Friday, May 29, 2015

कविता---- कोई यूं ही नहीं मरता


कोई यूं ही नहीं मरता
जिंदगी दांव पर नहीं रखता

बिखर जाता है पारे सा
लगाता मौत को अपने गले
होकर बहुत बेबस बहुत लाचार
जब कोई
सहारा ही नहीं मिलता
कोई यूं ही नहीं मरता

किया होगा जतन सारे
न डूबे नाव माझी ने
लड़ा होगा वह लहरों से
लिए पतवार हाथों में
हवाले लहरों के सबकुछ
कोई यूं ही नहीं करता
कोई यूं ही नहींमरता

कहे जाते बहादुर वो
निकल आए भंवर से जो
कहें कायर उन्हें कैसे
लड़े फिर भी हैं डूबे जो
सरल उपदेश देना है
कि उसमें कुछ नहीं लगता
कोई यूं ही नहीं मरता

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Sunday, May 24, 2015

सामयिक दोहे--------- बैलेंस डाइट


अभी तक तो बैलेंस डाइट का ही भूत सिर पर सवार रहता था, अब डिजिटल डाइट की भी फिक्र करनी पड़ेगी। नेट के तमाम फायदों के साथ साथ नुकसान भी कम नहीं हैं जिनसे सतर्क रहना जरूरी है खासकर बच्चों और किशोरों के बावत। इसी संदर्भ में हैं ये चंद पंक्तियां

बैलेंस डाइट के लिए अब तक थे परेशान
डिजिटल डाइट आ गया और पकड़ने कान

इंटरनेट युग सत्य है करते हम स्वीकार
खतरे भी हैं कम नहीं रहना है होशियार

साइबर क्राइम बढ़ रहा सुपरफास्ट रफ्तार
साइबर सेल बेबस हुए सरकारें लाचार

नेट की लत भी है बुरी लगे जिसे भी यार
कहे मीडियादास फिर सरल नहीं उपचार

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Tuesday, May 19, 2015

सामयिक दोहे----
इधर दिल्ली सरकार उप राज्यपाल से दो दो हाथ करने में मशगूल है, उधर दिल्ली की जनता आप के घोषणापत्र में किये गये वादों के पूरा होने का बेसब्री से इंतजार कर रही है। इसी बावत चंद दोहे पेश हैं

ध्यान हटाने के लिए करना है कुछ काम
क्यों न आओ हम करें एल जी से संग्राम

बड़े लड़इया आप हैं बात बात पर रार
इसी तरह कर जायेंगे पांच साल भी पार

जनता का दिल बड़ा है माफ करे हर बार
भागे कुर्सी छोड़ ये फिर भी बनी सरकार

दिल्ली ड्रामा देखकर जनता भी है दंग
अफसर सांसत में फंसे उड़े हैं उनके रंग

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Thursday, May 14, 2015

सामयिक दोहे.....

देखा जनाब, दिल्ली सरकार ने एक सर्कुलर निकाल कर मीडिया के नकेल डालनी चाही लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा इस सर्कुलर पर रोक लगा देने से उल्टे मुंह की खानी पड़ी। इसी संदर्भ में पेश हैं चंद दोहे

चले डालने मीडिया के थे आप नकेल
बड़ी अदालत ने दिया पीछे इन्हें धकेल

कभी मीडिया के उन्हें लगते थे प्रिय बोल
आज सताता डर कहीं और खुले न पोल

मीडिया तो चाहे खबर मिर्च-मसालेदार
फैलाए सनसनी जो होए चीॆख पुकार

मीडिया कठपुतली बना कारपोरेट के हाथ
जिधर इशारा करे वह है यह उसके साथ
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Sunday, May 10, 2015

कविता---- मदर्स डे


मां का दिन हर दिन होता है
मां से शुरू सब कुछ होता है

   जैसे रोज हवा चलती है
   नदिया रोज बहा करती है
सूरज रोज उदय होता है
मां का दिन हर दिन होता है

     जैसे पंछी रोज चहकते
     बगिया में नित फूल महकते
जंगल रोज नया होता है
मां का दिन हर दिन होता है
     मां से सुबह शाम होती है
     सांस सांस में मां होती है
मां से जग रोशन होता है
मां का दिन हर दिन होता है

