Saturday, May 30, 2020

फ़िल्म #Eeballayooo की समीक्षा

आज (30/05/2020) #Sensiblecinema के तहत प्रतीक वत्स द्वारा निर्देशित फिल्म Eeb Allay Ooo का यूट्यूब पर प्रीमियर देखा। इस फ़िल्म को 2019 में मुंबई फ़िल्म फेस्टिवल में रिलीज़ किया गया था। आप सोच रहे होंगे ये कैसा नाम है, इसका अर्थ क्या है, क्या ये किसी और भाषा की फ़िल्म है, तो इन सारे सवालों का जवाब है नहीं। लगभग पौने दो घंटे की ये फ़िल्म हिंदी भाषा की ही फ़िल्म है। फ़िल्म में मुख्य किरदार अंजनी का रोल निभाया है शार्दुल भारद्वाज ने, अंजनी के जीजा के किरदार में हैं शशि भूषण और दीदी के किरदार में है नूतन सिन्हा। ये फ़िल्म कहानी है उस अंजनी की जो नौकरी कर ढेर सारा पैसा कमाने की चाह लिए अपने गांव से दिल्ली अपनी दीदी के पास आता है पर धीरे धीरे उसका एक एक सपना फूटे घड़े से पानी की तरह रिसता चला जाता है। प्रतीक वत्स की ये फ़िल्म ह्यूमर, ड्रामा और इमोशंस का परफेक्ट ब्लेंड है। ये फ़िल्म हंसाते हुए कभी भावुक कर जाती है तो कभी गरीबी में जीवन जीने को अभिशप्त लोगों की पीड़ा देख गैरबराबरी पर आधारित व्यवस्था के ख़िलाफ़ गुस्सा पैदा करती है। 
फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि अंजनी गांव से शहर एक अदद नौकरी की तलाश में दिल्ली अपनी बहन के पास आता है। अंजनी के जीजा जो ख़ुद किसी कंपनी में गार्ड की ड्यूटी करते हैं जैसे तैसे एक ठेकेदार को बोलकर अंजनी को दिल्ली के रायसिना हिल्स पर बंदर भगाने की नौकरी दिलाते हैं। महिंदर जिसकी कई पुश्ते ये काम करती चली आई हैं वो अंजनी को बंदर भगाने की ट्रेनिंग देता है। वो अंजनी को बताता है कि उसे ईईब... ऑले...ऊ ऊ ऊ की आवाज़ निकालकर बंदर को भगाना पड़ेगा। अंजनी बहुत प्रयास करता है पर महिंदर की तरह बंदरों को नहीं भगा पाता। वो नौकरी बचाने के लिए कभी लंगूरों के पोस्टर जगह जगह लगाता है तो कभी ख़ुद ही लंगूर के गेट अप में आ जाता है। इसकी खबर जब ठेकेदार को लगती है तो वो उसे नौकरी से निकालने की धमकी देता है और उसकी शिकायत उसके जीजा से भी करता है तो जीजा शशि अंजनी से कहते हैं: काहे जी काम ठीक से काहे नहीं करते हैं। अंजनी: कर ना रहे हैं। बंदर भगाना पड़ता है, आप भगाए हैं जी कभी। अंजनी लंगूरों भगाने के साथ साथ लोगों का मनोरंजन भी शुरू कर देता है और उसके विडियोज़ वायरल होने लगते हैं जिसके कारण उसकी नौकरी चली जाती है। लाख कोशिशों के बाद भी कोई काम नहीं मिलता। ये विडंबना ही है कि एक तरफ बंदरों को भागने के लिए लोग रखे जाते हैं और दूसरी तरफ उन्हीं बंदरों को हनुमान जी का अवतार मानने वाले कर्मचारी उन्हें रोज़ बुला बुलाकर खाने पीने की चीजें देते हैं और अगर बंदर भगाने वाला व्यक्ति उन्हें ऐसा करने से मना करे तो उसे नौकरी से निकलवाने की धमकी देते हैं। अंजनी उस वक़्त सकते में आ जाता है जब उसे पता चलता है कि उसका दोस्त महिंदर बंदर के हमले से मर गया। हमारे यहां इंसानों की ज़िन्दगी बहुत सस्ती है, गरीब आदमी कीड़े मकोड़े की तरह कब मर जाता है कोई नोटिस ही नहीं करता।
यह फ़िल्म कई गंभीर समस्याओं को सांकेतिक रूप से छूते हुए निकल जाती है जैसे गांवों से शहरों की ओर पलायन, शहर के संघर्ष, बस्तियों में रहने वाले लोगों की समस्या आदि। ख्वाबों के टूटने की टीस लिए अंजनी विक्षिप्त सा हो जाता है। 
अंजनी के किरदार को शार्दुल ने बख़ूबी निभाया है। नूतन सिन्हा और शशि भूषण जी का अभिनय भी ज़बरदस्त है। ये सारे किरदार हमें अपने आस पास के ही मालूम पड़ते हैं। टीम एफटीआईआई ने बहुत अच्छा काम किया है, तो एक बार पुनः सारी टीम को इस फ़िल्म के लिए साधुवाद।

फ़िल्म #हैदर की समीक्षा

फ़िल्म #Haider  की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...19)

कल रात (29/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत् फ़िल्म #हैदर देखी जिसमें मुख्य किरदार हैदर की भूमिका निभाई है शाहिद कपूर ने। इस फ़िल्म में उनके अभिनय की खूब तारीफ हुई और इसके लिए शाहिद ने स्क्रीन अवॉर्ड, आईआईएफए अवॉर्ड, फिल्म फेयर के साथ साथ अन्य ढेरों अवॉर्ड्स भी बटोरे। शाहिद के साथ साथ के के मेनन और तबू को भी बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर के लिए कई अवॉर्ड्स मिले। इस फ़िल्म ने कई नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड भी जीते साथ ही बॉक्स ऑफिस पर भी खूब धूम मचाई।  विशाल भारद्वाज की इस फ़िल्म में इरफ़ान खान ने रूहदार के किरदार में स्पेशल अपीयरेंस दी है जो यकीनन रूह को छू जाती है। 2014 में गांधी जयंती के दिन रिलीज़ हुई फ़िल्म #हैदर शांति का पैग़ाम देती है। ये एहसास कराती है कि इंतकाम और बदले की भावना से सिर्फ नफ़रत और इंतकाम ही पैदा होता है, सच्चे अर्थों में हमें इस बदले की भावना से आज़ादी चाहिए। 
मकबूल और ओमकारा के बाद फ़िल्म हैदर विशाल भारद्वाज की सेक्सपियर की रचनाओं पर आधारित तीसरी फ़िल्म है। ये कहना अतिश्योक्ति ना होगी कि सेक्सपियर के नाटक हैमलेट का अडपटेशन विशाल भारद्वाज ने जिस ढंग से भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया है और इसके ज़रिए जिस बारीकी से उन्होंने कश्मीर की समस्याओं को उठाया है वो काबिले तारीफ़ है। ये फ़िल्म ये साबित करती है कि भारद्वाज एक सजग और संवेदनशील निर्देशक हैं जिनका सामाजिक सरोकारों से भी गहरा नाता है क्यूंकि उनकी फिल्में दृष्टि निर्माण का भी कार्य करती हैं। 
फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि डॉक्टर हिलाल मीर (नरेंद्र झा) एक मिलिटेंट का ऑपरेशन करने के लिए उसे अपने घर ले आते हैं क्यूंकि उस वक़्त वो इंसान उनके लिए एक मरीज़ की भूमिका में था जिसकी ज़िन्दगी बचाना उनका धर्म था। ये बात उनके और उनकी पत्नी गज़ाला (तब्बू) के संवाद से भी उस वक़्त स्पष्ट हो जाती है जब तब्बू उनसे पूछती है: डॉक्टर साहब आप किसकी तरफ हैं तो डॉक्टर हिलाल कहते हैं: ज़िन्दगी की तरफ। ये खबर किसी मुखबिर के ज़रिए फौज तक पहुंच जाती है और सज़ा के तौर पर पहले तो डॉक्टर साहब का घर बम से उड़ा दिया जाता है और फिर उन्हें भी गायब कर दिया जाता है। डॉक्टर साहब प्रतिनिधित्व करते हैं उन तमाम कश्मीरी लोगों का जो शक की बिनाह पर फौज के द्वारा नजरबंद किए गए और गायब कर दिए गए। वो डिटेंशन सेंटर में ज़िंदा हैं या मर गए इसका उनके घर वालों को कुछ भी पता नहीं चलता, उनके हाथों में अगर कुछ होता है तो वो है सिर्फ इंतज़ार। वो कश्मीरी औरतें जिनके पतियों को फौज के आदमी पकड़ कर ले जाते हैं,  जो डिटेंशन सेंटर में डाल दिए जाते हैं उन्हें कश्मीर में "हाफ विडो" यानि आधी बेवा कहा जाता है क्यूंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वो ज़िंदा अपने घर लौट पाएगा या नहीं। कश्मीर में आए दिन फौज का क्रैक डाउन होता है और हर समय वहां रह रहे लोगों से उनका पहचान पत्र दिखाने को कहा जाता है। आम कश्मीरी अपना पहचान पत्र इस कदर पुलिस वालों को दिखाने का आदी हो गया है कि कई बार ना पूछे जाने पर भी डर के मारे वो खट से अपना पहचान पत्र दिखाने लग जाता है। इस मुद्दे को फ़िल्म में निर्देशक ने संजीदगी से उठाया है। फ़िल्म में एक सीन बड़ा ही हृदय विदारक़ है जब एक कश्मीरी अपने घर के दरवाज़े पर घंटों खड़ा रहता है तो अर्शिया (श्रद्धा कपूर) जो पेशे से पत्रकार होती है वो रुहदार से पूछती है कि आखिर वो अपने घर के भीतर क्यूं नहीं जाता तो रुहदार उस इंसान के पास जाता है और उसका पहचान पत्र देखता है तब वो अपने घर के अंदर जाता है तो रुहदार अर्शिया से कहता है कश्मीरियों को ये नई तरह की मानसिक बीमारी हो गई है, उन्हें इतनी बार अपनी पहचान बतानी पड़ती है कि अपने घर के भीतर भी बिना पहचान पत्र दिखाए जाने की उनकी हिम्मत नहीं होती। लोगों से ज़्यादा फौज से भरे कश्मीर के बारे में फ़िल्म में एक जगह कहा भी जाता है कि : कश्मीर में ऊपर ख़ुदा है तो नीचे फौज। 
हैदर (शाहिद कपूर) जो अलीगढ़ में अंग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन कर रहा होता है उसे जब अपने पिता के गायब हो जाने की खबर मिलती है तो वो सब कुछ छोड़ कर कश्मीर आ जाता है। वो सीन बहुत ही भावुक करने वाला है जहां हैदर बदहवास सा लगभग राख में तब्दील हो चुके अपने घर में अपने अब्बू जी की निशानियां तलाशता है। उनके जूते, अपना बैट, अम्मी अब्बू की आधी जली तस्वीर उसे भीतर से तोड़ देती हैं। उस वक़्त हैदर और बुरी तरह से टूट जाता है जब वो अपनी अम्मी को अपने चचा खुर्रम (के के मेनन) के साथ नाचते गाते देखता है। अब्बू के गायब हो जाने और अम्मी के बेवफ़ा होने जाने का ग़म उसे भीतर ही भीतर सालता रहता है ऐसे में उसे रुहदार (इरफ़ान खान) अपने साथ ले जाता है और बताता है कि वो और उसके अब्बू एक ही डिटेंशन सेंटर में थे जहां उन्हें खूब प्रताड़ित किया गया और हाथ पैर बांधकर उन दोनों को मरने के लिए झेलम में फेंक दिया गया था। रुहदार तो जैसे तैसे रस्सी खुल जाने से बच जाता है पर हैदर के अब्बू की मौत हो जाती है। रुहदार हैदर से कहता है कि तुम्हारे अब्बू ने तुम्हारे लिए एक पैग़ाम दिया था, उन्होंने ने कहा था कि तुम अपने चाचा खुरम से उनकी मौत और तुम्हारी मां पर फरेब डालने का बदला लेना और अपनी मां को छोड़ देना, उसका हिसाब अल्लाह करेगा। 
फ़िल्म में एक डांस ड्रामा है "बिस्मिल बिस्मिल" जिसे शाहिद ने बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से प्रस्तुत किया है, जिसे देख और सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस गाने के लिए सुखविंदर सिंह और इसे कोरिग्राफ करने के लिए इसके कोरियोग्राफर को नेशनल अवॉर्ड भी मिला है। 
आत्म ग्लानि के भाव को किरदारों के माध्यम से उकेरने में विशाल भारद्वाज सिद्ध हस्त हैं। जिस तरह से मकबूल में इरफ़ान खान और तब्बू को पंकज कपूर यानि अब्बा जी को मारने की ग्लानि होती है उसी तरह इस फ़िल्म में भी के के मेनन को अंत में अपने भाई को फरेब से मरवा देने की ग्लानि होती है और वो अपने भतीजे हैदर से मौत मांगता है पर वो भी उसे नसीब नहीं होती। 
ये फ़िल्म हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है जो ज़िन्दगी के कई सबक सिखला जाती है। वो प्रेम जिसकी इमारत फरेब की नींव पर रखी गई हो वो इमारत एक दिन खुद ब खुद धराशाई हो जाती है। एक गलती कई बार बहुत कुछ हमसे छीन लेती है। क्यूं कोई हैदर बंदूक उठाता है और कैसे कोई युवा मिलिटेंट बन जाता है इस बात को इस फ़िल्म में बड़े ही संजीदगी से दिखाया गया है। कश्मीर की सफेद चादर को खून के धब्बों से लाल ना करे कोई बस यही गुज़ारिश है मेरी।

Friday, May 29, 2020

फ़िल्म #मांझी द माउंटेन मैन की समीक्षा

फ़िल्म मांझी द माउंटेन मैन की समीक्षा 

#Sensiblecinema के तहत् आज (29/05/2020) नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत एवं केतन मेहता द्वारा निर्देशित #Manjhithemountainman देखी। 2015 में रिलीज हुई मांझी द माउंटेन मैन बिहार के गया के एक छोटे से गांव गेलूर के मजदूर दशरथ मांझी के जीवन पर आधारित फिल्म है जो बिना रुके, बिना थके लगातार 22 वर्षों तक एक पहाड़ को तोड़ते रहे ताकि उनके गांव और वजीरपुर की दूरी को कम किया जा सके और गांव वालों की ज़िन्दगी आसान बनाई जा सके। दशरथ मांझी ऐसे मिशन पर थे जिसे ना तो अंग्रेज़ पूरा कर सके और ना ही कोई सरकार उस पहाड़ को काटकर रास्ता बना पाई। इस फ़िल्म में दशरथ मांझी के किरदार के लिए #नवाज़ुद्दीन हमेशा याद किए जाएंगे। दशरथ मांझी (नवाज़ुद्दीन) की पत्नि का किरदार निभाया है राधिका आप्टे ने, उनके पिता मगरू के किरदार में हैं अशरफ उल हक़, मुखिया की भूमिका में हैं जाने माने फ़िल्म डायरेक्टर तिग्मांशु धूलिया और मुखिया के बेटे का किरदार निभाया है पंकज त्रिपाठी ने। ये कहानी है उस प्रबल प्रेम की जो अकेला ही अपनी छैनी और हथौड़े से पहाड़ को तोड़कर उम्मीदों का रास्ता आप ही बनाता है ताकि फिर कोई फगुनिया सही वक़्त पर इलाज के अभाव में दम ना तोड़े।

