Tuesday, June 16, 2020

फ़िल्म #गुलाबोसिताबो की समीक्षा

फ़िल्म #Gulabositabo  की समीक्षा 

मिशन #Sensiblecinema के तहत कल (13/06/2020) रात शूजित सिरकार द्वारा निर्देशित फ़िल्म #गुलबोसिताबो देखी। ये फ़िल्म 12 जून को एमेजॉन प्राइम पर 200 देशों में एक साथ रिलीज़ हुई।फ़िल्म में मुख्य किरदार मिर्ज़ा कि भूमिका में हैं अमिताभ बच्चन साहब और बाकें का किरदार निभाया है आयुष्मान खुराना ने। अमिताभ बच्चन जी और आयुष्मान खुराना के अलावा विजय राज, बृजेश काला, फारुख ज़फ़र आदि कलाकारों की भूमिका भी काबिले तारीफ है। यूं देखा जाए तो फ़िल्म की कहानी में कोई खास दम नहीं है पर किरदारों ने फ़िल्म को संभाले रखा खासकर मिर्ज़ा के किरदार को अमिताभ जी ने जिस शिद्दत से निभाया है उसकी तारीफ की जानी चाहिए। 
एक अच्छा अभिनेता वही है जो किरदार को जी जाए और इस फ़िल्म में अमिताभ अमिताभ नहीं बल्कि मिर्ज़ा लगते हैं। वो मिर्ज़ा जिसे मोहब्बत है महज़ पैसों और फातिमा महल (अपनी बेगम की हवेली) से। वो मिर्ज़ा जिससे फातिमा बेगम पंद्रह साल बड़ी थीं फिर भी मिर्ज़ा ने उनसे निकाह किया सिर्फ उस हवेली की खातिर। वो मिर्ज़ा जो बेगम के गुज़र जाने का बेसब्री से इंतजार करता है ताकि वो हवेली उसकी हो जाए। वो मिर्ज़ा जो इतना चिंदी चोर है कि आए दिन हवेली की बेशकीमती चीजें भंगार की दुकान में औने पौने दामों में बेंच आता है। वो मिर्ज़ा जो अपनी बीवी के मरने से पहले ही उसके कफ़न का इंतजाम कर आता है। वो मिर्ज़ा जो हवेली के कागज़ात अपने नाम करने के लिए अपनी सोई हुई बीवी के अंगूठे के निशान हवेली के कागज़ात पर लगवा लेता है। वो मिर्ज़ा जो अपनी बेगम की दी हुई आखरी निशानी भी ढाई सौ में बेंच आता है। वो मिर्ज़ा जो बड़ा ही ढीठ है। मिर्ज़ा के किरदार के लिए अमिताभ जी हमेशा याद रखे जाएंगे। इलाहाबाद से होने के कारण लखनवी तहज़ीब को वो बखूबी निभा पाए हैं। मिर्ज़ा की बेगम के रूप में फारुख ज़फ़र जी का अभिनय ज़बरदस्त है, उनकी डायलॉग डिलीवरी और लखनवी नवाबी अंदाज़ ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ता है। मिर्ज़ा और बांके के बीच की नोक झोंक बिल्कुल टॉम एंड जेरी की लड़ाई की तरह मज़ेदार है। दोनों ही ढीठ हैं। 
फ़िल्म के केंद्र में है हवेली। हवेली उस नायिका की तरह है जिसपर कई लोगों की नज़र है। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत यहां चरितार्थ होती है। फातिमा महल (हवेली) को मिर्ज़ा अपनी जागीर समझता है और उसके मालिकाना हक के लिए अपनी बेगम के मरने का इंतजार करता है तो दूसरी ओर बांके (आयुष्मान खुराना) जैसे किरायेदार हैं जो सालों से हवेली में रह रहे हैं तीस रूप महीने के किराए पर वो भी कई महीनों से भरा नहीं। बांके इस फ़िराक़ में है कि बेगम और मिर्ज़ा अल्ला मियां को प्यारे हों तो हवेली उसकी हो जाए। एक ओर मुन मुन बिल्डर की गिद्द जैसी नज़र है हवेली पर तो दूसरी ओर आर्केलॉजी वाले हवेली को अपने कब्जे में लेना चाहते हैं। पर हवेली इनमें से किसी के भी हाथ नहीं लगती। सब के सब हाथ मलते रह जाते हैं और चुपड़ी रोटी मुंह में दबाकर कोई और ले जाता है। मिर्ज़ा का किरदार ऐसा है जिसपर कभी गुस्सा आता है, कभी दया तो कभी उसकी मासूमियत पर प्यार। ये फ़िल्म हमें कई सबक सिखाती है: चीज़ों से की जाने वाली मोहब्बत क्षण भंगुर होती है इसलिए उसे पैसों और चीज़ों में तलाशने के बजाए इंसानों में खोजो। दूसरी सीख ये है कि रईसी इंसान की शक्सियत में होती है। जिसकी शक्सियत रईस नहीं वो कितना भी पैसे वाला क्यूं ना हो जाए रहेगा चिंदी चोर ही मिर्ज़ा की तरह। मिर्ज़ा ने फातिमा महल से प्यार किया फातिमा से नहीं इसलिए अंत में उसे ना तो फातिमा महल मिलता है और ना ही फातिमा बेगम। किरदारों के ताने बाने के महत्व को समझने की दृष्टि से ये फ़िल्म अच्छी है।  शूजित सिरकार एक्सपेरिमेंटल फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं जिसका ट्रीटमेंट रेगुलर फिल्मों से अलग होता है। ये फ़िल्म भी वैसी ही है। फ़िल्म को आप अपने पूरे परिवार के साथ देख सकते हैं।

