फ़िल्म #Natsamraat की समीक्षा
अपने मिशन #Sensiblecinema के तहत कल (28/04/2020) नाना पाटेकर अभिनीत मराठी फ़िल्म #Natsamraat देखी। फ़िल्म को निर्देशित किया है स्वयं एक उम्दा अभिनेता महेश मांजरेकर ने और निर्माता हैं स्वयं नाना पाटेकर। कहा जाता है कि सैराट के बाद अगर मराठी सिनेमा में जिस फ़िल्म की सबसे ज़्यादा चर्चा होती है और लंबे अरसे बाद कोई सैराट की जगह ले पाई तो वो यही फ़िल्म ही है। यह फ़िल्म बिना सबटाइटल मैंने मराठी में ही देखी और मैं ये स्पष्ट करना चाहती हूं कि मुझे मराठी भाषा नहीं आती। नीरज कुन्देर सीधी भइया आपने सही कहा था कि अगर वाचिक को छोड़ भी दिया जाए तो आंगिक, आहार्य और सात्विक के सहारे बगैर भाषा जाने भी 75% फ़िल्म समझ में आ जाती है। मैं इस फ़िल्म को जितना समझ पाई आपके साथ उन्हीं अनुभवों को साझा कर रही हूं। यह फ़िल्म दर्द भरी दास्तां है उस नट सम्राट की जिसने अपनी ज़िन्दगी के चालीस वर्ष रंगमंच को दिए, जो अपने अभिनय से रंग प्रेमियों को रुलाता, हंसाता और उद्वेलित करता रहा, जो रंगमंच के अटूट मोह से रिटायरमेंट के बाद भी नहीं निकल पाता, जिसकी आसक्ति पैसे रुपयों में नहीं रिश्ते नातों में रही पर उन्ही अपनों के बीच वो गैरों की तरह रहा और जिसे अपनों से बेहतर गैरों ने समझा और उसका साथ दिया। ख़ून के रिश्ते नाते कैसे पानी हो जाते हैं वक़्त के साथ इस कड़वी सच्चाई को इस फ़िल्म में बड़े ही शानदार तरीके से दिखाया गया है। यूं तो इस फ़िल्म के हर कलाकार ने अपने किरदार को बखूबी निभाया पर जो किरदार अब तक मेरे साथ है वो है गणपत रामचंद्र बेलवलकर (नाना पाटेकर), गणपत रामचंद्र के मित्र राम भाऊ (विक्रम गोखले) और उनकी पत्नि कावेरी (मेधा मांजरेकर) का। इस फ़िल्म को देखकर आपको एहसास हो जाएगा कि क्यूं नाना पाटेकर को ज़बरदस्त अभिनेता कहा जाता है। अभिनय की बारीकियों को समझने की दृष्टि से भी इस फ़िल्म को लाजवाब फ़िल्म कहा जा सकता है।
एक संवाद है गणपत रामचंद्र और राम भाऊ के बीच का: कृष्ण और कर्ण संवाद, ये संवाद बहुत ही शानदार है। वो सीन जिसमें गणपत रामचंद्र एक पेपर में रखकर वड़ापाव खा रहे होते हैं और जब उस पेपर में कुछ लिखा देख ज़ार ज़ार रोने लगते हैं और पाव छोड़ कहीं निकल जाते है वो सीन मन को विचलित करता है और साथ ही अजीब सी बेचैनी भी पैदा करता है पर अगले सीन में जब वो किसी जर्जर हो चुके नाट्य निकेतन पहुंचते हैं और अपने पुराने दिन याद करते हैं, कहानी फ़्लैश बैक के गलियारों से गुजरती है तो कई बार आंखें नम हो जाती हैं। मन कचोटता है कि किसी ज़माने के इतने बड़े रंगकर्मी की आज ये क्या दशा हो गई है। वो अनाथों की तरह फुटपाथ पर सोता है। इस फ़िल्म में राजा का किरदार छोटा है पर दिल को छू लेता है। राजा फुटपाथ पर रहने वाला वही लड़का है जो पहले गणपत रामचंद्र की अटैची में से दारू के लिए पैसे चुराता है फिर आत्म ग्लानि के बोझ से दबकर अपनी गलती स्वीकार करता है और गणपत रामचंद्र की देख रेख अपना बाबा मान कर करता है, उन्हें समझता है, उनको नाटकों का शौक है ये जान बूट पॉलिश कर नाटक के टिकट लाता है। उसे देख लगता है बड़े बड़े महलों में रहने वाले छोटे दिलों के मालिकों से तो फुटपाथ पर रहने वाले बड़े दिल के मालिक हैं जो जस्बात को तो समझते हैं, जो गैर होकर भी अपने से लगते हैं। गणपत रामचंद्र और राम भाऊ की दोस्ती के कई संवाद और सीन भी हमें भावुक कर देते हैं। नाना पाटेकर ने अदभुत अभिनय किया है, उनके संवाद, भाव भंगिमा दिल को छू जाते हैं। आखरी के दस मिनट में आप खुद को रोने से रोक नहीं पाएंगे। ये पहली ऐसी फ़िल्म है जिसमें नाना पाटेकर के किरदार को याद करके फ़िल्म खत्म होने के आधे घंटे बाद तक भी मैं रोती रही। यकीनन #Natsamraat एक ऐतिहासिक फ़िल्म है और ऐसी फिल्में यदा कदा ही बनती हैं।
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