ये कहानी है उस दशरथ मांझी की जो अपने बाप मगरू की तरह गांव के मुखिया के यहां बेगारी नहीं करना चाहता इसलिए वो धनबाद भाग जाता है और वहां कोल माइन में काम करने लगता है पर जब उसे अपने गांव घर की याद आती है तो वो वापस आ जाता है। रास्ते में उसकी मुलाक़ात एक हंसमुख लड़की से होती है जो वही लड़की थी जिससे उसकी बचपन में शादी हुई थी पर अब लड़की का पिता अपनी बेटी को दशरथ के साथ भेजने से इंकार कर देता है। दशरथ फगुनिया को लेकर भाग जाता है। उनकी ज़िन्दगी संघर्ष भरी ज़रूर थी पर दोनों एक दूसरे के साथ ख़ुशी खुशी ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। एक दिन फगुनिया दशरथ को रोटी पानी देने पहाड़ के रास्ते खेत पर जा रही थी कि पांव फिसल जाने से वह पहाड़ से गिर जाती है और अस्पताल पहुंचते पहुंचते दम तोड़ देती है। दशरथ फगुनिया से बेइंतहां मोहब्बत करता था, उसकी मौत की वजह वो पहाड़ थी जिससे वो गिरी थी। यहीं से दशरथ और उस पहाड़ के बीच जंग शुरू होती है। वो पहाड़ से कहता है: बहुत घमंड है ना तोहरा के, बहुत अकड़ है, सब भ्रम है, सारा अकड़ हम तोड़ेंगे, जब तक तोड़ेंगे नहीं छोड़ेंगे नहीं। वो रोज़ अपनी छैनी हथौड़ा लेकर पहाड़ तोड़ने जाता है। सब उसे पागल पहाड़ तोड़वा बुलाते हैं यहां तक कि उसके पिता भी कहते हैं काहे पहाड़ से अपना माथा टकरा रहा है, पहाड़ से कौन ख़ज़ाना निकलेगा तो दशरथ कहता है रास्ता निकलेगा। दशरथ का डायलॉग शानदार, ज़बरदस्त, ज़िंदाबाद प्रतीक है उसकी ज़िंदादिली और जुनून का जो कठिन से कठिन परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेकता, हार नहीं मानता और डटा रहता है अपने अटल विश्वास के साथ। जब पत्रकार उससे कहता है कि बड़ा मुश्किल है अपना अख़बार निकालना तो दशरथ उससे पूछता है क्या अपना अख़बार निकालना पहाड़ तोड़ने से भी कठिन है तो पत्रकार निशब्द हो जाता है। दशरथ प्रगतिशील विचारधारा का है जब उसे पता चलता है कि उसकी बेटी गांव एक ही एक लड़के से प्रेम करती है और दोनों शादी करना चाहते हैं तो वो लड़के के पिता को समझाने जाता है और जब वो नहीं मानता तो कहता है: तोड़ने को तो हम कुछ भी तोड़ सकते हैं, पहाड़ भी पर बच्चों का दिल मै नहीं तोड़ना चाहता। आखिरी सीन में दशरथ पत्रकार बाबू से कहता है: हमको हर चीज के लिए भगवान के भरोसे नहीं बैठना चाहिए, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो। अपना रास्ता आप ही बनाना है।
इस फ़िल्म के ज़रिए निर्देशक ने कई और गंभीर मुद्दों को भी सांकेतिक रूप में उठाया है फिर चाहे वो छुआछूत का मुद्दा हो, ऊंची जात वालों के द्वारा गरीब मजदूरों को बंधुआ बना उनसे बेगारी कराने का मामला हो, न्याय के अभाव में बंदूक उठा नक्सली बनने का मुद्दा हो, ऊंची जात वालों द्वारा कमज़ोर वर्ग के लोगों की औरतों का शोषण करने का मामला हो या फिर दबंगो द्वारा दशरथ मांझी के नाम पर मिलने वाली ग्रांट को हड़प कर जाने का मामला।
नवाज़ुद्दीन मुजफ्फरनगर से हैं इसलिए भाषा के साथ न्याय कर पाए। पंकज त्रिपाठी ने भी खलनायक की भूमिका को बख़ूबी निभाया है। फगुनिया के किरदार को राधिका ने भी अच्छे से निभाने की कोशिश की है। डायरेक्टर ने नवाज़ुद्दीन को दशरथ मांझी जैसा लुक देने की भरपूर कोशिश की और कामयाब रहे। नवाज़ुद्दीन ने जिस आत्मीयता से इस किरदार को निभाया है वो कभी भूला नहीं जा सकता। इस फ़िल्म को हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है। घोर निराशा में फगुनिया की स्मृति दशरथ के थके हारे मन में ऊर्जा का संचार करती है। पहाड़ को चीरकर बनाया गया रास्ता दशरथ मांझी और फगुनिया के प्रेम की अमिट निशानी के रूप में हमारी स्मृतियों में रहेगा जो किसी ताजमहल से कम नहीं।

Thursday, May 28, 2020

फ़िल्म #ब्लैकमेल की समीक्षा

फ़िल्म #ब्लैकमेल की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...18) 

आज (28/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान अभिनीत एवं अभिनय देव द्वारा निर्देशित फ़िल्म #Blackmail देखी जो 2018 में रिलीज़ हुई थी। ये फ़िल्म पति पत्नि के दाम्पत्य जीवन में किसी तीसरे के आने से आ जाने वाली अनचाही मुसीबतों की कहानी है जिसमें एक झूठ को छुपाने के लिए अनगिनत झूठ के बाण चलाने के कारण पति पत्नि और वो (यहां वो महिला नहीं पुरुष है) तीनों मुश्किलों के भंवर जाल में फस जाते हैं। ये फ़िल्म हंसाते हंसाते कई सबक सिखा जाती है। फ़िल्म में इरफ़ान के अलावा हैं कीर्ति कुल्हारी, अरुणोदय सिंह, दिव्या दत्ता एवं ओमी वैद्य। 
ये फ़िल्म एक टॉयलेट पेपर बेचने वाली कंपनी में काम करने वाले देव (#इरफ़ानखान) की कहानी है जो देर रात तक ऑफिस में ही वीडियो गेम खेलता रहता है और सबसे आख़िरी में घर जाता है जबकि वो शादीशुदा है। कहने को तो देव की एक ख़ूबसूरत पत्नि है पर वो या तो टीवी देखने में बिज़ी रहती है या देव के आने से पहले ही सो जाती है। जब ऑफिस का गार्ड उससे पूछता है कि वो इतनी देर तक ऑफिस में क्यूं रहता है, उसकी तो शादी हो चुकी है तो देव एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहता है कि शादी तो गावों में होती है शहरों में तो बैंड बजता है। एक दिन अपने दोस्त के कहने पर वो गुलाब लिए घर जल्दी पहुंच जाता है रीना (#कीर्तिकुल्हारी) को सरप्राइज देने के इरादे से पर घर पहुंचकर रीना की बाहों में किसी और को देखकर ख़ुद सरप्राइज्ड हो जाता है। एक बार तो उसके मन में आता है कि वो उस इंसान का ख़ून कर दे पर आहत देव चुपचाप घर से बाहर आ जाता है। देव दोनों को सबक सिखाने के इरादे से रंजीत अरोड़ा (#अरुणोदयसिंह) को ब्लैकमेल करता है कि अगर उसने उसे एक लाख रुपए नहीं दिए तो वो रीना के पति को सब बता देगा। रंजीत अपनी पत्नि डॉली वर्मा (#दिव्यादत्ता ) से इंपोर्ट एक्सपोर्ट के बिज़नेस के नाम पर पैसे मांगता है। देव उससे अपने घर की ईएमआई, टीवी का रिचार्ज और बाकी के खर्चे का हिसाब चुकता करने की सोचता है। वो ये बात अपने दोस्त से साझा करता है, वो दोस्त उनके ही ऑफिस में काम करने वाली प्रभा से शेयर करता है और प्रभा देव को ब्लैकमेल करने लगती है। देव प्रभा को पैसे देने के लिए फिर रंजीत को ब्लैकमेल करता है अब रंजीत एनोनिमस मेल आईडी से देव की पत्नि रीना को ब्लैकमेल करता है। इस तरह वही पैसा ब्लैकमेल ब्लैकमेल खेल में इधर से उधर घूमता रहता है। इरफ़ान का कॉमिक सेंस बहुत ज़बरदस्त है। बॉक्सर पहनकर सर पर एक रिसाइकल्ड कैरी बैग में आंखों के पास छेद करके इरफ़ान प्रभा के मरने पर उसके घर से जिस तरह भागता है और लोग उसके पीछे पड़ते हैं वो सीन फुल कॉमेडी सीन है पर त्रासदीपूर्ण भी क्यूंकि अपनी पत्नि और उसके बॉयफ्रेंड को सबक सिखाने का जो तरीक़ा देव ने अख़्तियार किया था वो नित नए जोखिमों से भरा था। देव को लगा था कि वो रीना के बॉयफ्रेंड को ब्लैकमेल करके दोनों को सबक भी सिखा देगा और उस पैसे से उसका कर्ज़ा भी उतर जाएगा। पर जैसा सोचो सब कुछ वैसा कहां होता है। फ़िल्म सिचुएशनल कॉमेडी के ज़रिए कई दिल को कचोटने वाले एहसास करा जाती है। 
दिव्या दत्ता का रोल थोड़ा ही है पर उनका अभिनय लाजवाब है, अरुणोदय के अभिनय को निखरते हुए देखना एक अच्छा अनुभव रहा, ओमी वैद्य को देखकर आपको थ्री इडियट्स में उनके अभिनय की याद आ जाएगी। इरफ़ान तो अपने अभिनय से सबको चकित और मौन कर देते हैं। फ़िल्म का टाइटल ट्रैक स्टोरी को सपोर्ट करता है। अच्छी फ़िल्म है, देख सकते हैं।

Tuesday, May 26, 2020

फ़िल्म #Pataallok की समीक्षा

वेब सीरीज #Pataallok की समीक्षा 

इन दिनों वेब सीरीज #पाताललोक की खूब चर्चा है। कल रात (25/0502020) मैंने भी ये वेब सीरीज देखी। नीरज कुन्देर सीधी भइया ने भी कहा था ये फ़िल्म देखनी चाहिए। #Jaavedakhtar साहब ने भी ट्विटर पर इस सीरीज की तारीफ़ की है। इसके अलावा आलिया भट्ट, अर्जुन कपूर और रणबीर सिंह ने भी अनुष्का शर्मा को इस सीरीज के प्रोडक्शन के लिए बधाई दी और पाताल लोक की तारीफ की। इस फ़िल्म की सफलता ऐक्टर अनुष्का शर्मा के लिए इसलिए भी मायने रखती है क्यूंकि बतौर प्रोड्यूसर ये उनका पहला वेब प्रोडक्शन है। पाताल लोक अमेजॉन प्राइम वीडियो पर 15 मई, 2020 से स्ट्रीम हो रही है। नौ एपिसोड की इस थ्रिलर ड्रामा वेब सीरीज में मुख्य किरदार की भूमिका में हैं जयदीप अहलावत, नीरज काबी एवं गुल पनाग। इस वेब सीरीज का कॉन्सेप्ट तीन लोकों (स्वर्ग, धरती और नर्क या पाताल लोक) पर आधारित है। हाथी राम चौधरी (जयदीप अहलावत) फ़िल्म में एक जगह अपने जूनियर पुलिस वाले से कहता है, दिल्ली के थानों को एरिया वाइज स्वर्ग, धरती और पाताल लोक में बांटा जा सकता है। स्वर्ग लोक में आते है पॉश और वीआईपी दिल्ली के इलाके वाले थाने, धरती लोक में शाहदरा, महरौली के इलाके वाले थाने और जमुना पार वाले थाने हुए पाताल लोक के थाने जहां रहते हैं कीड़े मकौड़े। रियलिज्म के नक्शे कदम पर आधारित इस वेब सीरीज का हीरो (जयदीप अहलावत)हमें अपना सा लगता है, बड़ा ही नेचुरल बिना किसी सुपर पॉवर के जो धूर्त और फरेबी लोगों तथा अपराधियों के मुंह ना खोलने पर ताबड़तोड़ गालियां भी देता है। फ़िल्म का विलेन जिसे सब हथौड़ा त्यागी (अभिषेक बैनर्जी) के नाम से पहचानते हैं जब हमें उसकी असली कहानी का पता चलता है तो दिल नहीं करता कि उससे नफ़रत की जाए। हथौड़ा त्यागी यानि विशाल एक अच्छा स्पोर्ट्स मैन बन सकता था पर हालात ने उसे अपराधी बना दिया। इस सीरीज में अभिषेक बैनर्जी ने अपने अभिनय से सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। फ़िल्म में अभिषेक के गिने चुने डायलॉग हैं फिर भी वो अपने हावभाव से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खीचने में सफल हुए हैं। फ़िल्म में फ़्लैश बैक तकनीक का बेहतर उपयोग किया गया है। हालाकि कहानी आधे में समझ में आ जाती है लेकिन फ़्लैश बैक तकनीक के ज़रिए जिस तरह से पुलिस की गिरफ्त में आए चारो लोगों की कहानी बताई गई है वो दिलचस्प है।
फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि चार लोग एक जाने माने न्यूज एंकर संजीव मेहरा (नीरज काबी) को मारना चाहते हैं पर अपने मिशन में कामयाब नही हो पाते और पुलिस की गिरफ्त में आ जाते हैं। पुलिस के पास से ये केस सीबीआई के पास चला जाता है और सीबीआई इस केस को एक नया रंग दे देती है। सीबीआई कहती है कि कोई अंतरराष्ट्रीय गैंग संजीव मेहरा को मारना चाहता है ताकि देश में अस्थिरता का माहौल बने। पर इस केस की सच्चाई कुछ और थी और कई लीड्स के ज़रिए हाथी राम उस सच्चाई तक पहुंचने वाला ही होता है कि उसे सस्पेंड कर दिया जाता है। सस्पेंड होने के बावजूद हाथी राम चौधरी हार नहीं मानता और केस को अपने स्तर पर सुलझाने की कोशिश करता है जिसमें उसका जूनियर इमरान उसकी काफी मदद करता है। वो केस की तह तक पहुंच जाता है और उसकी एवज में मुंह बंद रखने के लिए उसका सस्पेंशन ख़त्म कर दिया जाता है। फ़िल्म में कई किरदारों की कहानियां एक साथ चल रही होती हैं। चीनी के बचपन की कहानी जब उसका दोस्त हाथी राम को बताता है तो उन दृश्यों को देखकर मीरा नैयर की फ़िल्म सलाम बॉम्बे के स्ट्रीट चिल्ड्रेन की संघर्ष भरी ज़िन्दगी की याद आ जाती है और मन सिहर उठता है। हथौड़ा उर्फ विशाल त्यागी की कहानी बुंदेलखंड ले जाती है। अपनी बहनों का बदला लेने के लिए विशाल स्कूल में तीन लड़कों की हथौड़ा मारकर हत्या कर देता है। बुंदेलखंड का दुनलिया गूजर विशाल को पुलिस से बचाकर उसे अपने यहां पनाह देता है जिसका कर्ज़ वो मरते दम तक चुकाता है और उसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहता है। सारे मर्डर विशाल ने दुनलिया उर्फ़ मास्टर जी के कहने पर किए थे पर न्यूज़ एंकर संजीव मेहरा को मारते वक़्त उसके हाथ क्यूं ठिठक जाते हैं जानने के लिए इस वेब सीरीज को देखिएगा। बुन्देली भाषा कहीं कहीं अवधी के साथ मिलकर खिचड़ी हो गई है जो सिर्फ बुन्देली क्षेत्र से वास्ता रखने वालों को ज़रूर  महसूस होगी। नीरज काबी का रोल भी काबिले तारीफ है। चोर चोर मौसेरे भाई की कहावत को चरितार्थ करती यह फ़िल्म सत्ता और अपराधियों के गठजोड़ को बख़ूबी दिखाती है। कुछ डायलॉग्स बहुत उम्दा हैं जैसे : जिसे मैंने मुसलमान तक ना बनने दिया उसे आप लोगों बने जिहादी बना दिया, हमरी आंख में नागिन को मेमोरी है रे जो फोटो देख लेते हैं दिमाग में कैद हो जाता है, शास्त्रों में लिखा है पर मैने व्हाट्सएप पर पढ़ा था आदि। इस सीरीज को आप अपनी व्यू लिस्ट में शामिल कर सकते हैं।

Saturday, May 23, 2020

फ़िल्म #Amightyheart की समीक्षा

फ़िल्म ए माइटी हार्ट की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज ...17) 