Wednesday, June 10, 2020

फ़िल्म #धर्म की समीक्षा

आज (10/06/2020) #Sensiblecinema के तहत् पंकज कपूर अभिनीत फ़िल्म #धर्म देखी जिसे भावना तलवार ने निर्देशित किया था और ये फ़िल्म 2007 में रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म में निर्देशक ने धर्म और प्रेम के बीच का द्वंद दिखाने की कोशिश की है। कई जगह धर्म प्रेम पर हावी होता दिखाई देता है तो कई जगह प्रेम धर्म पर भारी पड़ता नज़र आता है पर अंत में जाकर महसूस होता है कि धर्म और प्रेम एक दूसरे के पूरक हैं। सच्चा धर्म वही है जो प्रेम और सद्भावना सिखाए। ईश्वर तो हर एक में बसता है, उसे उसके सभी बच्चे प्रिय हैं। ऊंच नीच, जाति पाति, अमीर गरीब के बीच असमानता की गहरी खाई हमने खोदी है। एक संवाद में पुरोहित चतुर्वेदी (पंकज कपूर) कहते हैं : धर्म सत्य पर चलता है और सत्य कभी नहीं बदलता। हर धर्म का अटल सत्य यही है कि हम सब उस ईश्वर की संतान हैं। हर धर्म आपस में प्रेम से रहने की सीख देता है पर कुछ उन्मादी लोग धर्म की आड़ में कई अधर्म करते हैं। मज़हब के नाम पर दंगे करवाते हैं, अपने हित के लिए लोगों को लड़वाते हैं। सच्चा धर्म अहिंसक होता है वो कभी भी हिंसा को जन्म दे ही नहीं सकता। प्रेम किस तरह से किसी व्यक्ति को बदलकर रख देता है, प्रेम के वशीभूत इंसान किस कदर बेबस हो जाता है। धर्म और ममता के बीच कैसी रस्सा कस्सी चलती है इस ऊहा पोह को निर्देशक ने बखूबी दर्शाया है। एक ओर धर्म का अडिग स्वरूप है तो दूसरी ओर प्रेम, ममता और करुणा की त्रिवेणी जो हर दीवार और पर्वत की सख्त चट्टानों के बीच से कल कल, छल छल कलरव करती हुई बह निकलने के लिए आतुर है। 
एक तरफ खड़े हैं धर्म के पुरोधा पंडित चतुर्वेदी। जो बड़े ही धैर्यवान, स्थिर चित्त, गंभीर स्वभाव के व्यक्ति हैं। जिनके के लिए उनका ब्राह्मण धर्म ही सब कुछ है, उनका मान, उनकी प्रतिष्ठा, उनके जीवन का मूल आधार सभी की धुरी है धर्म तो दूसरी ओर खड़ी हैं उनकी पत्नि (सुप्रिया पाठक) जिनकी ममता एक नन्हे से अनाथ बच्चे को देकर उसे अपने पास रखने के लिए व्याकुल हो उठती है और उसके प्रेम के वशीभूत वो पंडित चतुर्वेदी से झूठ बोलती है कि वो किसी ब्राह्मण का बच्चा है। जब की वो बच्चा मुसलमान होता है। जब इस बात का पता पंडित जी को चलता है तो वो अपनी पत्नी और बेटी को सज़ा देने के बजाए खुद को ही सज़ा देने लगते हैं, चंद्रायन जैसे कठिन तप करते हैं पर फिर भी उस नन्हे बालक की छवि उनकी आंखों से ओझल नहीं हो पाती। रह रह उनके भीतर का प्रेम उस बच्चे को तलाशता है। वो उसकी यादों से जितना दूर जाना चाहते हैं वो बच्चा उन्हें रह रह कर उतना याद आता है। 
पुरोहित के किरदार को पंकज कपूर ने जीवित कर दिया है। उनके हाव भाव, उनके "महादेव" कहने का अंदाज़, बहुत प्रभावशाली है। बस पंकज कपूर यू पी वाली टोन को बेहतर ढंग से नहीं पकड़ पाए पर अपने अभिनय के ज़रिए वो इस कमी को नजरंदाज करने में सफल हुए। पंकज त्रिपाठी का रोल भी अच्छा है। फ़िल्म का कंटेंट और कॉन्टेंट का ट्रीटमेंट बेहतर हो तभी फ़िल्म सेंसिबल कहलाएगी। इस फिल्म को सजेस्ट करने के लिए मैं अपनी कलीग इशिता दास जी का शुक्रिया अदा करना चाहूंगी। 

