एक थी सिंगरौली------19
परियोजनाअों के आने से इस इलाके में जो ऊपरी तौर पर बदलाव आये हैं उनसे नई पीढ़ी बहुत प्रभावित है।परियोजनाअों की कालोनियों,उनके शापिंंग सेन्टरों की चमक दमक,वहां के रहन सहन,खान पान ने हमारे नौजवानों को चुम्बक की तरह आकर्षित किया है।अब उन्हें अपने घरों का खाना अच्छा नहीं लगता है,हफ्ते में कम से कम एक बार उन्हें होटलबाजी करनी ही करनी है इसके लिये उन्हें चाहे जो कुछ करना पड़े।बाजार में जो देख कर आते हैं उसी तरह के नये नये फैशन के कपड़े चाहिये।लेकिन कमाई धमाई धेला भर की नहीं।खेती बाड़ी उन्हें अच्छी नहीं लगती,दूसरा हुनर कुछ आता नहीं,तो फिर एक ही रास्ता बचता है अपने शौक पूरा करने का झूठ-फरेब,चोरी-चकारी का।इन्हीं बातों को लेकर घर घर में कलह मची रहती है,सिर फुटौव्वल तक की नौबत आ पहुंचती है।अब हम अपना दुखड़ा कहें किससे।न तो सरकार सुनती है न ही पार्टियां।सरकार तक तो हमारी पहुंच ही नहीं है,न भोपल न दिल्ली।यहां का प्रशासन तो यही रटता रहता है कि सिंगरौली में बहुत विकास हो रहा है,कितनी बड़ी बड़ी परियोजनायें लग चुकीं,कितनी अभी आ रही हैं।सिंगरौली तो अब देश की ऊर्जा राजधानी हो गई है,अब और क्या चाहिये।राजनीतिक पार्टियों को हमारे दुख दर्द से भला क्या लेना देना,उन्हें तो सिर्फ वोट से मतलब रहता है,चुनाव के समय ही वे दिखलाई पड़ती हैं।
समस्या तो यह भी है कि अपनी इस हालत के लिये हम किसे जिम्मेदार ठहरायें,किसका गिरेबान पकड़ें जाकर।परियोजनायें तो टका सा यही जवाब देंगी कि हमने तो आपकी जगह जमीन कुछ लिया ही नहीं इसलिये हमारी कोई भी जवाबदारी नहीं बनती,आप सरकार को अपनी समस्या सुनाइये।यही सब सोच कर हम चुप मारकर बैठे रहते हैं ,अंदर ही अंदर कुढ़ते रहते हैं।आखिर में तुलसीदास बाबा की इस चौपाई का ही सहारा पकड़ते हैं कि-होइहैं सोइ जो राम रचि राखा को करि तर्क बढ़ावै शाखा।
यह सब सुनकर कुछ समय के लिये तो हम स्तब्ध रह गये थे।उस वक्त तो कोई जवाब नहीं सूझा था।कोई रेडीमेड जवाब है भी तो नहीं।क्योंकी यह बड़ा सवाल है व्यवस्था परिवर्तन से जुड़ा।इसके लिये तो व्यापक और बड़ी लड़ाई चाहिये,कुछ उसी तरह जैसी एक समय जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में छेड़ी गई थी जिसे उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का नाम दिया था।लेकिन वह आन्दोलन भी अपने अंजाम तक कहां पहुंच सका था।बीच में ही भटक गया था सरकार परिवर्तन तक जा कर।सत्ता लोलुप राजनेताअों ने जनता की आशाअों पर पानी फेरा था।यह सब तो अब इतिहास की बातें हैं जिन पर काफी कुछ लिखा जा चुका है।
सिंगरौलिया गांव की उस चर्चा में शामिल लोगों को तब कोई आश्वासन नहीं दे सके थे लेकिन विंध्यनगर की वापसी के समय रास्ते भर हल यही बातचीत करते आये कि अब हमें परियोजना क्षेत्र से दूर के गांवों में जा कर युवकों से समपर्क करना चाहिये और उनके बीच संगठनात्मक गतिविधियां शुरू करना चाहिये।लेकिन कुछ समय बाद ही सामाजिक कार्यकर्ता रोमा ने कुछ साथियों के साथ उत्तर प्रदेश के जनपद सोनभद्र में जमीन के मुद्दे पर एक अध्ययन शुरू किया।रोमा ने इस अध्ययन के संबंध में मधु कोहली से संपर्क किया और उन्हें इस कार्य से जोड़ा।इसी अध्ययन को लेकर जनपद सोनभद्र के मुख्यालय राबर्ट्सगंज में हुए एक सम्मेलन में कैमूर क्षेत्र मजदूर किसान संघर्ष समिति का गठन हुआ जिससे मैं भी जुड़ा।
-----क्रमश;
bhonpooo.blogspot.in