इरफ़ान खान की अभिनय यात्रा को करीब से समझने के लिए और उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए मैंने आज (23/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत उनकी फ़िल्म #Amightyheart  देखी। इस फिल्म में उनका किरदार पाकिस्तान के सीआईडी चीफ जावेद हबीब का है। फ़िल्म में मुख्य किरदार की भूमिका में हैं एंजेलिना जॉली। फ़िल्म का निर्देशन किया है माइकल विंटरबॉटम ने, जिसे 2007 में रिलीज किया गया था। ये फ़िल्म 2002 में पाकिस्तान में एक अमरीकी पत्रकार डेनियल पर्ल के बड़े ही नाटकीय ढंग से हुए अपहरण और बाद में उसकी बेरहमी से की गई हत्या पर आधारित है पर डेनियल से ज़्यादा ये फ़िल्म उसकी पत्नि मैरियन पर्ल के हौसले और धैर्य की कहानी है जो अंत तक अपने पति को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास करती है, नाज़ुक पलों में भी ख़ुद को बिखरने नहीं देती। ये जानने के बावजूद कि जिहादियों ने उसके पति और उसके होने वाले बच्चे के पिता की नृशंस हत्या की है वो उनसे नफ़रत नहीं करती बल्कि भविष्य में उनसे नफ़रत की राह छोड़कर प्रेम और सौहार्द्र की उम्मीद लेकर पाकिस्तान से अपने मुल्क रवाना होती है। सत्य घटना पर आधारित इस फिल्म के साथ निर्देशक और अभिनेताओं ने काफी हद तक इंसाफ किया है। एंजेलिना जॉली ने डेनियल पर्ल की पत्नि मरियन पर्ल के किरदार को बखूबी आत्मसात किया है और इसके लिए उन्हें खूब सराहा गय साथ ही इस रोल के लिए उन्हें कई अवॉर्ड्स भी मिले। 
डेनियल पर्ल और उनकी पत्नी मैरियन पेशे से पत्रकार होते हैं और न्यूज़ स्टोरी के लिए पाकिस्तान आते हैं। डेनियल एक खोजी पत्रकार होता है और उसे एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए किसी से मिलने जाना होता है। वो शाम तक वापस लौट आने का अपनी पत्नि से वादा कर उस इंटरव्यू के लिए निकल पड़ता है और उस इंटरव्यू के बाद उन्हें अमेरिका वापस जाना था। मैरियन छः महीने की गर्भवती होती है। ये सोचकर की डेनियल शाम तक वापस आ जाएगा वो उसके लिए क्यूबन डिश बनाती है पर डेनियल का फोन लगातार स्विच्ड ऑफ आता है। मैरियन को कुछ गड़बड़ होने की आशंका होती है तो वो तुरंत डेनियल का मेल अाई डी चेक करती है और उसकी शंका यकीन में बदल जाती है। मैरियन की मदद के लिए पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसी के साथ साथ न्याय विभाग और अमेरिका का डिप्लोमेटिक सिक्योरिटी सर्विस आगे आता है, सभी अपनी ओर से डेनियल को बचाने की हर संभव कोशिश करते हैं खासकर पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसी के कैप्टन ज़ीशन काज़मी (इरफ़ान खान) ने बहुत मदद की पर वो डेनियल को जिहादियों के कोप से बचा ना सके। एक वीडियो संदेश के ज़रिए वो डेनियल का सर क़लम करते हुए दिखाते हैं।   ये फ़िल्म डेनियल के अचानक से गायब हो जाने के बाद, उसके अपहरण को सियासी रंग देने और डेनियल के तालुक अमेरिका की खुफिया एजेंसी से जोड़ने की अफवाहों, उसे छोड़ने की एवज में ओमर शेख और उसकी टीम द्वारा अमेरिका द्वारा कैद किए गए उनके साथियों को रिहा कराने की मांग से लेकर नौ दिन तक दिन रात डेनियल को ढूंढने और वापस ज़िंदा लाने की उम्मीद में धीरज रखने वाली मैरियन के अदम्य साहस की कहानी है। 
इस फ़िल्म में एंजेलिना जॉली की सुरक्षा के मद्देनजर ज़्यादातर शूटिंग उत्तर भारत में की गई है पर फ़िल्म में एंजेलिना के कोस्टार फुटरमं ने बैकग्राउंड लोकेशन का रियल फील लाने के लिए ज़्यादातर शूट पाकिस्तान के उस रियल लोकेशन पर जाकर की जहां से पत्रकार डेनियल गायब हुए थे। फ़िल्म यकीनन काबिले तारीफ़ है, वक़्त मिले तो देखिएगा।

Thursday, May 21, 2020

फ़िल्म #Kuselan की समीक्षा जिसका रीमेक थी #Billu

फ़िल्म #Kuselan का हिंदी डब वर्ज़न दिलवाला द रियल मैन की समीक्षा 

मिशन #Sensiblecinema और यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत आज (21/05/2020) रजनीकांत, पशुपति, मीना और नयनतारा अभिनीत तमिल फिल्म #Kuselan जो 2008  में रिलीज़ हुई थी उसका हिंदी डब वर्ज़न #Dilwalatherealman देखा। इस फ़िल्म को निर्देशित किया है पी वासु ने और ये फ़िल्म 2007 में अाई मलयालम फ़िल्म कथा परायुंबोल का रीमेक थी। आप सोच रहे होंगे मैंने कहा यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत ये फ़िल्म देखी पर इस फिल्म में तो इरफ़ान हैं ही नहीं। दरअसल उनकी फिल्म #Billu इन फिल्मों का रीमेक है, मुझे बिल्लू तो नहीं मिली तो सोचा क्यूं ना तमिल मूवी #Kuselan ही देख ली जाए। कुसेलन महाभारत के वो पात्र थे जो श्री कृष्ण के बचपन के सखा माने जाते हैं और जिन्हें उत्तर भारत में शायद हम सुदामा के नाम से जानते हैं जो श्री कृष्ण से अपनी दरिद्रता और गरीबी के कारण मिलने से हिचकिचाते हैं कि कहीं कृष्ण उन्हें अपना सखा मानने से ही इंकार ना कर दे। इसी कहानी को कूसेलन फ़िल्म का आधार बनाया गया है जो दो ऐसे दोस्तों की कहानी है जो बचपन में साथ पढ़े थे। हालत ने उसमें से एक को बाल काटने वाला नाई बना दिया तो दूसरे को क़िस्मत ने फ़िल्मों का सुपर स्टार। 
बालकृष्ण यानि बालू (पशुपति) और अशोक कुमार (रजनीकांत) बचपन में एक ही स्कूल में पढ़े थे। बालकृष्ण ने ही अशोक को इस बात का एहसास कराया था कि उसके अंदर एक कलाकार है और उसे फ़िल्मों में ट्राई करना चाहिए। अशोक को मद्रास भेजने के लिए बालकृष्ण अपने कान की बाली बेंचकर उसके लिए पैसों का बंदोबस्त करता है। ये बात सभी को तब पता चलती है जब स्वयं सुपर स्टार बन चुके अशोक कुमार एक स्कूल की सिल्वर जुबली में अपने दोस्त बालू के बारे में सबको बताते हैं, अपना बचपन और अपने बचपन के दोस्त के बारे में बताते हुए उनकी आंखें भर आती हैं। बालू भी अपने दोस्त अशोक कुमार की बातें सुनकर सिसक सिसक कर रो पड़ता है, उसकी पत्नि देवी (मीना) की आंखें भी भर आती हैं। फ़िल्म के आखरी के पंद्रह मिनट की कहानी आंखें नम कर जाती है और अशोक और बालू के साथ साथ हमें भी रोने पर मजबूर कर देती है। बालकृष्ण पेशे से एक नाई होता है और अपने पिता की बाल काटने की दुकान में पड़ी टूटी कुर्सी, जंग लगी कैंची को बदलकर दुकान को नया रंग रूप देना चाहता है पर उसके लिए उसके पास उतने रुपए नहीं होते। उसे लोन भी नहीं मिलता क्यूंकि वो उसूलों का पक्का है और रिश्वत देने के ख़िलाफ़। ग़रीबी के चलते वो अपने बच्चों की फीस तक समय पर नहीं भर पाता जिसकी वजह से बच्चों को स्कूल में शर्मिंदा होना पड़ता है और बालू को इस वजह से अपने बच्चों की नाराज़गी का शिकार होना पड़ता है। एक दिन उसे पता चलता है कि उसके गांव में सुपर स्टार अशोक कुमार अपनी किसी फ़िल्म की शूटिंग के लिए आ रहे हैं तो उसके मुंह से धोखे से निकल जाता है कि अशोक कुमार बचपन में उसके साथ ही पढ़े थे। ये बात पूरे गांव में जंगल की आग की तरह फ़ैल जाती है, लोग उससे अशोक कुमार से मिलवाने की उम्मीद लगाने लगते हैं और जब वो नहीं मिला पाता तो हंसी और मज़ाक का पात्र बनता है। एक बड़े आदमी से बचपन की दोस्ती उसके जी का जंजाल बन जाती है। उसके बच्चों को भी लोग ताने मारते हैं। पशुपति ने बालू के किरदार को बड़े ही प्रभावी ढंग से निभाया है। उनके हाव भाव, संवाद, आंखों से छलकती बेबसी दिल को भेद देती है। हंसाते हंसाते फ़िल्म आखिर में रुला जाती है। रजनीकांत और नयनतारा का कैमियो रोल है। आखरी के पंद्रह मिनट में रजनीकांत अपने संवाद और अभिनय से रुला देते हैं। लाजवाब फ़िल्म है, देखिएगा ज़रूर।

फ़िल्म #Lifeinametro की समीक्षा

फ़िल्म #Lifeinametro की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...16) 

यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत और मित्र आदित्य के आग्रह पर कल रात (20/05/2020) पुनः 2007 में रिलीज़ हुई अनुराग बासु की फ़िल्म लाइफ इन ए मेट्रो देखी, इरफ़ान के अभिनय को ध्यान से देखने के लिहाज़ से। हालाकि इसमें इरफ़ान खान का रोल सपोर्टिंग एक्टर का है पर उन्हें जितना भी स्क्रीन टाइम मिला उन्होंने अपने अभिनय से मोंटी के किरदार में जान डाल दी। इस म्यूज़िकल ड्रामा फ़िल्म में अभिनेताओं का हुजूम है यानि एक साथ आपको  धर्मेन्द्र जी, नफीसा अली, शिल्पा शेट्टी, के के मेनन, शर्मन जोशी, कंगना राणावत, इरफ़ान खान, कोंकणा सेन शर्मा, शाईनी आहूजा देखने को मिल जाएंगे। फ़िल्म में एक साथ कई कहानियां चलती हैं, हर किरदार कुछ पाने की तलाश में है। किसी को सुकून चाहिए, किसी को अपने ब्रेक अप से उबरने के लिए किसी का साथ, कोई अपनी नीरस हो चुकी ज़िन्दगी में फिर से रंग भरने की कोशिश कर रहा है,  किसी को सच्चे प्रेम की तलाश है, किसी को तरक्की चाहिए तो कोई  शादी के लिए एक अच्छे पार्टनर की तलाश में है, सबकी ज़िन्दगी में कुछ ना कुछ कमी सी है। किसी के मन में गुबार है, किसी के दिल में मलाल, कोई अपने आखरी वक़्त में नींद से जागता है तो कोई सुकून की तलाश में मृग मारिचिका के पीछे भागता है। मेट्रो सिटी मुंबई में हर इंसान भीड़ में होते हुए भी भीतर ही भीतर निरा तन्हा है। खोखले पड़ते रिश्तों, छीजते जज्बातों, मौक़ा परस्त लोगों के बीच एक सच्चा साथी पाने की चाहत में  दिलों के टूटने की कहानी है लाइफ इन ए मेट्रो।   हर कहानी आपस में कहीं ना कहीं जुड़ी है। एक चीज़ हर कहानी में कॉमन है, वो है हर किसी की ज़िन्दगी में घर कर गई गहरी उदासी जिसे दूर करने के लिए सभी को एक अदद खुशी और सुकूं की तलाश है। शिखा (शिल्पा शेट्टी) वो खुशी आकाश (शाईनी आहूजा) में तलाशती है।शिखा का पति रजत कपूर (के के मेनन) सुकून के दो पल अपने ऑफिस में ही काम करने वाली नेहा (कंगना राणावत) के साथ तलाशता है। अमोल (धर्मेन्द्र) अपनी बची खुची ज़िन्दगी शिवानी (नफीसा अली) के साथ सुकून से इंडिया में गुजारना चाहता है। शिखा की बहन श्रुति (कोंकणा सेन शर्मा) तीसवें साल में चल रही हैं उन्हें एक अच्छे जीवन साथी की तलाश है, राहुल को बड़ा आदमी बनना है, वो ज़िन्दगी को मॉर्निंग वॉक नहीं एक रेस मानता है और आगे बढ़ने के लिए हर जायज़ और नाजायज कदम उठाने से उसे कोई गुरेज नहीं। मोंटी (इरफ़ान खान) को भी एक अच्छी जीवन संगिनी की तलाश है और शायद इसलिए ज़िन्दगी बार बार उस श्रुति से मिलवाती है। वो जब श्रुति से पूछता है कि आखिर उसने उसे रिजेक्ट क्यूं किया था तो श्रुति कहती है क्यूंकि उसकी निगाहें गलत जगह पर थीं तो मोंटी बड़ा ही सच्चा और सीधा सा जवाब देता है, वो कहता है में 38 का हो गया हूं और आज तक किसी लड़की को हाथ तक नहीं लगाया, तुम्हारे शरीर की ओर मेरा आकर्षण स्वाभाविक था, इसमें गलत क्या है यार? इरफ़ान जिस तरीके से ये बात बोलते हैं उसमें भी एक सलीका नजर आता है, उनके मुंह से कहीं भी वो संवाद ओछा नहीं लगता सुनने में। इरफ़ान का कॉमिक सेंस भी काबिले तारीफ़ है। जब श्रुति को ये एहसास होता है कि दरअसल वो मोंटी को चाहने लगी है और आज उसकी शादी होने वाली है किसी और से तो वो भागती हुई उसके पास पहुंचती है और घोड़ा चढ़े, दूल्हा बने मोंटी से अपने प्यार का इजहार करती है तो मोंटी कहता है इतनी देर क्यों लगा दी बोलने में, अब तो पेटीकोट और ब्लाऊज भी किसी और के नाप का बन गया है तो श्रुति गुस्से में वहां से निकल जाती है और मोंटी घोड़े पे सवार ही श्रुति के पीछे निकल पड़ता है। ये फ़िल्म ज़िन्दगी की कई सच्चाइयों से हमें रूबरू कराती है, साथ ही ये एहसास भी दिलाती है कि ज़िन्दगी में छोटी छोटी खुशियां कितनी मायने रखती हैं। मानसिक संतुष्टि चीज़ों और पैसों में नहीं सच्चे रिश्तों में बसती है। इस फिल्म के सारे गाने लाजवाब और सिचुएशनल हैं।

Wednesday, May 20, 2020

फ़िल्म #Hachiadogstale की समीक्षा

फ़िल्म #Hachiadogstale की समीक्षा 

आज (20/05/2020) #Sensiblecinema के तहत रिचर्ड गियर और  जोन एलेन अभिनीत फ़िल्म हॅची ए डॉग्स टेल देखी जो 1987 में बनी एक जापानी फ़िल्म हचिको मॉनोगतारी का रीमेक है जिसे निर्देशित किया है लेसे हल्लस्ट्रोम ने। इस फ़िल्म को सजेस्ट करने के लिए आशीष कोतवाल सर का तहे दिल से शुक्रिया। फ़िल्म यकीनन ज़बरदस्त है। जितनी स्ट्रॉन्ग इस फ़िल्म की स्टोरी लाइन है उतना ही ज़बरदस्त रिचर्ड गियर और जोन  एलेन का अभिनय और हॉलस्ट्रोम का निर्देशन। सोच रही थी अभिनेताओं से अभिनय कराना फिर भी आसान है पर एक डॉग से निर्देशक ने कैसे अभिनय कराया होगा? फ़िल्म की कहानी बड़ी ही मार्मिक है, ये कहानी है उस हची (कुत्ते) की जो दस वर्षों तक रोज़ सुबह शाम रेल्वे स्टेशन पर अपने मालिक का इंतज़ार करते करते एक दिन वहीं दम तोड़ देता है। 
फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि रॉन्नी को एक दिन अपने स्कूल में माई हीरो पर कुछ बोलना होता है और तब वो अपने नाना पार्कर विल्सन के कुत्ते हचीको की कहानी सुनाता है। फ्लैशबैक के ज़रिए कहानी यादों के गलियारों से गुजरती है। पार्कर विल्सन म्यूज़िक के प्रोफ़ेसर होते हैं, एक दिन रेलवे स्टेशन पर उन्हें एक कुत्ता मिलता है, वो उसके मालिक को ढूंढने की बहुत तलाश करते हैं पर जब कोई उसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता तो उसे अपने घर ले आते हैं और अपनी पत्नि केट (जोन एलेन) से छुपाकर उसे नीचे के कमरे में छोड़कर फिर अपने कमरे में आते हैं। वो छोटा सा पप्पी किसी म्यूज़िक इंस्ट्रूमेंट को दबा देता है फिर चुपके से कमरे से निकलकर ऊपर आ जाता है और केट का पांव चाटने लगता है, वो डर जाती है तब पार्कर उसे पूरी घटना बताते हैं और वादा करते हैं कि सुबह होते ही वो उसे किसी को दे आएंगे। पार्कर कई कोशिशें करते हैं कि कोई उस पप्पी को रख ले पर कोई तैयार नहीं होता तो वो फिर उसे घर ले आते हैं और घर से बाहर एक स्टोर रूम में उसके रहने का इंतज़ाम करते हैं। उस कुत्ते से धीरे धीरे पार्कर को गहरा लगाव हो जाता है और कुत्ता भी पार्कर से बच्चों की तरह हिल मिल जाता है। वो रोज़ पार्कर को रेलवे स्टेशन छोड़ने और लेने जाता था। एक दिन पार्कर को अपनी क्लास में ही अटैक आ जाता है और वो वहीं दम तोड़ देते हैं, हचि (डॉग) अपने मालिक का बेसब्री से इंतजार करता है, हर दिन, आंधी, पानी, ठंड सहकर। हाचि की निगाहें रेलवे स्टेशन के दरवाज़े को तकती रहती हैं। ये सिलसिला दस वर्षों तक यूं ही चलता रहता है। कितने ही बसंत और पतझड़ हाची ने अपने मालिक के इंतज़ार में उस रेलवे स्टेशन के बाहर गुज़ार दिए। पार्कर की बेटी हाची को अपने साथ भी ले जाती है पर वो मौका पाकर फिर भागकर रेलवे स्टेशन चला आता है अपने मालिक के इंतजार में।
फ़िल्म में एक कपल के रूप में रिचर्ड गियर और जोन एलेन की जोड़ी बहुत अच्छी लगी है, दोनों का ऑन स्क्रीन बॉन्ड ज़बरदस्त लगा। फ़िल्म में एक सीन है जिसमें डायरेक्टर उस रेलवे स्टेशन के पास बने सर्किल के ऊपर बैठे हाची के पीछे लगे पेड़ पर कई बार बसंत और पतझड़ दिखा कर ये संकेत करती है कि हैची को अपने मालिक का इंतज़ार करते हुए वर्षों बीत गए। एक सीन में कैमरा शॉट और बहुत ज़बरदस्त ढंग से लिया गया है जहां हॅचि जब अपने मालिक के घर के गार्डन में उल्टा लेटता है तो उसकी आई व्यू से उसकी मालकिन केट को भी उल्टा करके दिखाया जाता है। रिचर्ड और हची के बीच ज़बरदस्त बॉन्डिंग दिखाई गई है। ये फ़िल्म अपने मालिक के प्रति एक कुत्ते के अटूट प्रेम और वफादारी की कहानी है। कुत्ते का वो भरोसा और आस कि एक दिन उसका मालिक ज़रूर आएगा मरते दम तक नहीं टूटती और अपने मालिक के इंतज़ार में एक दिन वो खुद आंखें मींच लेता है हमेशा हमेशा के लिए पर एक मिसाल कायम कर जाता है।