Thursday, June 4, 2020

फ़िल्म #मुंबई मेरी जान की समीक्षा

फ़िल्म #मुंबईमेरीजान की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...21)

 यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत आज (04/06/2020)  इरफ़ान साहब की एक और फ़िल्म देखी मुंबई मेरी जान जो 2008 में रिलीज़ हुई थी जिसे निर्देशित किया था निशिकांत कामत ने। निशिकांत कामत ने ही इरफ़ान साहब को लेकर फ़िल्म #मदारी भी बनाई थी। ये फ़िल्म आधारित है 2006 के मुंबई ट्रेन ब्लास्ट्स पर। मुंबई की लाइफ लाइन मानी जाने वाली लोकल ट्रेनों में 2006 में महज़ 11 मिनट के अंदर प्रेशर कुकर बॉम्ब के ज़रिए सात अलग अलग जगहों पर धमाके हुए थे जिसमें 200 से ज़्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई और 700 के करीब लोग जख्मी हुए थे। इस हादसे ने मुंबई को हिलाकर रख दिया था, लोग लोकल ट्रेनों में चढ़ने से खौफ खाने लगे थे। 
इस फ़िल्म के जरिए डॉयरेक्टर ने उन पांच लोगों की ज़िंदगी से हमें क़रीब से रूबरू कराने की कोशिश की है जिनकी ज़िंदगियों पर ट्रेन ब्लास्ट्स का प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से असर पड़ा। एक कहानी है एक जानी मानी रिपोर्टर रूपाली जोशी (सोहा अली खान) और उसके मंगेतर की, एक कहानी है निखिल (आर माधवन) की, एक कंप्यूटर बेचने वाले सुरेश (के के मेनन) की, एक कहानी पुलिसकर्मी कदम की और उसके सीनियर तुकाराम पाटिल (परेश रावल) की और एक कहानी है दक्षिण भारत से रोज़गार की तलाश में मुंबई आए थोमस (इरफ़ान खान की)जो ट्रेन ब्लास्ट की घटना के बाद से कई फोनबूथ से पुलिस कंट्रोल रूम में मॉल्स में बॉम्ब होने की गलत सूचना देता है और फिर अफरा तफरी मच जाने  से आनंदित होता है। जुलाई 11, 2006 में हुए उस ट्रेन ब्लास्ट्स ने इन सबकी ज़िंदगियां बदलकर रख दीं। उस ब्लास्ट में रूपाली अपना मंगेतर खो बैठती है तो निखिल जो पर्यावरण प्रेमी है और इसी वजह से वो कार के बजाए ट्रांसपोर्टेशन के लिए ट्रेन का इस्तेमाल करता है वो ट्रेन में दोबारा चढ़ने का हौसला खो देता है और उस हादसे की वजह से डिप्रेशन में चला जाता है,सुरेश को मुस्लिमों से नफ़रत हो जाती है और वो सभी मुसलमान को