रही है। ऑपरेशन से एक दिन पहले परशुराम बहुत ज़िद करता है, सबके ऊपर गुस्सा दिखाता है,  उसका मन बहलाने के लिए और ज़िन्दगी के कई अनदेखे रंगों से उसका परिचय कराने के लिए उसके आजोबा उसे चुपके से अस्पताल से सबकी नज़रों से बचाकर मॉल ले जाते हैं, घोड़े पे बिठाते हैं, मंदिर लेके जाते हैं, उसके उदास चेहरे पर ख़ुशी लाने की कोशिश करते हैं। इधर हॉस्पिटल में परशुराम और उसके दादा के अचानक किसी को बिना बताए गायब हो जाने से अफरातफरी मच जाती है। मीडिया और पुलिस प्रशासन तक हरकत में आ जाता है। परशुराम का मामा किसी अप्रत्याशित घटना हो जाने के डर से सिहर उठता है। डॉक्टर मिलिंद साने परेशान होते हुए अपनी कार से कहीं निकलने को होते हैं कि तभी उन्हें वो दोनों सामने से आते दिखते हैं। उस वक़्त डॉक्टर और परशुराम के दादा के बीच का संवाद बड़ा ही प्रभावशाली बन पड़ता है। पहले तो परशुराम के दादा चुपचाप डॉक्टर की बात सुनते रहते हैं पर फिर वो जो सवाल करते हैं वो डॉक्टर मिलिंद को निरुत्तर कर देते हैं साथ ही विचलित भी। पहली बार डॉक्टर होते हुए वो दिमाग़ की जगह दिल से काम लेते हैं। 
अरुण नलावादे और अश्विन चीतले का अभिनय तो उम्दा है ही, डॉक्टर के किरदार को संदीप कुलकर्णी ने भी जीवंत कर दिया है। मलयालम, बांग्ला और मराठी सिनेमा में कहानी कहने की कला बेमिसाल है। कहानी और किरदार दोनों अंत तक बांधे रखते हैं। आपको ये फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। इस फ़िल्म को सजेस्ट करने के लिए मैं अपने मित्र डॉक्टर कैलाश यादव जी का शुक्रिया अदा करना चाहूंगी।

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