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Thursday, May 7, 2015

बतकही-----
...... तेरा दरद न जाने कोय
देखने में तो यही लगता है कि संकट की इस घड़ी में सभी राजनीतिक पार्टियां किसान के साथ खड़ी हैं। राहुल गांधी ने आते ही किसान के मुद्दे पर शंखनाद कर दिया, रेल की जनरल बोगी में बैठ पंजाब की यात्रा कर किसानों से मिले, विदर्भ में पद यात्रा कर किसानों के बीच गये। इधर भारत सरकार के मंत्री नितिन गडकरी भूमि अधिग्रहण बिल पर किसी से भी बहस करने के लिए ताल ठोंक रहे हैं और दावा करते हैं कि इससे किसान को लाभ होगा। कमोबेस अन्य पार्टियां भी मौसम की मार से बदहाल किसान के लिए मातमपुर्सी कर अपनी रोटियां सेंक रही हैं, पर आम आदमी पार्टी ने तो बेशर्मी की सारी हदें तोड़ दीं जब किसानों के समर्थन में निकाली गई उनकी रैली के दौरान जंतर मंतर पर किसान गजेन्द्र ने आत्महत्या कर ली और कार्यक्रम बदस्तूर चलता रहा। यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जब शासन और विपक्ष दोनो ही किसान के साथ खड़े होने का दावा कर रहे हैं, केन्द्र और राज्य सरकारें तमाम घोषणायें कर रही हैं, आश्वासन दे रही हैं फिर भी किसानों की आत्महत्याएं रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं। यह इस बात का सबूत है कि देश के किसान को किसी पर भरोसा नहीं रहा, वह सबको तो आजमा चुका है। वह देख रहा है कि खेती से सीधे सीधे जुड़े तमाम व्यवसाय जैसे खाद, बीज, कीटनाशक, कृषियंत्र आदि तो खूब फलफूल रहे हैं बस खेती ही हमेशा घाटे का धंधा रहा। आजादी के बाद भले ही किसान जमींदारों के चंगुल से छूट गया हो पर अब वह बाजार के गहरे दलदल में बुरी तरह घंस गया है जहां आत्महत्या ही उसे छुटकारे का एकमात्र रास्ता दिखाई देती है।
         देश में अंगरेजों के आने के पहले तक राजाओं, नवाबों, जागीरदारों का जमीन पर भले ही सैद्धांतिक अधिकार रहा हो पर व्यवहार में गांव समाज का ही दखल रहता था और कृषि उपज का कुछ भाग टैक्स के रूप में राजकोष में जाता था। पहली बार अंगरेजों ने भारत में जमींदारी प्रथा लागू की। दरअसल जब बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को युद्ध में  हरा कर अगरेजों ने बंगाल की दीवानी हासिल की तब उन्हें लगा कि बिना कुछ किये धरे, बिना कोई जोखिम उठाए आमदनी का बढ़िया जरिया हाथ लग गया। फिर क्या था जल्द ही लगान वसूली के लिए पुख्ता इंतजाम किये गये। किसानों से सीधे लगान वसूल करना कठिन लगा इसलिए दबंग, असरदार लोगों को जमींदार बनाया और उन्हें जमीन के मालिकाना हक के साथ साथ तमाम अधिकार दिये, अंगरेजों की छत्रछाया तो उन्हें मिली ही थी। इस तरह से अंगरेजों ने भारत में अपना एक पिट्ठू वर्ग तैयार कर लिया जिसने किसानों का सबसे अधिक शोषण किया। उस दौर में जमींदारों द्वारा  किसानों पर किये गये अत्याचार, शोषण इतिहास के पन्नों, साहित्य, सिनेमा आदि विभिन्न माध्यमों में दर्ज हैं।
