फ़िल्म #Haider की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...19)
कल रात (29/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत् फ़िल्म #हैदर देखी जिसमें मुख्य किरदार हैदर की भूमिका निभाई है शाहिद कपूर ने। इस फ़िल्म में उनके अभिनय की खूब तारीफ हुई और इसके लिए शाहिद ने स्क्रीन अवॉर्ड, आईआईएफए अवॉर्ड, फिल्म फेयर के साथ साथ अन्य ढेरों अवॉर्ड्स भी बटोरे। शाहिद के साथ साथ के के मेनन और तबू को भी बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर के लिए कई अवॉर्ड्स मिले। इस फ़िल्म ने कई नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड भी जीते साथ ही बॉक्स ऑफिस पर भी खूब धूम मचाई। विशाल भारद्वाज की इस फ़िल्म में इरफ़ान खान ने रूहदार के किरदार में स्पेशल अपीयरेंस दी है जो यकीनन रूह को छू जाती है। 2014 में गांधी जयंती के दिन रिलीज़ हुई फ़िल्म #हैदर शांति का पैग़ाम देती है। ये एहसास कराती है कि इंतकाम और बदले की भावना से सिर्फ नफ़रत और इंतकाम ही पैदा होता है, सच्चे अर्थों में हमें इस बदले की भावना से आज़ादी चाहिए।
मकबूल और ओमकारा के बाद फ़िल्म हैदर विशाल भारद्वाज की सेक्सपियर की रचनाओं पर आधारित तीसरी फ़िल्म है। ये कहना अतिश्योक्ति ना होगी कि सेक्सपियर के नाटक हैमलेट का अडपटेशन विशाल भारद्वाज ने जिस ढंग से भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया है और इसके ज़रिए जिस बारीकी से उन्होंने कश्मीर की समस्याओं को उठाया है वो काबिले तारीफ़ है। ये फ़िल्म ये साबित करती है कि भारद्वाज एक सजग और संवेदनशील निर्देशक हैं जिनका सामाजिक सरोकारों से भी गहरा नाता है क्यूंकि उनकी फिल्में दृष्टि निर्माण का भी कार्य करती हैं।
फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि डॉक्टर हिलाल मीर (नरेंद्र झा) एक मिलिटेंट का ऑपरेशन करने के लिए उसे अपने घर ले आते हैं क्यूंकि उस वक़्त वो इंसान उनके लिए एक मरीज़ की भूमिका में था जिसकी ज़िन्दगी बचाना उनका धर्म था। ये बात उनके और उनकी पत्नी गज़ाला (तब्बू) के संवाद से भी उस वक़्त स्पष्ट हो जाती है जब तब्बू उनसे पूछती है: डॉक्टर साहब आप किसकी तरफ हैं तो डॉक्टर हिलाल कहते हैं: ज़िन्दगी की तरफ। ये खबर किसी मुखबिर के ज़रिए फौज तक पहुंच जाती है और सज़ा के तौर पर पहले तो डॉक्टर साहब का घर बम से उड़ा दिया जाता है और फिर उन्हें भी गायब कर दिया जाता है। डॉक्टर साहब प्रतिनिधित्व करते हैं उन तमाम कश्मीरी लोगों का जो शक की बिनाह पर फौज के द्वारा नजरबंद किए गए और गायब कर दिए गए। वो डिटेंशन सेंटर में ज़िंदा हैं या मर गए इसका उनके घर वालों को कुछ भी पता नहीं चलता, उनके हाथों में अगर कुछ होता है तो वो है सिर्फ इंतज़ार। वो कश्मीरी औरतें जिनके पतियों को फौज के आदमी पकड़ कर ले जाते हैं, जो डिटेंशन सेंटर में डाल दिए जाते हैं उन्हें कश्मीर में "हाफ विडो" यानि आधी बेवा कहा जाता है क्यूंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वो ज़िंदा अपने घर लौट पाएगा या नहीं। कश्मीर में आए दिन फौज का क्रैक डाउन होता है और हर समय वहां रह रहे लोगों से उनका पहचान पत्र दिखाने को कहा जाता है। आम कश्मीरी अपना पहचान पत्र इस कदर पुलिस वालों को दिखाने का आदी हो गया है कि कई बार ना पूछे जाने पर भी डर के मारे वो खट से अपना पहचान पत्र दिखाने लग जाता है। इस मुद्दे को फ़िल्म में निर्देशक ने संजीदगी से उठाया है। फ़िल्म में