परियोजनाअों के आने से इस इलाके में जो ऊपरी तौर पर बदलाव आये हैं उनसे नई पीढ़ी बहुत प्रभावित है।परियोजनाअों की कालोनियों,उनके शापिंंग सेन्टरों की चमक दमक,वहां के रहन सहन,खान पान ने हमारे नौजवानों को चुम्बक की तरह आकर्षित किया है।अब उन्हें अपने घरों का खाना अच्छा नहीं लगता है,हफ्ते में कम से कम एक बार उन्हें होटलबाजी करनी ही करनी है इसके लिये उन्हें चाहे जो कुछ करना पड़े।बाजार में जो देख कर आते हैं उसी तरह के नये नये फैशन के कपड़े चाहिये।लेकिन कमाई धमाई धेला भर की नहीं।खेती बाड़ी उन्हें अच्छी नहीं लगती,दूसरा हुनर कुछ आता नहीं,तो फिर एक ही रास्ता बचता है अपने शौक पूरा करने का झूठ-फरेब,चोरी-चकारी का।इन्हीं बातों को लेकर घर घर में कलह मची रहती है,सिर फुटौव्वल तक की नौबत आ पहुंचती है।अब हम अपना दुखड़ा कहें किससे।न तो सरकार सुनती है न ही पार्टियां।सरकार तक तो हमारी पहुंच ही नहीं है,न भोपल न दिल्ली।यहां का प्रशासन तो यही रटता रहता है कि सिंगरौली में बहुत विकास हो रहा है,कितनी बड़ी बड़ी परियोजनायें लग चुकीं,कितनी अभी आ रही हैं।सिंगरौली तो अब देश की ऊर्जा राजधानी हो गई है,अब और क्या चाहिये।राजनीतिक पार्टियों को हमारे दुख दर्द से भला क्या लेना देना,उन्हें तो सिर्फ वोट से मतलब रहता है,चुनाव के समय ही वे दिखलाई पड़ती हैं।
समस्या तो यह भी है कि अपनी इस हालत के लिये हम किसे जिम्मेदार ठहरायें,किसका गिरेबान पकड़ें जाकर।परियोजनायें तो टका सा यही जवाब देंगी कि हमने तो आपकी जगह जमीन कुछ लिया ही नहीं इसलिये हमारी कोई भी जवाबदारी नहीं बनती,आप सरकार को अपनी समस्या सुनाइये।यही सब सोच कर हम चुप मारकर बैठे रहते हैं ,अंदर ही अंदर कुढ़ते रहते हैं।आखिर में तुलसीदास बाबा की इस चौपाई का ही सहारा पकड़ते हैं कि-होइहैं सोइ जो राम रचि राखा को करि तर्क बढ़ावै शाखा।
यह सब सुनकर कुछ समय के लिये तो हम स्तब्ध रह गये थे।उस वक्त तो कोई जवाब नहीं सूझा था।कोई रेडीमेड जवाब है भी तो नहीं।क्योंकी यह बड़ा सवाल है व्यवस्था परिवर्तन से जुड़ा।इसके लिये तो व्यापक और बड़ी लड़ाई चाहिये,कुछ उसी तरह जैसी एक समय जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में छेड़ी गई थी जिसे उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का नाम दिया था।लेकिन वह आन्दोलन भी अपने अंजाम तक कहां पहुंच सका था।बीच में ही भटक गया था सरकार परिवर्तन तक जा कर।सत्ता लोलुप राजनेताअों ने जनता की आशाअों पर पानी फेरा था।यह सब तो अब इतिहास की बातें हैं जिन पर काफी कुछ लिखा जा चुका है।
सिंगरौलिया गांव की उस चर्चा में शामिल लोगों को तब कोई आश्वासन नहीं दे सके थे लेकिन विंध्यनगर की वापसी के समय रास्ते भर हल यही बातचीत करते आये कि अब हमें परियोजना क्षेत्र से दूर के गांवों में जा कर युवकों से समपर्क करना चाहिये और उनके बीच संगठनात्मक गतिविधियां शुरू करना चाहिये।लेकिन कुछ समय बाद ही सामाजिक कार्यकर्ता रोमा ने कुछ साथियों के साथ उत्तर प्रदेश के जनपद सोनभद्र में जमीन के मुद्दे पर एक अध्ययन शुरू किया।रोमा ने इस अध्ययन के संबंध में मधु कोहली से संपर्क किया और उन्हें इस कार्य से जोड़ा।इसी अध्ययन को लेकर जनपद सोनभद्र के मुख्यालय राबर्ट्सगंज में हुए एक सम्मेलन में कैमूर क्षेत्र मजदूर किसान संघर्ष समिति का गठन हुआ जिससे मैं भी जुड़ा।
-----क्रमश;
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