Thursday, April 30, 2020

फ़िल्म #Angrezimedium की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...02)

फ़िल्म #Angrezimedium की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...02)

 मिशन #Sensiblecinema के तहत इरफ़ान खान को भाव भीनी श्रद्धांजलि स्वरूप मैंने यादों में इरफ़ान सीरीज शुरू की है, उनकी जितनी फिल्में मुझे देखने को मिलेंगी मैं यहां उनकी समीक्षा करने का प्रयास करूंगी। तो यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत आज (30/04/2020) मैंने #Angrezimedium देखी। बहुत ही उम्दा फ़िल्म है, बहुत कुछ सिखाती है हमें। जहां एक ओर इस फ़िल्म में बाप बेटी का प्यार दुलार, उनके बीच की मीठी नोक झोंक, बीच में होने वाली गलतफहमियां, एक पिता की अपनी बेटी के लिए बेपनाह मोहब्बत और परवाह वाले सीन्स और संवाद हमें भावुक करते हैं तो दूसरी ओर चंपक (इरफ़ान खान) और उसके चचेरे भाई गोपी  के बीच असीम स्नेह आखिर में आंखों को नम कर जाता है, लंदन जैसे शहर में काम की व्यस्तता और अपनी प्राइवेसी को बरकरार रखने के कारण रिश्तों की गर्माहट को भूल चुकी एक बेटी (करीना कपूर) को अपनी मां (डिंपल कपाड़िया) के क़रीब फिर से लाने के लिए इरफ़ान उर्फ चंपक का करीना को समझना, उनकी सहज सरल मगर प्रभावशाली संवाद अदायगी मन को छू जाती है।
फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि उदयपुर का मिठाई बेचने वाला चंपक (इरफ़ान खान) अपनी बेटी तारिका (राधिका मदन) को विदेश में पढ़ाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। वो अपनी बेटी के विदेश में पढ़ने के उसके सपने को हर हाल में पूरा करना चाहता है वो नहीं चाहता कि उसकी बेटी के ख़्वाब उसकी पत्नि के ख्वाबों की तरह टूट जाएं। उसकी पत्नी आगे पढ़ना चाहती थी पर उसकी लापरवाही की वजह से वो आगे बढ़ ना सकी, तारिका को जन्म देते ही वो चल बसी। चंपक ने ही तारिका को मां और बाप बनकर पाला। तारिका एक एवरेज स्टूडेंट होती है पर ट्रूफॉर्ड यूनिवर्सिटी जाने की ललक में खूब मेहनत करती है और 55 से 85 प्रतिशत लाती है पर चंपक के उसके कॉलेज में मुख्य अतिथि के रूप में पधारे न्यायाधीश को खरी खोटी सुना देने के कारण कॉलेज की प्रिंसिपल तारिका का परमिशन लेटर फाड़ देती है। चंपक तय करता है कि वो किसी भी हाल में तारू को लंदन भेजकर रहेगा बल्कि खुद उसे लेकर जाएगा पर एयरपोर्ट पर अंग्रेजी ना आने के कारण वो मुसीबत में फंस जाता है और गलतफहमी की वजह से उसका और उसके चचेरे भाई गोपी (दीपक डोबरियाल) का पासपोर्ट रद्द हो जाता है और तारु को अकेले लंदन जाना पड़ता है। इधर चंपक और गोपी दूसरे जुगाड से लंदन पहुंचने की कोशिश करते हैं तो उधर तारु को दूसरे यंगस्टर्स को ख़ुद से काम करके अपनी पढ़ाई और दूसरे खर्चे निकालते देखना उन्हें एक तरह से आत्मनिर्भर बनाने जैसा लगता है। तारु भी पार्ट टाइम जॉब करके अपने लिए रेंट पर एक कमरा लेती है। जैसे तैसे जुगाड से लंदन पहुंचे चंपक और गोपी तारु में आए कई बदलाव महसूस करते हैं। जब तारु कहती है ये स्टूडेंट रूम है आप लोग मेरे साथ नहीं रह सकते आपको दूसरा कमरा देखना होगा तो चंपक उसे भी साथ चलने को कहता है पर वो मना कर देती है, कहती है इस रूम का रेंट मैंने मेरे पैसों से दिया है जॉब करके, मैं रिस्पॉन्सिबल होने की कोशिश कर रही हूं पापा तो इरफ़ान का बड़ा ही खूबसूरत सा डायलॉग है: पता नहीं तू रिस्पॉन्सिबल हो गई है या हमें इरेस्पोंसिब्ल समझ रही है जो अपना खर्चा खुद निकलना चाहती है, तेरा पापा अभी जिंदा है, तेरा खर्च उठा सकता है।
चंपक और गोपी चचेरे भाई हैं उनके बीच उनके परदादा घसीतेरामा के नाम का बोर्ड अपनी मिठाई की दुकान पर लगाने को लेकर आए दिन नोक झोंक होती रहती है पर जब लंदन में तारु के एडमिशन के लिए रुपयों की ज़रूरत होती है तो वही गोपी उस नाम को अपने प्रतिद्वंदी को देने के लिए तैयार हो जाता है। गोपी के किरदार में दीपक डोबरियाल ने जान डाल दी है, उनका अभिनय और संवाद अदायगी इस फ़िल्म में उनके किरदार को भूलने नहीं देगी। इसी तरह टोनी का किरदार निभाने वाले पंकज त्रिपाठी भी अपने इस हटकर किए गए किरदार के लिए हमेशा याद रहेंगे। इरफ़ान राजस्थान से ही हैं इसलिए उनकी संवाद अदायगी और प्रभावशाली बन पड़ी है। 
एक साथ बहुत सारे मैसेज देती ये फ़िल्म लाजवाब है। इस बेहतरीन फ़िल्म का निर्देशन करने के लिए होनी अदजानिया को साधुवाद। अफसोस इस बात का है कि इतनी अच्छी फ़िल्म होने के बावजूद ये फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छा व्यापार नहीं कर पाई। मुझे लगता है हमें दो मिनट रुक कर यह आंकलन करने की जरूरत है कि आखिर हमें कैसा सिनेमा चाहिए, क्या हम सेंसिबल सिनेमा को देखना भूलते जा रहे हैं? क्यूं बेहतरीन फिल्में बॉक्स ऑफिस में चल नहीं पाती? क्या हम सेंसिबल सिनेमा को देखने और उसको बढ़ावा देने के लिए आगे आएंगे?

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