एक थी सिंगरौली----17
अपने देश में नौकरी का आकर्षण पहले भी बहुत था अौर आज भी कम नहीं है।यह भी कटु लेकिन सत्य है कि अधिकांश लड़कियों के पिता नौकरीपेशा वाले लड़के को ही अपना दामाद बनाना पसंद करते हैं।छोटे मोटे व्यापार, खेती किसानी करने वाले लड़कों से जल्दी कोई अपनी बेटी नहीं ब्याहना चाहता है।इसीलिए शुरू शुरू में लोगों ने बिजलीघरों के लिये जमीनें दीं क्योंकी नौकरी के साथ साथ परियोजना की कालोनी में सहने के लिये क्वार्टर भी मिल रहा था जहां बिजली ,नल,सड़क,स्कूल,अस्पताल,शापिंग काम्प्लेक्स,खेल के मैदान,सुन्दर पार्क जैसी सारी आधुनिक सुविधायें मौजूद थीं।एेसे में भला कौन इंकार करता।सिंगरौलिया गांव में हुई उस दिन की चर्चा में कुछ लोगों ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि शुरू में तो नौकरी का लालच था लेकिन अब तो साफ कहा जा रहा है कि नौकरी नहीं देंगे सिर्फ मुआवजा भर ही मिलेगा।आप ही बताइये कि मुआवजे की रकम से कब तक पेट पालेंगे परिवार का जब तक कि आमदनी का कोई स्थाई जरिया न हो हमारे पास।जमीन से तो हमारी पुश्त दर पुश्त खाती है।नौकरी भी तो सिर्फ एक ही पीढ़ी को मिलेगी,बाद वालों का क्या होगा।मुआवजा तो मिलने भर की देर होती है,जैसे ही रकम बैंक खाते में आयी नहीं कि हाथों में खुजली शुरू हो जाती है।एेसे में कौन होगा जो खुशी खुशी जमीन के बदले केवल मुआवजा लेकर हमेशा के लिए अपना हाथ कटवाना चाहेगा।हालत तो यह है कि जब भी जहां कहीं भी प्लांट लगने की खबर उड़ती है वहां आसपास की जमीनों के भाव तुरंत आसमान छूने लगते हैं।जमीनों का हमें जितना मुआवजा मिलता है उस रकम से उतनी जमीन खरीद पाना तो बहुत बड़ी बात है हम उसकी आधी जमीन भी नहीं खरीद पाते हैं।कभी कभी तो एेसा भी देखा गया है कि जब तक हम जमीन ढ़ूंढ़ पायें मुआवजे की सारी रकम ही खुर्द बुर्द हो जाती है। इसीलिये तो लक्ष्मी को चंचला कहा जाता है।खाते में मुआवजे की रकम आने पहले ही लड़कों की हीरोहोंडा की फरमाइश शुरू हो जाती है।हीरोहोंडा के साथ साथ और भी खर्चे तो आते हैं,पेट्रोल का खर्च,मरम्मत का खर्च वगैरह।फिर इतने भर से ही तो जान नहीं छूटती,पुरनिया सयानों को तीरथ बरत की धुन सवार होती है।नहीं तो देखा देखी में कथा भागवत तो करानी ही पड़ती है।कभी कभी तो नासमझी या अनुभवहीनता के कारण घरके लड़के ,भाई-भतीजे कोई बिजनेस शुरू करने के चक्गकर में काफी रकम डुबा देते हैं।गरज यह कि तमाम नये नये खर्चे निकल आते हैं और देखते ही देखते सारी रकम भाप की तरह उड़ जाती है।इस तरह हमने तो यही देखा है कि प्लांट के लिये जमीन देना घाटे का सौदा ही साबित हुआ है।इसलिये हम तो अपनी जमीन नहीं देना चाहेंगे प्लांट में।
सिंगरौलिया गांव में यह सब सुनकर हमारा हौसला बढ़ा,यही तो हम भी कहना चाहते थे जो हमने अब तक सिंगरौली में देखा था।तभी हमारे उत्साह पर पानी फेरते हुए एक बुजुर्ग ने कहा कि मन के लड्डू खाना अलग है और हकीकत अलग।क्या आज तक सिंगरौली में कोई प्लांट रुक पाया है।सरकार से भी जबर कोई है क्या।सरकार के पास तो पुलिस है, मिलिट्री है, जो चाहती है जब चाहती है फोर्स लगाकर कर लेती है।देखा नहीं है क्या विंध्याचल प्लांट के लिये किस तरह से मटवई बाजार खाली करवाया गया था।भूल गये क्या कि इसी प्लांट के लिये एक बार फिर फोर्स बुलाकर शाहपुर गांव खाली करवाया गया था।सुना है कि रिहंद नगर में तो एेसे दबंग को सोच समझकर ठेका दिया गया था जो अपने लठैतों के बल पर गांव वालों से जमीन खाली करवा सके।इसलिये हम तो यही देखते आये हैं कि प्लांट के लिये जमीन तो देनी ही पड़ती है चाहे खुशी से दो या टेसुआ बहाकर।तभी चर्चा का रुख मोड़ते हुए एक अपेक्षाकृत थोड़ा कम उम्र के व्यक्ति ने जो रेडियो,अखबार आदि के जरिये देश-दुनिया की खबरों से वाकिफ थे कहा कि कंपनियों की मनमानी अपने यहां सिंगरौली में कुछ ज्यादा ही चलती है जबकी दूसरे प्रदेश में लोग इनको नाकों चने चबवा देते हैं और मुआवजा भी ज्यादा लेते हैं।सौ बात की एक बात यह है कि हमारे सिंगरौली में ढ़ंग का लड़ने वाला नेता ही नहीं है वरना यह दुर्दशा नहीं होती।अभी तक तो यही देखने में आया है कि ज्यादातर लोग थोड़ा बहुत हो हल्ला मचाकर अपनी गोटी फिट करने में लग जाते हैं,बाकी जनता जाये चूल्हे भाड़ में।इतना सुनते ही वहां उपस्थित सभी लोगों ने अानन फानन में अपनी अपनी तोप का मुंह नेताअों की अोर खोल दिया और शुरू हो गया नेता पुराण।लोग रस ले लेकर नेताअों की बखिया उधेड़ने में लग गये।तमाम गड़े मुर्दे उखाड़े जाने लगे।
......,,,क्रमश:
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