Tuesday, May 19, 2020

फ़िल्म #Yehsaalizindagi की समीक्षा

फ़िल्म #Yehsaalizindagi  की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...15) 

आज (19/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत 2011 में रिलीज हुई इरफ़ान, चित्रांगदा, अरुणोदय सिंह और अदिति राव हैदरी अभिनीत एवं सुधीर मिश्रा द्वारा निर्देशित #Yehsaalizindagi फ़िल्म देखी। फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर ठीक ठाक चली। ये फ़िल्म उस आशिक़ अरुण (इरफ़ान खान) की कहानी है जो ये जानता है कि प्रीति (चित्रांगदा) किसी और के इश्क़ में है फिर भी उससे दूर नहीं जा पाता। प्रीति के इश्क़ में गिरफ्तार अरुण उसकी वजह से बड़ी मुसीबत में फंस जाता है, ज़िन्दगी और मौत के बीच खड़ा होता है, अपना करियर और प्रतिष्ठा सब दांव पर लगा देता है, मेहता,होम मिनिस्टर और गैंगस्टर सबसे दुश्मनी मोल लेता है सिर्फ उस लड़की की खातिर जो उससे मोहब्बत भी नहीं करती और जो सिर्फ उसका इस्तेमाल कर रही है अपने आशिक को बचाने के लिए। पर इसी क्रम में प्रीति को एहसास होता है उसके लिए अरुण की सच्ची मोहब्बत का और टूटता है भ्रम श्याम को लेकर जिसे गैंगस्टर्स से बचाने के लिए वो अपनी और अरुण की ज़िन्दगी दांव पर लगा देती है और श्याम उसे वहां छोड़ अकेला ही फरार हो जाता है पर पकड़ा जाता है। कई बार हम भ्रमवश किसी और को अपना माने बैठे रहते हैं और उसके प्रभाव की पट्टी हमारी आंखों पर इस कदर पड़ी होती है की उसके आगे कुछ और दिखाती और सुनाई ही नहीं देता। उसके खिलाफ़ बोले गए एक भी अल्फ़ाज़ बर्दाश्त नहीं होते और उसकी खातिर हम कई बार अपनों से भी दूर हो जाते हैं और जब तक होश में आते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और ज़िन्दगी सब कुछ सुधारने और खुद को संभालने का दूसरा चांस भी नहीं देती पर ये फ़िल्म थी इसलिए प्रीति को अरुण की सच्ची मोहब्बत का एहसास हो जाता है अंततः वो अरुण के पास आ जाती है। 
फ़िल्म में एक और कहानी पैरलल में चलती रहती है गैंगस्टर्स की कहानी जिसमें पहले तो मिनिस्टर वर्मा बड़े (यशपाल शर्मा) को शह देते है खुलेआम गुंडागर्दी करने के लिए पर जब होम मिनिस्टर बन जाते हैं और अपनी इमेज के लिए बड़े खतरा जान पड़ता है तो उसे लॉकअप में बंद करवाकर ढेरों प्रताड़ना दिलवाते हैं। लॉकअप में ही कुलदीप (अरुणोदय सिंह ) भी बंद होता है जो बड़े के लिए काम करता है और उसकी रिहाई होने वाली होती है। बड़े कुलदीप से उसे जेल से बाहर निकालने के लिए कहता है। कुलदीप बड़े को होने मिनिस्टर वर्मा से जेल से बाहर निकलवाने के लिए उसके होने वाले दामाद श्याम को अगवा कर लेता है और श्याम के साथ ही प्रीति भी होती है। अब मिनिस्टर को ये पता चलता है कि उसका होने वाला दामाद उसकी बेटी अंजलि से प्रेम करने के बजाए किसी और लड़की के चक्कर में है तो वो उसे गैंगस्टर्स से छुड़वाने के लिए इनकार कर देता है पर तभी अरुण (इरफ़ान खान) जो पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट होता है मिनिस्टर के बेटे के अकाउंट में दो नंबर का पैसा ट्रांसफर कर और उसके सारे गैर कानूनी धंधे की पोल खोलने की धमकी देकर मिनिस्टर को प्रीति की मदद करने के लिए बोलता है और खुद भी प्रीति के कहने पर उसकी मदद के लिए अपनी जान जोखिम में डाल कर उसके पास पहुंचता है ये सब जानते हुए भी कि प्रीति किसी और को चाहती है। 
एक आशिक़ के किरदार को इरफ़ान ने बख़ूबी निभाया है। चित्रांगदा, अरुणोदय सिंह की ऐक्टिंग भी इस फ़िल्म में आपको अच्छी लगेगी। बड़े के किरदार में यशपाल शर्मा अपने अभिनय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। फ़िल्म का टाइटल ट्रैक यूथ को आकर्षित करने वाला है। फ़िल्म का प्लॉट दिलचस्प है। इरफ़ान के क़िस्सा गो की तरह बीच बीच में अपने दिल की बात कहने का अंदाज़ अच्छा लगता है।

Sunday, May 17, 2020

फिल्म #Apnaasmaan की समीक्षा

फ़िल्म #Apnaasmaan की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...14) 

कल रात (16/05/2020) #Sensiblecinema  और यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान खान अभिनीत #Apnaasmaan फ़िल्म देखी। फ़िल्म का निर्देशन किया है कौशिक रॉय ने जो जाने माने फ़िल्म निर्देशक बिमल रॉय जिन्होंने दो बीघा ज़मीन, परिणिता, बंदिनी जैसी फिल्में बनाई उनके भतीजे हैं। ये फ़िल्म 2007 में रिलीज़ हुई थी। फ़िल्म का प्लॉट बड़ा ही मार्मिक और संवेदनशील है। फ़िल्म का प्लॉट ये है कि जो चीज़ें जैसी हैं जब हम उन्हें उसी रूप में जब स्वीकार नहीं कर पाते और किसी चमत्कार की उम्मीद लिए ऐसा रास्ता अख्तियार कर लेते हैं जो अप्राकृतिक है तो स्थितियां बेहतर होने के बजाए बत्तर होती चली जाती हैं। ये सच है कि डिफरेंटली एबल्ड बच्चों की परवरिश करना बेहद कठिन होता है और हर माता पिता ये चाहते हैं कि उनका बच्चा भी नॉर्मल बच्चों की तरह ज़िन्दगी जी सके, उनके साथ मिक्स अप हो सके और इसके लिए वो कोई भी क़ीमत अदा करने को तैयार रहते हैं। इसमें गलती सिर्फ उन मां बापों की ही नहीं है बल्कि उनसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हमारा समाज है जो ऐसे बच्चों के साथ एडजस्ट करके चलने के बजाय उनका मज़ाक उड़ाया करता है जिसकी वजह से उन बच्चों के साथ साथ उनके घर वालों के चेहरे से भी मुस्कान गायब हो जाती है। ये फ़िल्म हमें यह भी सोचने के लिए मजबूर करती है कि आखिर अपने बच्चे को औरों के बच्चों से बेहतर या जीनियस साबित करने के लिए हम किस हद तक जा सकते हैं, इस गला काट प्रतिस्पर्धा की होड़ में हम कहीं उनके भीतर छुपी प्रतिभा को नजरअंदाज कर उनके नन्हे कंधों पर अपने सपनों का बोझ तो नहीं लाद रहे? हमें दो घड़ी रुककर से सोचना होगा कि हम अपने बच्चों को एक बेहतर इंसान बनाना चाहते हैं या एक संवेदनहीन मशीन। हर फ़िल्म कहीं ना कहीं कहानीकार से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ी होती है और फिल्मकार उस कहानी के माध्यम से ख़ुद के या उससे जुड़े अनुभव को ही फ़िल्म के रूप में हम दर्शकों के साथ साझा कर रहा होता है। इस फ़िल्म की कहानी भी काफी हद तक इस फ़िल्म के निर्देशक कौशिक रॉय की अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी हुई है। 

फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि रवि कुमार (इरफ़ान खान) नाम का एक सेल्समैन होता है जो एक प्लास्टिक कंपनी में काम करता है उसका तेरह चौदह वर्षीय बेटा बुद्धिराज (ध्रुव पियूष पंजवानी) थोड़ा ऑटिस्टिक होता है यानि दूसरे बच्चों के मुकाबले थोड़ा स्लो लरनर होता है जिसकी वजह से उसकी बीवी पद्मिनी (शोबना) हमेशा उदास सी रहती है। बुद्धि जब छोटा था तो ऊपर की ओर उछालकर खिलाने के कारण वो रवि के हाथ से नीचे गिर गया था इसकी वजह से पद्मिनी को लगता है बुद्धि की ऐसी हालत का ज़िम्मेदार खुद रवि है जबकि कई डॉक्टर्स ने ये बताया था कि वो पैदाइशी ऑटिस्टिक है, पर कहते हैं ना एक बार दिल में कोई बात घर कर जाए तो उसे निकालना इतना आसान नहीं होता। रवि को लगता है बुद्धि की वजह से उसे पद्मिनी का प्यार नहीं मिल रहा। एक दिन रवि एक डॉक्टर सत्या के ब्रेन बूस्टर के बारे में सुनता है साथ ही समाचार चैनलों और पत्रों से उसे ये भी पता चलता है कि डॉक्टर सत्या (अनुपम खेर) एक फ्रॉड डॉक्टर है और पुलिस उसे ढूंढ़ रही है लेकिन फिर भी वो डॉक्टर सत्या के पास अपने बेटे के लिए ब्रेन बूस्टर लेने जाता है। वो डॉक्टर से कहता है उसके ब्रेन बूस्टर को इंसानों पर टेस्ट करने के लिए उसके पास एक ह्यूमन वॉलंटियर है पर एक पिता होने के नाते वो चिंता भरे स्वर में डॉक्टर से ये भी पूछता है कि उसका कोई साइड इफेक्ट तो नहीं होगा उसके बच्चे पर। डॉक्टर सत्या रवि कुमार से कहते हैं इस दुनियां में हर किसी को किसी से कुछ चाहिए मसलन तुम्हे अपनी पत्नी का प्यार वापस चाहिए, तुम्हारी पत्नी को उसका बेटा जीनियस चाहिए, बुद्धि को उसकी मां का साथ चाहिए और मुझे तुमसे अपने ब्रेन बूस्टर को टेस्ट करने के लिए एक हमें वॉलंटियर चाहिए। उस बूस्टर के लगाते ही पहले तो बुद्धि को फिट्स आते हैं पर फिर वो नॉर्मल बच्चों की तरह हो जाता है और कैलकुलेटर की तरह गणित के जटिल से जटल सवाल हल कर लेता है पर उस बूस्टर का साइड इफेक्ट ये होता है कि वो अपने माता पिता को ही नहीं पहचान पाता साथ ही उसके भीतर की सारी संवेदनाएं ही ख़तम हो जाती हैं। बुद्धि एक गुस्सैल और बिगड़ैल इंसान की तरह हरकतें करने लगता है, बड़ों से बेरुखी से पेश आता है ये सब देखकर उसके माता पिता को बहुत तकलीफ़ होती है और अपने पुराने बुद्धि को बहुत मिस करते हैं। वो डॉक्टर सत्या की तलाश में हैं ताकि उस ब्रेन बूस्टर का एंटीडोट वो बुद्धि को दे सकें और उन्हें उनका बुद्धि वापस मिल जाए। 
फिल्म का संगीत बहुत ही अच्छा है खासकर वो गीत "दाना मिले माटी से तो पेड़ बन जाए"। अनुपम खेर एक मंजे हुए कलाकार हैं, डॉक्टर सत्या के किरदार को बखूबी निभाया है, डॉक्टर सेन के किरदार को रजत कपूर ने भी बड़ी ही संजीदगी से निभाया। पद्मिनी के किरदार में शोबना का अभिनय भी प्रभावशाली है और इरफान के तो क्या कहने। वो हर किरदार के सांचे में ढल जाते हैं। इस फ़िल्म में उनकी स्माइल नोटिस करने लायक है और वो बेचैनी भी जब ब्रेन बूस्टर देते ही बुद्धि के हांथ पांव ठंडे पड़ने लगते हैं। पत्नि के प्रेम से महरूम होने के फ्रस्ट्रेशन को भी इरफ़ान ने अपने अभिनय के ज़रिए बख़ूबी दिखाया है। वो सही मायने में एक कलाकार थे, ऐसे कलाकार जिसका अभिनय सीधे दिल को छूता हो जो हमें अपना सा मालूम होता हो। एक दृश्य में वो अपने एक साथी सेल्समैन को एमबीए की परिभाषा बताते हैं: मेडियोकर बट एरोगेंट। उनका एक डायलॉग है कि आजकल की जेनरेशन को सब कुछ फास्ट फास्ट चाहिए बिल्कुल फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स की तरह जो इंस्टेंट बन जाए। नौकरी, छोकरी, तरक्की सब कुछ इंस्टेंट, ये डायलॉग बड़ा ही मौजू है। वो अपने उस साथी से पूछता है कि जिस लड़की से उसकी शादी होने वाली है क्या उसने उस लड़की के साथ कुंडली मिल वाली। अपने तज़ुर्बे से रवि कहता है भाई लड़का लड़की की कुंडली मिले ना मिले पर सास बहू की कुंडली मिलना बहुत ज़रूरी है वरना लड़का बेचारा चक्की की तरह दोनों के बीच पिस्ता रहता है। फ़िल्म की कहानी बहुत अच्छी है इस फिल्म को  सभी पैरेंट्स को देखना चाहिए। फ़िल्म यू पी पर उपलब्ध है।

Friday, May 15, 2020

फ़िल्म #LifeofPi की समीक्षा

फ़िल्म #Lifeofpi की समीक्षा ( यादों में इरफ़ान सीरीज...13)

आज (15/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान खान की एक और उम्दा फ़िल्म देखी #Lifeofpi   जो 2012 में रिलीज हुई थी, इसे निर्देशित किया है ताइवान के फ़िल्म मेकर अंग ली ने। इस फिल्म ने चार एकेडमी यानि ऑस्कर अवॉर्ड जीते  हैं और विश्व सिनेमा जगत में भी इस फ़िल्म को भरपूर सराहा गया। ये एडवेंचर ड्रामा फ़िल्म यान्न मर्टेल के उपन्यास #LifeofPi पर आधारित है। फ़िल्म में सोलह वर्षीय पाई का किरदार निभाया है सूरज शर्मा ने और बड़े पाई पटेल के किरदार में हैं इरफ़ान खान जो एक उपन्यासकार को अपनी आप बीती सुनाते हैं। ये कहानी है तूफ़ानी मौत को मात देकर उम्मीद की लाइफ सेविंग बोट के सहारे ज़िन्दगी के दामन को पुनः थामने की। कहानी में फ़्लैश बैक तकनीक का बेहद खूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है। 

फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि एक नया उपन्यासकार कनाडा में पाई पटेल से उनके सर्वाइवल की कहानी सुनने आता है और इस तरह फ़िल्म फ़्लैश बैक में ले जाती है जहां पांडिचेरी में एक तमिल हिन्दू परिवार होता है जिसमें पाई की परवरिश उसके बड़े भाई रवि के साथ होती है। परिवार में कुल जमा चार लोग है माता पिता और दो भाई और इस परिवार का एक ज़ू है जिसके एक बंगाल टाइगर रिचर्ड पार्कर जी हां सही सुना आपने टाइगर का ही नाम है रिचर्ड पार्कर, से पाई को बड़ी मोहब्बत होती है। पाई की ज़िन्दगी की ही तरह उसके नामकरण की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। पाई के पिता ने पाई का नाम एक फ्रेंच स्विमिंग पूल के नाम पर पिसिं मोलिटर पटेल रखा था पर सभी उसे पिसिंग पिसिंग कहकर चिढ़ाते थे इसलिए उसने अपना नाम बदलकर पाई पटेल रख लिया था। एक दिन पाई के पिता तय करते हैं कि वो अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य की खातिर पांडिचेरी छोड़कर कनाडा सेटेल हो जाएंगे और वहीं अपने जू के जानवरों को किसी को बेंच देंगे। प्लान के मुताबिक वो एक जैपनीज शिप से कनाडा के लिए रवाना होते हैं पर उन्हें क्या पता था कि कुदरत ने उनके लिए कुछ और प्लैनिंग कर रखी थी। समुद्र में भीषण तूफान आता है जिसमें पूरा का पूरा जहाज डूब जाता है और सभी मारे जाते हैं सिवाय पाई पटेल और रिचर्ड पार्कर (टाइगर) के। पाई किस तरह खुद को और रिचर्ड को समुद्र की लहरों के थपेड़े खाते हुए बचाता है साथ ही एक और समुद्री तूफान का सामना करता है उसे इस फ़िल्म के ज़रिए बड़े ही प्रभावी ढंग से बताया गया है। फ़िल्म के अंडर वाटर शॉट्स देखकर आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। पाई को एक तरफ समुद्र की तीव्र लहरों से ख़तरा है तो दूसरी ओर रिचर्ड पार्कर से क्यूंकि वो टाइगर जो ठहरा, कभी भी पाई पर हमला कर उसे अपना शिकार बना सकता था। पाई के एक तरफ कुआं था तो दूसरी तरफ खाई। लाइफ सेविंग बोट पर पाई मौत के साथ सफ़र कर रहा था लेकिन धीरे धीरे पाई का डर खत्म होता जाता है वो रिचर्ड पार्कर को बचाने के लिए फिशिंग करता है, उसे पानी पिलाता है, उसके साथ संवाद स्थापित करने की कोशिश करता है। दूर दूर तक सिर्फ पानी ही पानी के अलावा पाई को कुछ भी नजर नहीं आता पर ऐसी मुश्किल घड़ी में पिता की दी गई हिदायतें पाई के बहुत काम आती हैं और वो निराशा की धूल झाड़ते हुए अगले ही पल पुनः ऊर्जा और आशा से लबरेज़ नज़र आने लगता है। उस एकांत में सिर्फ रिचर्ड पार्कर ही पाई के साथ नज़र आता है और शायद उस साथ के सहारे ही पाई मैक्सिकन समुद्र तट तक पहुंच पाता है। समुद्र तट तक आते आते पाई की हिम्मत जवाब दे जाती है और वो बेहोश होने लगता है और रिचर्ड पार्कर  बोट से उतरकर सामने के जंगलों में कहीं गुम हो जाता है। रिचर्ड के इस तरह पाई को छोड़कर जाने से पाई उसके लिए बहुत रोता है पर शायद उन दोनों का साथ यहीं तक था। पाई को इंसानों की दुनियां में लौट जाना था तो रिचर्ड पार्कर को अपनी दुनियां में। जब पाई ने जैपनीज बीमा कम्पनी के लोगों को अपनी कहानी बताई तो उन्हें यकीन नहीं हुआ फिर उसने उसी कहानी को दूसरे अंदाज़ में सुनाया। पाई उस उपन्यासकार से पूछता है उसे कौन सी स्टोरी अच्छी लगी तो उपन्यासकार कहता है टाइगर के साथ वाली। 
इरफ़ान ने इस फ़िल्म में एक अच्छे किस्सागो की भूमिका निभाई है जो अपनी दास्तां उस उपन्यासकार को सुनाते हैं और अंत में उनकी आंखें भर आती हैं क्यूंकि वो अपने बचपन की मोहब्बत, माता पिता यहां तक कि रिचर्ड पार्कर को भी गुड बाय नहीं बोल पाते उनका शुक्रिया अदा नहीं कर पाते। इरफ़ान के डायलॉग्स, उनके एक्सप्रेशन उनकी कहानी सुनने की ललक को और बढ़ाते हैं। सूरज शर्मा ने ज़बरदस्त अभिनय किया है और इसके लिए सिनेमा जगत में उनके काम की खूब तारीफ हुई। उनके ऑडिशन का किस्सा भी ज़बरदस्त है। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलज के पढ़े सूरज शर्मा को इस फ़िल्म में लीड किरदार निभाने के लिए ऑडिशन के कई राउंड देने पड़े और वो तीन हज़ार लोगों को पीछे छोड़ कर इस रोल के लिए चुने गए और इस फ़िल्म से खूब नाम कमाया। टाइगर जैसे खुंखार जानवर से पाई कैसे धीरे धीरे दोस्ती कर लेता है, ख़ुद को और रिचर्ड को ज़िंदा रखने के लिए कितनी जद्दोजहत करता है ये देखने लायक है। कैमरा वर्क, किरदारों का अभिनय, फ़िल्म का निर्देशन, बैकग्राउंड स्कोर, एडिटिंग सब मिलकर फ़िल्म #Lifeofpi को एक अविस्मरणीय फ़िल्म बनाते हैं।

Thursday, May 14, 2020

फ़िल्म #Hindimedium की समीक्षा

फ़िल्म #Hindimedium की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...12)

आज (14/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान खान अभिनीत #Hindimedium देखी। इरफ़ान खान की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक हिंदी मीडियम को भी माना जा सकता है। 2017 में रिलीज़ हुई साकेत चौधरी द्वारा निर्देशित हिंदी मीडियम ज़बरदस्त हिट रही। जिन्होंने ने भी इरफ़ान खान की हिंदी मीडियम और अंग्रेज़ी मीडियम दोनों फिल्में देखी होंगी उनको शायद मेरी ही तरह हिंदी मीडियम अंग्रेज़ी मीडियम के मुक़ाबले ज़्यादा सशक्त और प्रभावी लगी होगी। हिंदी मीडियम की स्टोरी लाइन, फ़िल्म का मैसेज, डायलॉग्स ज़्यादा बेहतरीन हैं और वो चांदनी चौक का राज बत्रा (इरफ़ान खान) दिल के किसी कोने में अपनी परमानेंट जगह बना लेता है। ये फ़िल्म दो बड़े संदेश देती है पहला हमारे यहां अंग्रेज़ी महज़ एक भाषा नहीं बल्कि एक क्लास है और उस क्लास के सो कॉल्ड हाइली सोफेस्टिकैटेड लोगों  के बीच अपनी जगह बनाने के लिए  अंग्रेजी सीखना अनिवार्य है वरना आप पीछे छूट जाएंगे। फ़िल्म का दूसरा संदेश ये है कि बड़े बड़े नामी गिरामी निजी स्कूलों द्वारा शिक्षा के अधिकार के कानून का खुले आम जिस ढंग से माखौल उड़ाया जा रहा है, गरीबों के बच्चों को मिलने वाली सीटों का किस तरह से सौदा किया जाता है, कितने ऑर्गनाइज्ड ढंग से ये सारा खेल चलता है इस बात को बड़े ही बेहतरीन ढंग से इस फ़िल्म में दिखाने की कोशिश की गई है। एक और संदेश बरबस अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है वो यह है कि  गरीबों का दिल दरिया होता है, वो पैसों से अमीर हो ना हों पर दिल से अमीर होते हैं, दूसरों का हक मारना, दिखावे और मतलब के लिए किसी से जुड़ना उन्हें नहीं आता, मेहनत उनकी सबसे बड़ी ताकत है, वो पर पीड़ा से द्रवित होते है, दूसरों का दुख भी उसे अपना दुःख मालूम पड़ता है और लाख दुखों, तकलीफों और अभावों में भी वो स्वार्थी नहीं बन पाते और ज़िन्दगी की तमाम उठापटक के बीच भी वो खुशी के चंद लम्हे अपने और अपनों के लिए ढूंढ़ ही लेते हैं। 
फ़िल्म की कहानी बड़ी ही साधारण सी है लेकिन उसका ट्रीटमेंट ज़बरदस्त है। फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि राज बत्रा ( इरफ़ान खान) का अपना कपड़ों का शोरूम है चांदनी चौक में और वो अच्छा खासा कमा लेता है। राज और मीता की एक बेटी है पिया जिसका एडमिशन मीता दिल्ली के सबसे बेहतरीन स्कूल में कराना चाहती है। आज कल अच्छे स्कूलों में बच्चों का दाखिला कितनी टेढ़ी खीर है ये हम सब अच्छी तरह से जानते हैं और बड़े बड़े शहरों में तो स्कूल में बच्चे के एडमिशन के लिए बच्चे के साथ साथ मां बाप को भी अच्छी खासी ट्रेंनिग दी जाती है ताकि वो इंटरव्यू के समय प्रिंसिपल को प्रभावित और कनविंस कर पाएं। देल्ही ग्रामर स्कूल जो दिल्ली का नंबर वन स्कूल है वो उन्हीं बच्चों को अपने यहां दाखिला देता है जो स्कूल के 2 से 3 किलोमीटर के दायरे में रहते हैं इसके लिए मीता की जिद्द पर राज को सबसे पहले चांदनी चौक का अपना पुश्तैनी घर छोड़कर वसंतकुंज की हाई फाई सोसायटी में शिफ्ट होना पड़ता है, बीवी के आग्रह पर मिट्ठू छोड़ बीवी को हनी बुलाना पड़ता है, अमीरों की तरह चोचले करने की प्रैक्टिस करनी पड़ती है, कंसल्टेंट से एटिकेट्स, ड्रेसिंग सेंस, अंग्रेज़ी बोलने की ट्रेनिंग लेनी पड़ती है पर इतने पापड़ बेलने के बाद भी पिया का एडमिशन उस स्कूल में नहीं हो पाता तो मीता का दिल टूट जाता है। मीता के चेहरे पर खुशी लाने के लिए राज हर संभव कोशिश करता है पर अंत में गरीबी के कोटे से बच्ची के एडमिशन के अलावा उसे कोई और रास्ता नहीं सूझता। फ़िल्म में एक बहुत ही बड़ा कटाक्ष है कि हमारे देश में पैसों के दम पर कुछ भी किया जा सकता है, कोई भी फर्जी दस्तावेज़ बनवाए जा सकते हैं और फर्जी दस्तावेज़ बनवाकर राज पिया का एडमिशन देल्ही ग्रामर स्कूल में कराने में सफल हो जाता है तभी अचानक उसे खबरिया चैनलों से पता चलता है कि शिक्षा के कानून में हो रही धांधली का पता लगाने के लिए गरीबी कोटा से आए आवेदनों की मौके पर जाकर जांच की जाएगी कि वो लोग वहां रहते भी हैं या नहीं। ये खबर सुनते ही मीता और राज को गरीबों की बस्ती भरत नगर में रातो रात शिफ्ट होना पड़ता है। गरीब बस्ती के लोगों की अपनी समस्याएं हैं  पानी, बिजली, राशन, घर से नौकरी के लिए धक्कों भरा सफ़र, काम में छोटी सी चूक होने पर पगार कटने की पीड़ा और ना जाने क्या क्या। इन सभी समस्याओं से मीता और राज को भी रोज़ दो चार होना पड़ता है, पर इसी दौरान दोनों को ये एहसास भी होता है कि ज़िंदादिली तो इन लोगों में है। 
फ़िल्म में एक सीन है वो भावुक कर देता है और उस सीन में दीपक डोबरियाल दिल जीत लेते हैं। सीन यूं है कि स्कूल में बच्चों का एडमिशन तो फ्री है पर एक्स्ट्रा कैरिक्युलर एक्टिविटीज के लिए 24 हज़ार रुपए जमा कराने होते हैं तो राज का दोस्त एक गाड़ी के नीचे जान बूझकर आ जाता है ताकि मामला रफ़ा दफा करने से जो पैसे मिले उससे राज पिया की वो फीस भर सके। फ़िल्म अंत तक बांधे रखती है। इरफ़ान का किरदार ज़बरदस्त है, लगता ही नहीं वो चांदनी चौक के नहीं है। मेथड एक्टिंग सीखनी हो तो कलाकार इरफ़ान के किरदारों से सीखें। दीपक और सबा क़मर (मीता) ने भी बहुत अच्छा काम किया है। ऐसी फिल्में मनोरंजन के साथ साथ दृष्टि निर्माण का भी काम करती हैं। साकेत चौधरी को ऐसी बेहतरीन फ़िल्म बनाने के लिए साधुवाद। फ़िल्म अमेजॉन प्राइम पर उपलब्ध है।

Wednesday, May 13, 2020

फ़िल्म #Thegoal की समीक्षा

फ़िल्म #Thegoal की समीक्षा ( यादों में इरफ़ान सीरीज...11) 