एक सीन बड़ा ही हृदय विदारक़ है जब एक कश्मीरी अपने घर के दरवाज़े पर घंटों खड़ा रहता है तो अर्शिया (श्रद्धा कपूर) जो पेशे से पत्रकार होती है वो रुहदार से पूछती है कि आखिर वो अपने घर के भीतर क्यूं नहीं जाता तो रुहदार उस इंसान के पास जाता है और उसका पहचान पत्र देखता है तब वो अपने घर के अंदर जाता है तो रुहदार अर्शिया से कहता है कश्मीरियों को ये नई तरह की मानसिक बीमारी हो गई है, उन्हें इतनी बार अपनी पहचान बतानी पड़ती है कि अपने घर के भीतर भी बिना पहचान पत्र दिखाए जाने की उनकी हिम्मत नहीं होती। लोगों से ज़्यादा फौज से भरे कश्मीर के बारे में फ़िल्म में एक जगह कहा भी जाता है कि : कश्मीर में ऊपर ख़ुदा है तो नीचे फौज।
हैदर (शाहिद कपूर) जो अलीगढ़ में अंग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन कर रहा होता है उसे जब अपने पिता के गायब हो जाने की खबर मिलती है तो वो सब कुछ छोड़ कर कश्मीर आ जाता है। वो सीन बहुत ही भावुक करने वाला है जहां हैदर बदहवास सा लगभग राख में तब्दील हो चुके अपने घर में अपने अब्बू जी की निशानियां तलाशता है। उनके जूते, अपना बैट, अम्मी अब्बू की आधी जली तस्वीर उसे भीतर से तोड़ देती हैं। उस वक़्त हैदर और बुरी तरह से टूट जाता है जब वो अपनी अम्मी को अपने चचा खुर्रम (के के मेनन) के साथ नाचते गाते देखता है। अब्बू के गायब हो जाने और अम्मी के बेवफ़ा होने जाने का ग़म उसे भीतर ही भीतर सालता रहता है ऐसे में उसे रुहदार (इरफ़ान खान) अपने साथ ले जाता है और बताता है कि वो और उसके अब्बू एक ही डिटेंशन सेंटर में थे जहां उन्हें खूब प्रताड़ित किया गया और हाथ पैर बांधकर उन दोनों को मरने के लिए झेलम में फेंक दिया गया था। रुहदार तो जैसे तैसे रस्सी खुल जाने से बच जाता है पर हैदर के अब्बू की मौत हो जाती है। रुहदार हैदर से कहता है कि तुम्हारे अब्बू ने तुम्हारे लिए एक पैग़ाम दिया था, उन्होंने ने कहा था कि तुम अपने चाचा खुरम से उनकी मौत और तुम्हारी मां पर फरेब डालने का बदला लेना और अपनी मां को छोड़ देना, उसका हिसाब अल्लाह करेगा।
फ़िल्म में एक डांस ड्रामा है "बिस्मिल बिस्मिल" जिसे शाहिद ने बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से प्रस्तुत किया है, जिसे देख और सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस गाने के लिए सुखविंदर सिंह और इसे कोरिग्राफ करने के लिए इसके कोरियोग्राफर को नेशनल अवॉर्ड भी मिला है।
आत्म ग्लानि के भाव को किरदारों के माध्यम से उकेरने में विशाल भारद्वाज सिद्ध हस्त हैं। जिस तरह से मकबूल में इरफ़ान खान और तब्बू को पंकज कपूर यानि अब्बा जी को मारने की ग्लानि होती है उसी तरह इस फ़िल्म में भी के के मेनन को अंत में अपने भाई को फरेब से मरवा देने की ग्लानि होती है और वो अपने भतीजे हैदर से मौत मांगता है पर वो भी उसे नसीब नहीं होती।
ये फ़िल्म हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है जो ज़िन्दगी के कई सबक सिखला जाती है। वो प्रेम जिसकी इमारत फरेब की नींव पर रखी गई हो वो इमारत एक दिन खुद ब खुद धराशाई हो जाती है। एक गलती कई बार बहुत कुछ हमसे छीन लेती है। क्यूं कोई हैदर बंदूक उठाता है और कैसे कोई युवा मिलिटेंट बन जाता है इस बात को इस फ़िल्म में बड़े ही संजीदगी से दिखाया गया है। कश्मीर की सफेद चादर को खून के धब्बों से लाल ना करे कोई बस यही गुज़ारिश है मेरी।
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