        जिस तरह वनों को सरकार की सम्पत्ति घोषित करने पर आदिवासी समाज ने अंगरेजों के खिलाफ जबरदस्त विद्रोह किये उसी प्रकार जमींदारों, साहूकारों की लूट, अत्याचार के खिलाफ किसानों नें बड़े पैमाने पर आन्दोलन किये। उस समय किसानों ने नारा दिया था जमीन जोतनेवाले की। किसान आन्दोलनों  के दबाव के चलते  ही कांगरेस ने जमींदारी प्रथा  के खात्मे को सबसे पहले नंबर पर रक्खा। आजादी मिलने पर कांगरेस सरकार ने जमींदारी विनाश कानून तो बनाया पर उसमें इतने सुराख थे कि किसान आन्दोलन का सपना-जमीन जोतनेवाले की, सपना ही रहा। इससे ज्यादातर बड़े किसानों को लाभ हुआ और वे भू स्वामी बन गये। बड़ी जोतवालों से फालतू जमीन लेकर भूमिहीनों में बांटने के लिए सीलिंग कानून लाया गया पर इस कानून को लागू करने में ही दस साल लग गये जिससे नतीजा खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाला हुआ। एक तो कानून ही बहुत लचर था, उस पर क्रियान्वयन और भी घटिया। अनुमान से बहुत कम और वह भी घटिया किस्म  की जमीन भूमिहीनों मे बटी। समाज में बढ़ते असंतोष को देखकर आनेवाले समय में खूनी संघर्ष को टालने के लिए अहिंसात्मक सामाजिक परिवर्तन का एक गैरसरकारी प्रयास गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त पर बिनोवा भावे जी ने भूदान आन्दोलन के जरिये किया। गांव गांव पद यात्राएं कर बड़े काश्तकारों को समझा बुझाकर कुल जमीन का छठवां भाग स्वेच्छा से दान करने को प्रेरित किया गया। शुरूआती सफलता के बाद आगे चलकर यह आन्दोलन भी कई कारणों से विफल रहा।
         भूमि सुधार के अब तक के प्रयास सही मायने में भूमि के पुनर्वितरण में कारगर सिद्ध नहीं हुए। पुराने जमींदार, बड़े काश्तकार किसी न किसी तरह से बड़ी मात्रा में जमीन बचाने में सफल रहे। भूमिहीन अपनी बारी आने का बस इंतजार करते रहे लेकिन जब उनके सब्र का बांध टूटा तो वे जमीन पर कब्जा करने की सीधी कार्यवाई पर उतर आये। छठवें दशक के अंतिम वर्षों तथा सातवें दशक की शुरुआत में समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टियों ने सीधे जमीन कब्जा करने के अभियान चलाए। इसी दौर में जमीन के मुद्दे पर नक्सलबाड़ी गांव से हिंसात्मक नक्सल आन्दोलन शुरु हुआ।सरकारी दमन के चलते इन प्रयासों को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकी और भूमिहीन किसानों के लिए-जो जमीन को जोते बोए वह जमीन का मालिक होए, एक नारा ही बना रहा तभी तो आज भी देश में लगभग 25 करोड़ भूमिहीन किसान हैं।
.........क्रमश:

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Tuesday, May 5, 2015

हास्य व्यंग--- माफी किसिम किसिम की


माफी मांगना कला है या विज्ञान या दोनो है इस पर विद्वानों के बीच लम्बी बहस की काफी गुंजाइस है लेकिन इस बारे में दो राय नहीं हो सकती है कि माफी का रिश्ता मानव सभ्यता से बहुत गहरा है।माफी का आविष्कार सबसे पहले किसने ,कब, कहां किया यह रिसर्च का अच्छा टापिक हो सकता है।यह इतनी उपयोगी कला है, माफ कीजियेगा आप चाहें तो इसे विज्ञान भी कह सकते हैं, कि दुनिया की हर भाषा में इसके लिये शब्द मिल जायेंगे। माफी का समानार्थी शब्द है क्षमा और दोनो के साथ याचना का भाव है क्योंकी माफी मांगी जाती है, क्षमा याचना की जाती।आप इसके लिये अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकते क्योंकी यह आपका मौलिक अधिकार नहीं है। यह पूरी तरह से दाता की मर्जी पर होता है कि वह माफी दे या साफ इंकार कर दे। जी हां यहीं पर तो इसका कला का स्वरूप सामने आता है।यहीं पर तो आपको अपना हुनर दिखाने का मौका मिलता है कि किस तरह से आप सामने वाले को अपने आंसुओं, अपनी मीठी मीठी चिकनी चुपड़ी बातों से प्रभावित कर सकते हैं। वैसे माफी मांगने की आदर्श स्थिति यह है जब  गल्ती पर सच्चे हृदय से पश्चाताप हो। इसमें उम्र, पद, धनी-निर्धन किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होता है कोई भी किसी से माफी मांग सकता है।
           माफी का दूसरा रूप भी है जो, दूसरे देशों का तो मुझे ज्यादा पता नहीं पर अपने भारत महान में खूब प्रचलित है। मुझे विश्वास है कि कभी न कभी आपका भी पाला इससे जरूर पड़ा होगा। इसमें बिना हृदय में किसी तरह की पश्चाताप की भावना उठे और कभी कभी तो बिना किसी गल्ती के सामने वाले से हाथ जोड़कर,रोते-गिड़गिड़ाते माफी मांगनी पड़ती है। इसमें माफी मांगना विवशता होती है जबकी माफी मंगवाना अपना अधिकार समझा जाता है। बचपन में इस स्थिति से मुझे बहुत बार गुजरना पड़ा है। पिताश्री के गुस्से से हम सभी लोग थर थर कांपते थे, लंबे समय तक वे एक आदर्श तानाशाह रहे। हम सभी भाई बहन इस पर एकमत थे कि हिटलर हमारे पिताश्री की तरह ही तानाशाह रहा होगा। लिहाजा जब कभी वे जोर से डांटते तो मैं रोते रोते माफी मांगने में ही अपनी खैरियत समझता था। इसी तरह स्कूल में भी सीधा होने के कारण शरारत अगल बगल के सहपाठी करते मास्टर जी की छड़ी मुझ पर पड़ती,माफी भी मांगनी पड़ती सो अलग।
           माफी की एक और भी किस्म है जिसमें माफी देने वाले के पास माफी देने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं होता चाहे हस कर दे या रोकर यानी जिसे गांव की भाषा में कहा जाय तो गुड़वा खाए परी कनवा छेदाए परी। इसे और स्पष्ट करने के लिए यह उदाहरण काफी होगा। पुरानी बात है जाड़े के दिन थे मुहल्ले में दो-तीन लोग एक जगह बैठकर धूप ले रहे थे, ट्रांजिस्टर पर गाना बज रहा था- सैंया ले गई जिया तेरी पहली नजर.....।अचानक गाना बंद हो गया। जिसका ट्रांजिस्टर था उसने तुरंत उसे उठा कर अलग अलग दिशा में घुमाया फिर उसे ठोंका-पीटा पर बेमतलब। थोड़ी ही देर बाद उदघोषक की आवाज सुनाई पड़ी कि प्रसारण में आई गड़बड़ी के कारण आप थोड़ी देर तक हमारा प्रसारण नहीं सुन सके प्रसारण में आई रुकावट के लिए हमें खेद है। इस पर जब एक से न रहा गया तो बोल ही पड़ा- जा जा माफ कीन्हा, अब आपन ट्रांजिस्टर तो पटकब ना। सामने आय के माफी मंगते तो समझ म आवत कि माफी किन तरह की होथि। पहिले तो देतेंव एक हांथ तोरे कनटाप पर फिर य बंड़वा डंडा है न डेढ़ हाथ का जमउतेंव तोरे पोंद पर,मरतेंव दस गिनतेंव एक। तब बतउतेंव कि एका कहा जात है माफी। इसी तरह भारतीय रेल से यात्रा के दौरान भी जब यह सुनना पड़ता है कि फलां ट्रेन की 12 या 13 घंटे देरी से आने की संभावना है यात्रियों को होने वाली असुविधा के लिए खेद  है, तो घर से निकल कर रेलवे प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतजार कर रहे आम यात्री के पास भारतीय रेल को माफ  करने अलावा और चारा ही क्या है।
           माफी मांगना विज्ञान भी है इस बात का ज्वलंत उदाहरण केजरीवाल साहब की माफी से बढ़कर और कहां मिलेगा। आमतौर पर विज्ञान में प्रयोगशाला में किसी प्रयोग को दोहरा कर निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है। दिल्ली की प्रयोगशाला में उन्होंने भी अपना प्रयोग दोहराया कि पहले जो मन में आये सो करो जब खूब छीछालेदर होने लगे तब बालक नादान बन कर जनता से माफी मांग लो। अब देखिये आने वाले समय में इस विज्ञान में और क्या क्या तरक्की देखने को मिलती है।
....... अजय