आज यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान अभिनीत फिल्म #Thegoal देखी जो चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी ऑफ इंडिया के बैनर तले बनी थी। ये फ़िल्म 1999 में रिलीज़ हुई थी और इसका निर्देशन किया था गुल बहार सिंह जी ने। गुल बहार सिंह जी को उम्दा फिल्मों के निर्देशन के लिए छः बार नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड से नवाजा जा चुका है। डेढ़ घंटे की #Thegoal भी उनकी बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है जिसमें इरफ़ान खान ने एक कोच अनुपम की भूमिका निभाई है। इरफ़ान ने कभी एक ही तरह के किरदार नहीं निभाए बल्कि वो हमेशा अपने अभिनय को परखते रहे उसे और निखारते रहे। अभिनय उनके लिए किसी साधना से कम नहीं था और वो एक योगी की भांति अथक, अनवरत एकाग्रचित हो इस साधना में लीन रहे। वो कभी भी फिल्मों के बड़े बैनर और फिल्मों के आर्थिक जोड़ तोड़ के हिसाब में कभी नहीं पड़े। वो एक विशुद्ध सरल हृदय, सजग और बेबाक अभिनेता थे जो कई किरदारों के रूप में हमारी स्मृतियों में सदैव जीवित रहेंगे। 
फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि अनुपम (इरफ़ान खान) जो बेहतरीन फुटबाल खिलाड़ी थे गहरी चोट के कारण आगे फुटबाल नहीं खेल पाए पर इस खेल से अत्यंत प्रेम होने के कारण वो फुटबाल कोच बन गए। उनके एक मित्र प्रकाश ने अपने क्लब के प्रेसिडेंट बंकिम बाबू के आग्रह पर अनुपम को कलकत्ता से अपने शहर आकर उनके क्लब की बच्चों की टीम बुलेट इलेवन को कोच करने के लिए बुलाया क्यूंकि बंकिम बाबू की हार्दिक इच्छा थी कि भुवन मोहिनी चैलेंज कप के सिल्वर जुबली के उपलक्ष्य पर इस बार ट्रॉफी बुलेट इलेवन ही जीते। इरफ़ान एक ईमानदार कोच की तरह अपनी टीम पर काम शुरू करते हैं, टीम की खामियों पर काम करते हैं और टीम को इस खेल की बारीकियां समझाते हैं। वो बंकिम बाबू से भी साफ साफ कहते हैं कि कोई उनके काम में दखलंदाजी नहीं करेगा, सुझाव दे सकता है पर उस सुझाव को अमल में लाना है या नहीं उसका निर्णय वो खुद लेंगे। बंकिम बाबू को तो बस ट्रॉफी दिखाई देती है बाकी अनुपम क्य और कैसे करना चाहते हैं इससे उनको कोई लेना देना नहीं पर बंकिम बाबू अपने कमिटमेंट के पक्के होते हैं और जो भी कहना होता है साफ साफ कहते हैं। बच्चों की टीम को कोच करने के दौरान अनुपम देखते हैं कि एक गरीब लड़का बड़े ध्यान से अनुपम को कोच करते हुए चुपचाप देखता रहता है और जब फुटबॉल उसके पास पहुंचती है तो वो अच्छा शॉट लगाता है। वो लड़का (मनु) अनुपम से उसे भी टीम में खिलाने के लिए कहता है पर क्यूंकि वो क्लब का मेंबर नहीं होता अनुपम मजबूरीवश उसे टीम में नहीं रख पाते लेकिन उसे प्रैक्टिस पर रोज़ आने को कहते हैं। एक दिन अनुपम मनु को अच्छा खेलने पर बीस रुपए देते हैं और कहते हैं इससे कुछ अच्छा खाने के लिए खरीदना तो मनु बारह रुपए की फुटबॉल खरीदता है और चविंगम और बाकी का बचा पैसा अपनी मां को देने लगता है तो मां उसे डांटने लगती है और पूछती है कि कहीं वो भी तो अपने पिता की तरह कहीं से चोरी करके नहीं लाया? बाप के गुनाहों का साया मनु का पीछा नहीं छोड़ता, सब उसे चोर का बेटा कह कर बुलाते हैं और इसी कारण अच्छा खेलने के बावजूद बुलेट इलेवन के बच्चे मनु को अपनी टीम में रखने के अनुपम के फैसले का पुरजोर विरोध करते हैं और बच्चों के मां बाप भी। अनुपम जानते हैं कि मनु में अपार संभावनाएं हैं और यदि उसको सही मार्गदर्शन मिले तो वह नेशनल फुटबॉल प्लयेर बन सकता है, मनु वो गुदड़ी का लाल है जिसे सही मौका देने की ज़रूरत है।  अनुपम शहर से दूर दराज के इलाकों में कोच करने की हामी ही इसलिए भरते हैं ताकि वो गावों में पल रहे गुदड़ी के लालों की प्रतिभा को निखार सकें और उनके लिए उनसे जो बन सके हर संभव प्रयास करें। जब उनकी टीम के लोग मनु को अपनी टीम में रखने के लिए तैयार नहीं होते तो अनुपम मनु को लेकर अपनी प्रतिद्वंदी टीम के प्रेसिडेंट और कोच तक के पास जाते हैं ताकि उसकी प्रतिभा अभावों में दम ना तोड़ दे। जिस तरह एक शिष्य को अच्छे गुरु की तलाश होती है ठीक उसी तरह एक गुरु भी अच्छे शिष्य की तलाश में होता है ताकि जौहरी की भांति वो उस हीरे को तराश सके। 
फ़िल्म का डायरेक्शन शानदार है। फ़िल्म की शूटिंग बंगाली पृष्टभूमि पर आधारित है। बंकिम बाबू का किरदार भी लाजवाब है। उनके हाव भाव, संवाद अदायगी ज़बरदस्त है। इरफ़ान के बारे में तो जितना कहूं कम ही होगा। उन्हें जो भी किरदार दिया जाता है वो हर किरदार में फिट बैठते हैं। कहीं भी इरफ़ान ये गुंजाइश ही नहीं छोड़ते कि हम उनके एक किरदार में किसी और अभिनेता को उनसे ज़्यादा बेहतर पाएं। फ़िल्म एक सशक्त संदेश देती है कि प्रतिभाओं के पंख होते हैं और वो अपनी मंज़िल खुद ही ढूंढ़ लेती हैं। ये फ़िल्म आपको ज़रूर देखनी चाहिए साथ ही अपने मित्रों को भी सजेस्ट करनी चाहिए। फ़िल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है।

Tuesday, May 12, 2020

फ़िल्म #Dday की समीक्षा

फ़िल्म #Dday  की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...10)

आज (12/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान खान की फिल्म #Dday देखी है जिसमें इरफ़ान के साथ साथ मुख्य भूमिका में हैं ऋषी कपूर, अर्जुन रामपाल और हुमा कुरैशी। 2013 में रिलीज़ हुई #Dday   एक ऐक्शन थ्रिलर फिल्म है जिसका निर्देशन किया है निखिल आडवाणी ने। ये फ़िल्म आधारित है डी कंपनी के ही एक मोस्ट वांटेड अंडर वर्ल्ड माफिया पर जिसको पकड़कर भारत लाने के मिशन का हिस्सा होते हैं रॉ एजेंट वली खान (इरफ़ान खान) जो पिछले नौ सालों से अपने मिशन को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान में नाई बनकर पड़े रहते हैं।
वली खान रॉ के एजेंट हैं जिन्हें भारत के इंटेलिजेंस हेड अश्विनी राव के द्वारा गोल्डमैन को भारत लाने के मिशन पर पाकिस्तान भेजा जाता है। वली खान अपने मिशन को अंजाम देने के लिए नौ साल तक गुमनामी के साए में एक नाई बनकर पाकिस्तान में पड़े रहते हैं, इसी दौरान उन्हें नफीसा (श्रीस्वरा) से पाकिस्तान में मोहब्बत हो जाती है और वो नफीसा और अपने पांच वर्षीय बेटे कबीर के साथ अभावों में भी हंसी खुशी जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं कि तभी उन्हें मस्ज़िद में नमाज़ अता करते हुए पता चलता है कि इक़बाल सेठ कारांची में अपने बेटे की शादी में शामिल होने के लिए अपनी सुरक्षा प्रोटोकॉल को तोड़ेगा और वही सबसे अच्छा मौका होगा मिशन को अंजाम देने के लिए। वली रॉ के हेड अश्विनी राव को फोन लगाकर इस सूचना की जानकारी देता है। भारत से वली की मदद के लिए दो और एजेंट आते हैं रुद्र प्रताप (अर्जुन रामपाल) और जोया रहमान (हुमा कुरैशी) और एक एजेंट पहले से इकबाल सेठ के यहां तैनात था। चारो अपनी जान की बाजी लगा कर मिशन को अंजाम देते हैं पर मिशन फेल हो जाता है क्यूंकि वली इक़बाल को ज़िंदा गिरफ्त में लेना चाहता था और रुद्र उसे वहीं ढेर कर देना चाहता था। इधर मिशन को अंजाम देने से पहले वली अपने बीवी बच्चे को सुरक्षित लंदन भेज देना चाहता था ताकि उन पर कोई आंच न आए पर खुदा को कुछ और ही मंजूर था यूरोप की सारी फ्लाइट्स किसी आपदा के कारण रद्द हो जाती हैं और कबीर और नफीसा लंदन नहीं जा पाते और पाकिस्तानी सेना के गिरफ्त में आ जाते हैं। क्या वली अपने बीवी बच्चों को बचा पाएगा और खुद ज़िंदा रह रह पाएगा, इक़बाल को ज़िंदा अपने मुल्क भारत को सौंपने का वली का ख़्वाब पूरा होगा पाएगा, इन सारे सवालों के जवाब जानने के लिए आपको ये फ़िल्म देखनी होगी तब ही आपको मज़ा आएगा। 
इस फ़िल्म के ज़रिए उन रॉ या दूसरी खुफिया एजेंसियों के एजेंट के दर्द को भी दिखाया गया है जो अपने देश की खातिर सालों साल दूसरे मुल्क में गुमनामी के साए में जीते रहते हैं अपनी जान की फ़िकर किए बग़ैर पर अगर कहीं मिशन फेल हो जाए तो वहीं खूफिया एजेंसी उन एजेंट्स को पहचानने से मना कर देती हैं और साफ साफ पल्ला झाड़ लेती हैं, उनकी सालों की कुर्बानी ज़ाया हो जाती है, और इस दौरान अगर बीवी बच्चे दुश्मन के हाथों लग गए तो और आफत। सभी कलाकारों ने अच्छा काम किया है। ऋषी कपूर ने इक़बाल के किरदार को प्रभावी ढंग से निभाने की भरसक कोशिश की है, अर्जुन रामपाल के एंग्री यंग मैन वाला किरदार भी अच्छा है। वली के किरदार के विविध आयामों को इरफ़ान खान ने बेहद खूबसूरत ढंग से निभाया हैं। बच्चे और बीवी से ना मिलपाने की कसक, हर वक़्त डर के उस साए में जीने की बेचैनी कि कहीं नफीसा और कबीर को कुछ हो ना जाए इन सभी भावों को इरफ़ान ने बड़े ही सादगी से निभाया है। सचमुच इरफ़ान अभिनय के लिए ही बने थे।

Saturday, May 9, 2020

फ़िल्म #Thenamesake की समीक्षा

फ़िल्म #Thenamesake की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...09)
यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत आज (08/05/2020) इरफ़ान खान, तब्बू, काल पेन अभिनीत मीरा नायर की क्लासिक फ़िल्म #Thenamesake देखी। झुंपा लाहिड़ी के नॉवेल #Thenamesake के साथ मीरा नायर ने यकीनन न्याय किया है इसमें कोई दो राय नहीं है। 2006 में रिलीज़ हुई ये फ़िल्म अंग्रेज़ी ड्रामा फ़िल्म है जिसमें इरफ़ान और तब्बू को एक कपल के रूप में साथ देखना किसी ट्रीट से कम नहीं। दोनों ने अपने अपने किरदार को बख़ूबी जिया है। वो कहीं भी अभिनय करते नजर नहीं आते बल्कि किरदार की काया में डूबे नज़र आते हैं। दोनों ही बंगाल से नहीं हैं पर उनकी संवाद अदायगी से महसूस नहीं होता कि एक का नाता राजस्थान की माटी से है तो दूसरे का तालुक हैदराबाद से। इस फिल्म के ज़रिए दो पीढ़ियों के बीच के अंतर को बड़ी ही बारीकी से संजीदगी के साथ करीने से उठाया गया है। एक पीढ़ी अशोक (इरफ़ान खान) और आशिमा (तब्बू) की है जो हिंदुस्तान के कलकत्ता से अमेरिका पलायन करते हैं अपने और अपने आने वाले बच्चों के सुनहरे भविष्य के ख़्वाब संजोए और दूसरी पीढ़ी आशिमा और अशोक गांगुली के बच्चों गोगोल (काल पेन) और सोनिया (साहिरा नायर) की है जो अमेरिका में ही जन्मे और बड़े हुए हैं। पहली पीढ़ी की परवरिश में हिंदुस्तान के संस्कार झलकते हैं तो दूसरी पीढ़ी की परवरिश में अमरीकी परिवेश की स्वच्छंदता जहां बच्चे सोलह साल की उम्र तक आते आते अपनी ज़िन्दगी के फैसले ख़ुद लेने लग जाते हैं। तब्बू एक सीन में अपने बेटे से नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहती है "डोंट कॉल अस गाइज" हम तुम्हारे मां बाबा हैं। 
फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि अशोक गांगुली जो कि पेशे से प्रोफेसर हैं अपनी पत्नी आशिमा के साथ कलकत्ता से अमेरिका की ओर पलायन बेहतर भविष्य का सपना संजोए करते हैं। आशिमा यहां अपने घर परिवार और परिवेश को बहुत मिस करती है पर ये सोचकर मन मार लेती है कि बच्चों के लिए यहां ज़्यादा संभावनाएं हैं, बेहतर भविष्य है, कैरियर की असीम उचाईयां हैं और ज़िम्मेदार मां बाप होने के नाते हमारा ये फ़र्ज़ है कि हम अपने बच्चों के बारे में सोचें अपने बारे में नहीं। जब अशोक और आशिमा का बेटा होता है तो अशोक उसका नाम अपने चहेते रशियन उपन्यासकार निकोलाई गोगोल के नाम पर अस्थाई तौर पर गोगोल रखता है क्यूंकि अमेरिका में बच्चे के नामकरण के बिना जच्चा बच्चा को अस्पताल से छुट्टी नहीं मिलती। गोगोल का यही नाम आगे भी चलता रहता है। जब वो बड़ा होता है उसके संगी साथी गौग़ल कह कर चिढ़ाते है वो अपना नाम बदलना चाहता है, अपने पिता से कहता है गोगोल आपके फेवरेट ऑथर होंगे मेरे नहीं, मुझे ये नाम नहीं चाहिए।  इरफ़ान बड़े ही प्यार से बेटे को उसके नाम की वजह बताता है यहां तक कि उसके जन्म दिन पर उसे निकोलाई गोगोल की किताब भी पढ़ने को देता है। उस वक़्त गोगोल को पिता की बातें समझ में नहीं आती और जब आती हैं तब तक उसके पिता इस दुनिया से कूच कर गए होते हैं। पिता के जाने के बाद बेटे को उनके ना होने का एहसास होता है, वो अपनी अमेरिकन गर्लफ्रेंड को छोड़ कर एक बंगाली लड़की से शादी करता है। ये फ़िल्म एक तरह से एक बेटे के अपने घर, अपनी जड़ों की ओर लौटने की कहानी है। इस फ़िल्म के ज़रिए डायरेक्टर ने ये भ्रांति भी तोड़ने की भी कोशिश की है कि ज़रूरी नहीं आप अपने समाज के ही लड़के या लड़की से शादी करें तो ही ज़िन्दगी बेहतर होगी। शादी के लिए दो इंसानों का आपसी ताल मेल ज़रूरी है। गोगोल के किरदार को काल पेन ने भी बड़े ही प्रभावशाली ढंग से निभाया है। इरफ़ान और तब्बू के साथ साथ गोगोल यानि काल पेन की छवि भी अब तक मेरी आंखों में है। ये फ़िल्म बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है जिसे आपको मिस नहीं करना चाहिए। इस फ़िल्म को अपनी व्यू लिस्ट में आप सबसे ऊपर रख सकते हैं। इरफ़ान के दुनियां छोड़कर जाने वाला सीन और उसके बाद तब्बू और गोगोल की ज़िन्दगी में आने वाला बदलाव बड़ा ही मार्मिक है।

Thursday, May 7, 2020

फ़िल्म #Deadline की समीक्षा

फ़िल्म #Deadline की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...08) 

 आज (07/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत  इरफ़ान खान और कोंकणा सेन शर्मा अभिनीत फ़िल्म #Deadline देखी जो लगभग पौने दो घंटे की फ़िल्म है जिसे इश्क़, मदहोशी, मिले ना मिले हम जैसी फ़िल्म के स्क्रीन प्ले लेखन या निर्देशन कर चुके तनवीर खान ने निर्देशित की थी। यह फ़िल्म 2006 में रिलीज़ हुई थी। फ़िल्म का कॉन्सेप्ट अच्छा है क्यूंकि ये फ़िल्म अंग्रेज़ी फ़िल्म ट्रप्ड का  बॉलीवुड एडपटेशन है जो ग्रेग इल्स के उपन्यास 24 ऑवर्स पर आधारित थी। पर फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर चल नहीं पाई। फ़िल्म एक बच्ची के अपहरण की कहानी है। 
हार्ट सर्जन डॉक्टर वीरेन गोयनका, उनकी पत्नी संजना और आठ नौ वर्षीय बेटी अनिष्का की ज़िन्दगी अच्छी चल रही थी। कुछ ही समय में डॉक्टर साहब का खुद का बहुत बड़ा हार्ट का हॉस्पिटल तैयार होने जा रहा था, मेडिकल एसोसिएशन के द्वारा बड़े अवॉर्ड से उन्हें नवाजा जाना था कि तब ही अचानक उनकी ज़िन्दगी में भूचाल आता है और कुछ ही पलों में सब कुछ बदल जाता है। इधर डॉक्टर साहब अवॉर्ड के लिए दूसरे शहर आते हैं और उधर उनकी इकलौती बेटी का घर के भीतर से अपहरण हो जाता है। अपहरणकर्ता फिरौती में बड़ी रकम मांगता है और मांग बढ़ाता ही जाता है। तीन लोगों की गैंग में से एक व्यक्ति डॉक्टर के पास, एक उसकी पत्नि के पास और तीसरा बेटी के पास होता है जो हर आधे घण्टे में एक दूसरे से स्थिति का जायज़ा लेते रहते हैं। डॉक्टर की बच्ची अस्थमा की मरीज़ होती है जिसे हर चार घंटे में दवा की ज़रूरत होती है और उसे धूल, धुएं  से एलर्जी होती है। इरफ़ान खान ने इस फ़िल्म में अपहरणकर्ता (कृश वैद्य) का किरदार निभाया है। अपहरणकर्ता होने के बावजूद इरफ़ान के भीतर कहीं एक बाप बैठा होता है जो जैसे ही यह सुनता है कि बच्ची को अस्थमा है तुरंत अपने साथी को फोन करता है और बच्ची को धूल, धुएं से बचाने को कहता है, अपने साथी को हिदायत देता है कि वो उसके सामने सिगरेट ना पिए इतना ही नहीं जब संजना बच्ची के गम में कुछ नहीं खाती पीती तो उसे उसकी भी चिंता होती है। वो संजना को बच्ची की ज़रूरी दवाइयों और इन्हेलर के साथ बच्ची के पास भी ले जाता है। बेटी को खो देने का डर क्या और कैसा होता है उस एहसास को वीरेन गोयनका (रजित कपूर) ने भी बखूबी निभाया है। कोंकणा भी उम्दा अभिनेत्री हैं, संजना के किरदार को बेहतरीन ढंग से निभाने में सफल रही है। कृष वैद्य संजना और वीरेन को डराने के लिए ये ज़रूर कहता है कि वो पेशेवर अपहरणकर्ता है पर होता नहीं है। वो क्यूं ऐसा करता है, पैसों की ज़रूरत होने के कारण या डॉक्टर से कोई बदला  लेने के लिए, इन सारे सवालों के जवाब फ़िल्म देखते हुए आपको मिल जाएंगे। फ़िल्म एक पॉजिटिव नोट पर ख़तम होती है और एक बड़ा संदेश देती है कि डॉक्टर और व्यापारियों में फर्क है और अगर ज़िन्दगी देने वाला ही ज़िन्दगी छिन जाने की वजह बन जाए तो लोग डॉक्टर को धरती पर भगवान मानना बन्द कर देंगे। 
 ज़ाकिर हुसैन ने इरफ़ान के साथी कबीर के किरदार में दिल छू लिया है। जब वो लोग अन्नी का अपहरण कर रहे थे तो कबीर साथ में उसकी डॉल भी ले लेता है ताकि बच्ची उससे खेलती रहे उसे ज़्यादा तकलीफ ना हो और आखिर में वही उस बच्ची का बेस्ट फ्रेंड बन जाता है। ये फ़िल्म एक बार देखी जा सकती है और यू ट्यूब पर उपलब्ध है।

Wednesday, May 6, 2020

फ़िल्म #तलवार की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...07)

फ़िल्म #Talvar की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...07)

कल रात (06/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान अभिनीत फिल्म #Talvar देखी जिसे निर्देशित किया है मेघना गुलज़ार ने। ये फ़िल्म 2008 में हुए आरुषि हत्या कांड डबल मर्डर केस पर आधारित है। फ़िल्म का निर्देशन,पटकथा, सभी किरदारों का अभिनय, गीत और संगीत सभी उम्दा हैं। 2015 में रिलीज़ हुई इस फिल्म को बेस्ट स्क्रीन प्ले के लिए नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड भी मिल चुका है साथ ही बेस्ट एडिटिंग के लिए फ़िल्म फेयर अवॉर्ड भी। हालाकि फ़िल्म ने अपनी लागत से ज़्यादा कमा लिया लेकिन अफसोस गहन मुद्दे पर बनी तलवार जैसी फिल्में बहुत अच्छी कमाई नहीं कर पाती। यद्यपि इसके कई कारण है जैसे फ़िल्म की डिस्ट्रीब्यूटरशिप, फ़िल्म एक साथ कितने मल्टीप्लेक्स में लगी, फ़िल्म की प्रोमोशनल स्ट्रैटजी क्या थी आदि आदि पर इन सबके साथ एक और अहम बात है कि हम बतौर दर्शक ऐसी फिल्मों को देखने के लिए खुद कितने सजग हैं, क्या हम चलताऊ मनोरंजन के आदी हो चुके हैं जहां जब तक शीला की जवानी के जलवे ना बिखरे या जब तक कोई मुन्नी बदनाम ना हो, इश्क़ का मंजन ना घिसा जाए तब तक पैसा वसूल वाली फीलिंग्स ही नहीं आती। बतौर दर्शक हमारे पास बहुत बड़ी ताकत है और हमें इस ताकत का इल्म होना चाहिए ताकि हम बेहतरीन सिनेमा देखने के अधिकारी बने। ये फ़िल्म कई पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करती है और हमें चीज़ों को नए एंगल से सोचने के लिए मजबूर करती है। तलवार में इस बात को भी बड़े करीने से उठाया गया है कि जब हम सिस्टम के आगे झुकते ही चले जाते हैं तो एक दिन ऐसा आता है कि रीढ़ की हड्डी ही गायब हो जाती है, यस सर यस सर करते करते सर जी के ग़लत होने पर भी मुंह से नो नहीं निकल पाता और जो सिस्टम की नहीं अपनी अंतरात्मा की सुनते हैं सिस्टम या तो उन्हें डाइजेस्ट नहीं कर पाता और आरोप पत्यारोप की राजनीति करके उसे सिस्टम से बाहर निकाल फेंकता है या फिर उसके आगे स्वयं नतमस्तक हो जाता है हालाकि पहली स्थिति की संभावना के आसार ज़्यादा है क्यूंकि सिस्टम में रहने वाले  ज़्यादातर लोगों की रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है। सबूतों को तोड़ने मरोड़ने, गवाहों के साथ किए जाने वाले खिलवाड़ की बानगी है ये फ़िल्म। 
फ़िल्म की कहानी तेरह वर्षीय आरुषि तलवार डबल मर्डर केस पर आधारित है जो 2008 में हुआ था। फ़िल्म में श्रुति के साथ साथ उसके घर में काम करने वाले अधेड़ उम्र के खेम्पाल का भी मर्डर हो जाता है। शक की सुइयां टंडन दंपत्ति पर जा रही थीं। पुलिस ने तो श्रुति के खेंपाल से अवैध संबंध बताकर इसे ऑनर किलिंग का मामला बता केस को क्लोज़ करना चाहा पर दबाव के चलते ये केस सीडीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर अश्विन कुमार (इरफ़ान खान) को हैंडल करने के लिए दिया जाता है। ये केस जब अश्विन कुमार को मिला तब तक कई सबूतों का आपस में घाल मेल हो चुका था लेकिन फ़िर भी अपने तज़ुर्बे के आधार पर अश्विन केस का रुख ही मोड़ देते हैं वो जुटाए गए सबूतों और शक की बिनाह पर किए गए नार्को टेस्ट से इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि टंडन दंपत्ति बेगुनाह हैं, मर्डर किसी और ने ही किया है। अश्विन को गुनहगार के घर से खेमपाल के खून के छीटों वाला तकिए का कवर भी बरामद होता है साथ ही एक नौकर गवाही देने के लिए भी तैयार हो जाता है कि तभी कहानी में ट्विस्ट आता है। जिस ऑफिसर के अंडर में अश्विन इस केस को हैंडल कर रहे थे उनका रिटायरमेंट हो जाता है और उनकी जगह आया नया अफसर पूरा का पूरा केस ही बदल देता है और अश्विन कुमार को इस केस से निकाल नई टीम बनाता है। नई टीम केस को अपने तरीके से हैंडल करती है पर इन सबका नतीजा ये होता है कि कोई फाइनल डिसीजन ना हो पाने के कारण चार्जशीट दाखिल नहीं हो पाती और केस मिस्ट्री बनकर रह जाता है। 
इरफ़ान ने हमेशा की तरह इस फिल्म में सीडीआई के ऑफिसर की भूमिका को भी लाजवाब ढंग से निभाया, केस में उनका डूबते जाना, कहीं सख्ती तो कहीं नर्मी से पेश आना, भिगोकर तर्क के साथ सामने वाले को बड़े प्यार से मारना, उनका हर एक एक्सप्रेशन और संवाद बेहद प्रभावशाली लगता है। रमेश टंडन और नूपुर टंडन के किरदार को नीरज काबी और कोकना सेन शर्मा ने भी बख़ूबी निभाया है। इस फ़िल्म का एक डायलॉग मुझे बहुत अच्छा लगा कि: सबूत और सजा जच्चा बच्चा की तरह होते हैं, जितनी मज़बूत जच्चा उतनी पक्की सज़ा। सबूत के साथ की गई छेड़खानी सज़ा को कमज़ोर कर देती है और कई बार तो गुनहगार बाहर और बेगुनाह सलाखों के पीछे होता है। लाजवाब फ़िल्म है, ना देखी हो तो वक़्त निकाल कर ज़रूर देखिएगा। ये फ़िल्म आपको डिज़्नी हॉट स्टार पर मिल जाएगी।

Tuesday, May 5, 2020

फ़िल्म #Haasil की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...05)

फ़िल्म #Haasil की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...05)

 आज (03/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान की फिल्म #Haasil देखी जो 2003 में रिलीज़ हुई थी। तिग्मांशु धूलिया निर्देशित #Haasil ही वो फ़िल्म है जिसने बतौर ऐक्टर इरफ़ान को पहचान दिलाई और इस फ़िल्म के लिए उन्हें बेस्ट नेगेटिव किरदार निभाने के लिए फ़िल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला था। कहते हैं तिग्मांशु और इरफ़ान एनएसडी टाइम से एक दूसरे के अच्छे दोस्त थे और अपना दोस्ताना तिग्मांशु ने इरफ़ान के अंतिम सफ़र तक निभाया, इरफ़ान का जनाजा तिग्मांशु के कांधे पर ही गया, आज के समय में ऐसी दोस्ती कम ही देखने को मिलती है। इरफ़ान और तिग्मांशु की ये जोड़ी पान सिंह तोमर में भी देखने को मिली।
हासिल फ़िल्म की कहानी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स पर आधारित है जिसमें दो गुटों के बीच पिसती है एक कपल की मोहब्बत भी। रणविजय (इरफ़ान खान) और गौरीशंकर (आशुतोष राणा) दो अलग अलग गुटों के छात्र नेता है और दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा होता है। इधर यूनिवर्सिटी में सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा होता है और उधर गोली चलने की आवाज़ आती है, गौरीशंकर वीसी को आश्वस्त करता है कि वो परेशान ना हों वो जाकर देखता है कि आखिर मामला क्या है? जाकर देखने पर पता चलता है कि रणविजय और इसके गुट के लोगों के बीच लड़ाई झगड़ा चल रहा है। रणविजय पिछड़े वर्ग के छात्रों का प्रतिनिधित्व करता है और यूनिवर्सिटी में लॉ का स्टूडेंट है, गौरीशंकर यूनिवर्सिटी का पूर्व छात्र है पर उसका भाई बद्रीनाथ पांडेय युनिवर्सटी में ही पढ़ता है। यूनिवर्सिटी में छात्र संघ का चुनाव होने वाला होता है एक तरफ बद्रीनाथ छात्र नेता के प्रत्याशी के रूप में है तो दूसरी तरफ रणविजय है। गौरीशंकर को विधानसभा का चुनाव लडना है इसलिए वो रणविजय से पंगा लेकर अपनी इमेज खराब नहीं करना चाहता पर जब रणविजय उसके खास आदमी को मार देता है तो बदला लेने के लिए वो रणविजय के गांव के कई लोगों को मरवा देता है, इस बात का बदला रणविजय गौरीशंकर को गोली मारकर लेता है और दूसरी तरफ वो छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में भी चुना जाता है। साथ ही पैरलल एक और कहानी चलती है अनिरुद्ध (जिमी शेरगिल) और निहारिका (ऋषिता भट्ट) की प्रेम कहानी। अनिरुद्ध जाने अनजाने रणविजय के संपर्क में आता है और धीरे धीरे उसके ट्रैप में फंसता जाता है। रणविजय अनिरुद्ध का भरोसा जीतता है, वो निहारिका से मिल सके उसकी व्यवस्था करता है पर धीरे धीरे रणविजय भी निहारिका से प्रेम करने लगता है और उसे पाने के लिए वो अनिरुद्ध को उससे दूर करने की पूरी रणनीति बनता है। क्या रणविजय को निहारिका हासिल होगी, क्या वो अपने मकसद में कामयाब हो पाएगा जानने के लिए फ़िल्म देखिएगा ज़रूर। 
इरफ़ान ने नेगेटिव कैरेक्टर को बख़ूबी निभाया है। इस फ़िल्म में अपने किरदार में इलाहाबादी टच लाने के लिए इरफ़ान सात आठ दिन जाकर इलाहाबाद रहे, लोगों से बातचीत की, इलाहाबादी टोन को पकड़ने की कोशिश की और यकीन मानिए ऐसा लगता ही नहीं कि इरफ़ान इलाहाबाद से नहीं बल्कि राजस्थान से हैं। इरफ़ान मेथड एक्टिंग को बख़ूबी निभाने वाले उम्दा अभिनेता थे। जिमी शेरगिल और आशुतोष राणा का किरदार भी अच्छा है पर सब पर भारी इरफ़ान ही पड़ते हैं। उनकी व्यंगात्मक हंसी, चेहरे के एक्सप्रेशंस, बातें करती आंखें उनके किरदार को ज़बरदस्त बनाती है।

फ़िल्म #SalaamBombay की समीक्षा (यादों में इरफ़ान...06)

फ़िल्म #SalaamBombay की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...06)

 आज (05/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत  मीरा नायर निर्देशित, 1988 में रिलीज़ हुई फ़िल्म #SalaamBombay फ़िल्म देखी। इस फिल्म से ही इरफ़ान खान को बॉलीवुड में ब्रेक मिला, उस वक़्त इरफ़ान एनएसडी (राष्ट्रीय नाट्यविद्यालय) के छात्र थे। हालाकि इस फ़िल्म में उनका रोल बहुत ही छोटा है, वो एक चिट्ठी लिखने वाले होते हैं और आप उन्हें उस वक़्त नोटिस कर सकते हैं जब चाय पाव यानि कृष्णा (शफीक सैय्यद) इरफ़ान से अपनी मां के लिए चिट्ठी लिखवाने आता है। मीरा नायर की ये फ़िल्म बॉम्बे के फुटपाथ और तंग गलियों में ज़िन्दगी बसर करने वाले गली के बच्चों पर आधारित है। ये कहानी उन ख्वाबों के टूटने की कहानी है जो कृष्णा, चिलम, मंजू, मंजू की मां और सोलह साल सभी की आंखों में पलते हैं। एक बेहतर ज़िन्दगी जीने की आस में तिल तिल रोज़ मरते ख़्वाब की कहानी सलाम बॉम्बे। 

कहानी के केंद्र में है ग्यारह बारह साल का कृष्णा जो इस उम्मीद में बॉम्बे आ गया कि जिस दिन उसके पास पांच सौ रुपए इकट्ठे हो जाएंगे वो अपने मुल्क अपनी मां के पास लौट जाएगा क्यूंकि उसने गुस्से में अपने भाई की मोटरबाइक तोड़ दी थी तो मां ने कहा था अब घर वापस तब ही आना जब 500 रुपए हो मोटरबाइक सुधरवाने के लिए और वो पांच सौ रुपए वो लाख मेहनत करने के बाद भी नहीं जोड़ पाता। वो पांच सौ रुपए कमाने के लिए एक सर्कस में काम करता है, सर्कस के मास्टर के लिए पान मसाला लेने जाता है और वापस आकर देखता है तो सर्कस कंपनी वहां नहीं होती, कृष्णा जैसे तैसे बॉम्बे पहुंचता है, वहां एक चाय पाव की दुकान में काम करने लगता है और सभी उसे चाय पाव कहकर बुलाने लगते हैं, कोई उसे कृष्णा कहकर नहीं बुलाता, ये शहर उससे उसकी पहचान ही छीन लेता है, बड़ी मुश्किल से अपनी उम्र से दुगुनी उम्र का एक दोस्त चिलम (रघुवीर यादव)) मिलता है पर ऊपर वाला वह दोस्त भी उससे छीन लेता है। कृष्णा अपने मुल्क जाने की उम्मीद लिए चाय पाव की दुकान से नौकरी छूट जाने के बाद कई तरह के काम करता है: बूचड़ खाने की दुकान पर, शादी पार्टियों में वेटर का काम, छोटी मोटी लूट खसोट भी पर बॉम्बे की गलियों में रहने वाले दूसरे बच्चों की तरह वो नहीं हो पाया था, उसमें संवेदना और दूसरों के लिए दया अब भी बाकी थी तब ही वो चिलम को पैसे देने से मना नहीं कर पाता, सोलह साल के लिए मंजू के हाथों बिस्कुट का पैकेट भेजता है, चिलम जब बहुत थक हार जाता है तो चाय पाव मालिक से एक चाय चिलम के लिए भी मांगता है। जिस रेड लाइट एरिया में कृष्णा चाय देने जाता था वहां एक लगभग सोलह साल की नई लड़की को लाया गया था, वो रोती बिलखती रहती है और वैश्यावृत्ति के लिए तैयार नहीं होती। कृष्णा को उस पर दया आती है और धीरे धीरे वो उस सोलह साल की तरफ आकर्षित होने लगता है पर उस सोलह साल को बाबा (नाना पाटेकर) अपने प्रेम जाल में फांस लेता है और उसे उस कोठे से निकाल बेहतर ज़िन्दगी देने का वादा करता है। वो भोली लड़की ये नहीं जानती की उसे काबू में लाने के लिए कोठेवाली बाई ने बाबा को उसे प्रेम से हैंडल करने के लिए बोला था और उसके लिए बाबा को एक हज़ार रुपए मिलने थे। कृष्णा की निगाहें सोलह साल को सज संवारकर किसी की कार में बैठे कहीं जाते हुए तक रहीं थीं और सोलह साल की आंखें उम्मीद भरी निगाहों से बाबा की ओर देख रहीं थीं पर कोई कुछ नहीं कर पाता और इस तरह एक और ज़िन्दगी झोंक दी जाती है वासना के गर्त में। दूसरी तरफ एक और कहानी है मंजू और मंजू की मां की। मंजू की मां को बाबा ये कहकर कोठे से उठाकर अपने घर लाया था कि अब उसे नर्क की ज़िन्दगी नहीं जीनी पड़ेगी, वो उससे शादी करेगा पर वो कोठे से तो निकल आती है पर मजबूरन कोठा उससे नहीं निकल पाता उसे यहां भी वही करना पड़ता है पैसों के लिए। वेदना से भरी हर कहानी को देखकर बरबस आह निकल पड़ी है। लाजवाब। नहीं देखी तो ज़रूर देखिएगा।

Saturday, May 2, 2020

फ़िल्म #रोग की समीक्षा ( यादों में इरफ़ान सीरीज... 04)

फ़िल्म #Rog की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...04) 
 
आज (02/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत  उनकी फ़िल्म #Rog देखी जो एक रोमांटिक थ्रिलर मूवी है जिसे डायरेक्ट किया है हिमांशु ब्रमहभट्ट ने, लिखा है महेश भट्ट ने और इस फ़िल्म की प्रोड्यूसर हैं पूजा भट्ट। इरफ़ान की यह फ़िल्म 2005 में रिलीज़ हुई थी। रोग एक मर्डर मिस्ट्री है जिसे सुलझाने वाले पुलिस ऑफिसर उदय प्रताप (इरफ़ान खान) को उस मॉडल की तस्वीर से प्यार हो जाता है जिसकी मर्डर मिस्ट्री सुलझाने वो मौकाए वारदात पर उसके घर पहुंचता है। महेश भट्ट की फ़िल्मों की एक खासियत है, उनकी फ़िल्म हिट हो ना हो पर उनके गाने बहुत शानदार होते हैं, इस फ़िल्म के भी तीनों गाने: मैंने दिल से कहा ढूंढ़ लाना खुशी, खूबसूरत है वो इतना, तेरे इस जहां में बेहद खूबसूरत और सिचुएशनल हैं। इरफ़ान की सबसे बड़ी खासियत ये है कि वो एक्टिंग करते हुए कहीं भी दिखाई नहीं देते बल्कि उस किरदार को जीते नज़र आते हैं। इस फ़िल्म में भी आपको इरफ़ान के किरदार से मोहब्बत हो जाएगी, उनकी बेचैनी, आंखों से छलकता दर्द, उस मॉडल की तस्वीर से बेपनाह म मोहब्बत, उससे बाहर ना निकल पाने की बेचैनी, जितना दूर जाने की कोशश करे उतना गहराई में उतरते जाना, रात रात भर सो ना पाना इन सारे भावों को इरफ़ान ने बड़ी ही सहजता से निभाया है। इश्क़ के रोग से ग्रसित वो भी रूहानी इश्क़ के रोग के मारे इरफ़ान की अदायगी देखने लायक है इस फ़िल्म में। इरफ़ान की बोलती आंखें, क़ातिल मुस्कान, सहज, सरल मगर प्रभावशाली संवाद और अभिनय की अदायगी उन्हें श्रेष्ठ कलाकारों की पंक्ति में खड़ा करता है और इसके लिए वो हमेशा याद किए जाएंगे। 
फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी है कि माया सोलोमन (इलेने हमन्न) नाम की एक नामचीन मॉडल का मर्डर हो जाता है  और उस मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने के लिए पुलिस ऑफिसर उदय प्रताप को भेजा जाता है। उदय जब उस मॉडल के घर पहुंचता है तो उसकी सम्मोहक तस्वीर की तरफ खुद ब खुद खिंचा चला जाता है और रही सही कसर उस मॉडल का पत्रकार दोस्त हर्ष (सुहैल खान) पूरी कर देता है माया की तारीफों के पुल बांध कर, ये बताकर कि उसमें एक गज़ब का आकर्षण था। उदय माया की डायरी पढ़ता है और उसमें डूबता चला जाता है। रह रह कर उसे माया का चेहरा याद आता है और वो सोते सोते जाग जाता है, उसकी स्थिति एक पागल दीवाने सी हो जाती है। उदय का दोस्त कहता भी है, तुझे प्यार भी हुआ तो एक मरी हुई लड़की से? माया के मर्डर के लिए शक की सुइयां उसके पत्रकार एवं लेखक दोस्त हर्ष, लवर अली और आंटी श्यामुली पर जाती हैं क्यूंकि माया की कहानी किसी पहेली से कम नहीं थी। हर्ष माया से प्यार करता है, उसे एक साधारण सी लड़की से एक टॉप क्लास मॉडल बनाता है पर माया अली की ओर आकर्षित होने लगती है। अली एक वूमेनायीजर है, नीना नाम की लड़की उससे बेइंतहां मोहब्बत करती है पर अली माया की तरफ आकर्षित होता है साथ ही उसके रिश्ते माया की आंटी श्यामली के साथ भी हैं, हर्ष को माया और अली की नजदीकियां बर्दाश्त नहीं होती। उदय इन्हीं सारी गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करता है कि तब ही अचानक से माया आ जाती है। माया को ज़िंदा देख उदय हक्का बक्का रह जाता है पर फिर उसे समझ आ जाता है कि मरने वाली लड़की कोई और नहीं नीना थी। पर नीना को आखिर किसने मारा और क्यूं? जानने के लिए ये मूवी देखेंगे तो मज़ा आएगा आपको। 
इरफ़ान और सुहैल की ऐक्टिंग के अलावा और किरदारों खासकर लीड एक्ट्रेस ऐक्टिंग के मामले में कमज़ोर नज़र अाई, सारा दारोमदार इस फ़िल्म में इरफ़ान के अभिनय पर टिका था। लीड एक्ट्रेस ओवर एक्सपोज करने के बावजूद अपने किरदार को प्रभावशाली नहीं बना पाई। उस फ़िल्म को आप इरफ़ान के अभिनय को देखने के लिए ज़रूर देख सकते हैं। वो आपको निराश नहीं करेंगे।

फ़िल्म #Nero'sguests की समीक्षा

फ़िल्म #Nero'sguests की समीक्षा 

कल रात मिशन #Sensiblecinema के तहत दीपा भाटिया निर्देशित एक घंटे की डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म Nero'sguests देखी जो  विदर्भ के किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की त्रासदी को बयां करती है। इस फ़िल्म को सजेस्ट करने के लिए मित्र ऋत्विक मुखर्जी का आभार। यकीनन एक घंटे की ये डॉक्यूमेंटरी भारतीय अन्नदाताओं की दयनीय दशा के मूल कारणों को जिस ढंग से उठाती है, किसानों पर काम करने वाले द हिन्दू के रूरल अफेयर्स एडिटर पी साईनाथ जिस ओजपूर्ण ढंग से सरकार से दहकते सवाल करते हैं उन्हें सुनकर आला हुक़्मरान की बोलती बंद हो जाती है। ये विडंबना नहीं तो और क्या है कि जो देश साठ प्रतिशत कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर है उस देश के अन्नदाता आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। विदर्भ पूर्वी महाराष्ट्र का वो हिस्सा है जहां से 1992 के बाद से आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं पर मीडिया ने इस मुद्दे को उठाना ज़रूरी नहीं समझा। भला हो पी साईनाथ जैसे संवेदनशील पत्रकारों का जिन्होंने अपनी लेखनी के ज़रिए देश और सरकार का ध्यान इस ज्वलंत मुद्दे की ओर आकर्षित किया और बताया कि फैशन, बिजनेस, पॉलिटिकल रिपोर्टिंग से इतर रूरल रिपोर्टिंग भी ज़रूरी है क्यूंकि असली भारत आज भी गांवों में बसता है जिसके मुद्दे मैनस्ट्रीम में जगह ही नहीं पाते। बड़े अफसोस की बात है कि जब कोई फैशन वीक मनाया जाता है तो उसे कवर करने के लिए देश के कोने कोने से फैशन पत्रकार इकट्ठा हो जाते हैं और फैशन वीक को ग्रैंड कवरेज मिलता है पर जब देश का कोई अन्नदाता मारता है तो उसे कवर करने के लिए एक भी पत्रकार नहीं आता। सरकारी आंकड़ों के अनुसार विदर्भ के अब तक दो लाख से ज़्यादा किसान अपनी जान गवा चुके हैं। विदर्भ कॉटन की उपज के लिए जाना जाता है पर 1990 के बाद चली उदारीकरण की बयार, सरकार का किसानों के प्रति गैरजिम्मेदार रवैया, खाद बीज का सस्ते दामों पर उपलब्ध ना होना, सिंचाई की सुविधा का ना होना, बिजली की आपूर्ति, उपज का उचित दाम आदि ना मिलने के कारण किसान कर्ज़ में डूबता ही चला जाता है और जब उसे कहीं से भी उम्मीद की किरण नहीं दिखाई देती तो मजबूरन वो आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाता है। इस देश का दुर्भाग्य तो देखिए किसानों की मदद के लिए सरकार के पास फंड नहीं होता पर बड़े बड़े बिजनेसमैन को अरबों का कर्ज़, सस्ते दामों पर बिजली और ज़मीन मुहैया कराई जाती है, स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन बनाए जाते है ताकि उनका व्यापार खूब फले फूले। खेती को घाटे का सौदा इसलिए साबित किया जा रहा है ताकि आने वाले समय में किसान खेती छोड़ दिहाड़ी मजदूर बन जाए और बड़ी बड़ी कंपनियों को खेत की ज़मीन लीज पर देकर सरकार कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा दे सके। शिक्षा, स्वास्थ्य की तरह खेती का भी निजीकरण किया जा सके। पी साईनाथ को सुनना अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है। मौका निकालकर इस फ़िल्म को ज़रूर देखिएगा, आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार की आंखों से छलकता दर्द आपको बेचैन कर देगा। नीरो रोम का आखरी शासक था जो बड़ा ही क्रूर था, अपने राजनैतिक फायदे के लिए किसी को भी मरवा देना उसके लिए बड़ी बात नहीं थी। पी साईनाथ जेएनयू के हिस्ट्री के छात्र रहे हैं इसलिए उन्होंने रोम के नीरो का ज़िक्र करते हुए उनके गेस्ट्स के हवाले से विदर्भ में मर रहे किसानों के मुद्दे को बेहद संजीदगी से उठाया है।
दीपा भाटिया वही हैं जिन्होंने तारे जमीं पर, माई नेम इज़ खान, काई पूछे, स्टूडेंट ऑफ द ईयर जैसी फिल्में एडिट की है। दीपा भाटिया स्क्रीन राईटर एवं डायरेक्टर अमोल गुप्ते की पत्नि हैं। इस संवेदनशील मुद्दे को डॉक्यूमेंटरी के ज़रिए उठाने के लिए दीपा को साधुवाद साथ ही पी साईनाथ जी को भी।

Friday, May 1, 2020

फ़िल्म #Maqbool की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...03)

फ़िल्म #Maqbool की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...03) 
आज (01/05/2020) मिशन #Sensiblecinema और यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत फ़िल्म #मकबूल दोबारा देखी। विशाल भाद्वाज द्वारा निर्देशित, 2003 में रिलीज़ हुई मकबूल "मैकबेथ" का ऐडपटेशन है। फ़िल्म में पंकज कपूर, इरफ़ान खान, ओम पुरी, नसरुद्दीन शाह और तब्बू जैसे दिग्गज कलाकारों ने काम किया है। वैसे तो अंडरवर्ल्ड पर भारतीय सिनेमा में कई फ़िल्में बनी हैं पर मकबूल की बात ही अलग है। शुरू के 10 मिनट तक फ़िल्म समझ में नहीं आती फिर धीरे धीरे एक एक लेयर खुलती जाती है और फ़िल्म की कहानी समझ में आने लगती है और कौतूहल बढ़ता जाता है। फ़िल्म की पटकथा, संवाद, अभिनय और संगीत सब कुछ लाजवाब है। ये फ़िल्म कहानी है अंडरवर्ल्ड के मकबूल (इरफ़ान खान) और उसकी प्रेयसी निम्मा (तब्बू) के अपराधबोध की। कहावत भी है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। हम जो बोते हैं वही काटते हैं। स्वार्थ या किसी मोह के वशीभूत होकर जब हम कोई ग़लत राह पर चल पड़ते हैं तो हमारा ज़मीर बार बार हमें ऐसा ना करने के लिए रोकता टोकता है, हमें सदा देता है पर हम उसे नजरअंदाज कर आगे निकल जाते हैं। पर वक़्त की मार बड़ी ज़ालिम होती है हुज़ूर, कोई रियायत नहीं मिलती, अपने किए का अपराधबोध हर वक़्त हमें सालता रहता है, साए की तरह हमारा पीछा करता रहता है, हमसे जोंक की तरह चिपक जाता है और ऐसा ही होता है मियां मकबूल और निम्मा के साथ भी। 
जहांगीर उर्फ बब्बा जी (पंकज कपूर) जो मुंबई के डॉन के नाम से जाना जाता वो किसी ज़माने में लालजी नाम के डॉन का दाहिना हाथ माना जाता था। लालजी के मारे जाने के बाद जहांगीर उनकी गद्दी पर बैठता है और अंडरवर्ल्ड के सारे काम यहां तक की नेताओं पर कमांड भी वही रखता है। मकबूल (इरफ़ान खान) बचपन से ही बब्बा जी के साथ रहा है उनका वफादार और चहेता होता है। बब्बा जी उम्र दराज होने के बावजूद आशिक़ मिज़ाज के होते हैं, उनकी बेटी की उम्र की लड़की (तब्बू) से निकाह किया और उसके इश्क़ की गिरफ्त में होते हैं पर तब्बू का दिल मकबूल पर आ जाता है और धीरे धीरे वो भी तब्बू को पसंद करने लगता है पर ये डर हर वक़्त उसे सताता है कि अगर बब्बा जी को उन दोनों के बारे में पता चल गया तो क्या होगा पर बेखौफ तब्बू बस किसी भी हाल में मकबूल की हो जाना चाहती है। वो मकबूल को उकसाती है कि वो बब्बा जी को मार दे या फिर उसे मार डाले और तब्बू के इश्क़ के वशीभूत हो मकबूल बब्बा जी को मार देता है और उनकी जगह ले लेता है। यहीं से मकबूल का पतन होना शुरू होता है, वो अपराधबोध की अग्नि में जलता रहता है, हर वक़्त डरा सहम, हर किसी को शक की निगाह से देखता है। यहां तक कि निम्मा के पेट में पलने वाले अपने बच्चे को भी बब्बा जी का बच्चा समझता है। इधर निम्मा को भी लगता है बब्बा जी के खून के धब्बे दीवार पर और छींटे उसके चेहरे पर अब तक हैं, वो अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है। मकबूल के सौ दुश्मन तैयार हो जाते हैं। फ़िल्म में मकबूल का किरदार खलनायक का है पर फिर भी मकबूल से नफ़रत नहीं होती, लगता है वो उसके सर पर मंडरा रहे मौत के साए से बस किसी तरह बाहर आ जाए। 
बब्बा जी के किरदार को पंकज कपूर ने ज़बरदस्त तरीके से निभाया है, उनके संवाद, उनकी आंखें और भाव भंगिमा लाजवाब हैं। इस फ़िल्म में उनके अभिनय की खूब सराहना हुई है। तब्बू और इरफ़ान की लुका छिपी वाली मोहब्बत देखते ही बनती है। पुलिस वाले पंडित जी (ओम पुरी) की भविष्यवाणी भी कौतूहल पैदा करती है कि भला अब आगे क्या होने वाला है। इरफ़ान का अभिनय दिल को छूता है। अंत में उनकी आखों से झलकता दर्द देखकर ऐसा लगता है मानो वो ऊपर वाले से अपने गुनाहों की माफी मांग रहा हो। जटिल से जटिल किरदार को बड़ी ही सहजता से निभा लेने गज़ब का हुनर था इरफ़ान में।