अतंकवादी समझने लगता है, कदम को अपनी छुट्टियां कैंसल कर तुरंत अपना पुलिस स्टेशन ज्वाइन करना पड़ता है तो वो अपनी खीज दूसरों पर निकलता है, तुकाराम पाटिल जिनका कुछ ही दिनों में रिटायरमेंट होने वाला होता है उन्हें अपनी नौकरी में आखरी के कुछ दिन भी सुकून नसीब नहीं होता। थॉमस जो मॉल में बॉम्ब होने की गलत सूचना पुलिस को देता है जिससे उस मॉल में भगदड़ मच जाती है और जिसे देखकर वो मज़े लेता है जब वो देखता है कि उसकी वजह से एक बुज़ुर्ग व्यक्ति को अटैक आ गया और उसकी जान पर बन आई तो उसे बड़ी ही आत्म ग्लानि होती है और अपनी गलती का एहसास भी। 
बॉम्ब ब्लास्ट्स सिर्फ बेकसूर लोगों की जान लेकर औरों में खौफ ही पैदा नहीं करते बल्कि एक कौम विशेष के बेगुनाह लोगों के ख़िलाफ़ दूसरी कौम के लोगों में नफ़रत और शक का बीज भी बो जाते हैं जिनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। इस फ़िल्म के ज़रिए उस मीडिया पर भी करारा व्यंग किया गया है जो पीड़ित के परिवार से बड़ा ही बेतुका सा सवाल करता है "आपको कैसा लग रहा है"। जिस परिवार ने अपना अज़ीज़ खोया होगा ज़ाहिर सी बात है उसे अच्छा तो नहीं लग रहा होगा। हो सकता है वो इस मनःस्थिति में भी ना हो कि मीडिया को कोई जवाब दे सके, पर मीडिया को तो खबरों से खेलना है, संवेदनाओं को भुनाना है। दूसरों के दर्द में उन्हें हाई टीआरपी वाली स्टोरी नज़र आती है और कई बार तो खबरों को इस हद तक तोड़ा मरोड़ा जाता है कि खबर की आत्मा ही मर जाती है। ट्रेन ब्लास्ट्स में मरे और घायल हुए लोगों वाला सीन् मन विचलित कर देता है। इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत ये है कि फ़िल्म को आशावादी नज़रिए से फिल्माया गया है और आखिर में ये बताने की कोशिश की गई है कि बड़े से बड़ा हादसा मुंबई वालों के हौसलों को नहीं तोड़ पाया, बॉम्बे की रफ्तार को कम नहीं कर पाया। हर हादसे से बॉम्बे जल्द से जल्द उबर कर फिर क्रियाशील हो गया है। 
एक सीन में बतौर सीनियर पुलिस ऑफिसर तुकाराम पाटिल (परेश रावल) अपने जूनियर को समझाते हैं कि उसे पुलिस की नौकरी को एक दर्शक की माफ़िक एक फ़िल्म की तरह देखना चाहिए, उसमें एक्टिंग करने की ज़रूरत नहीं है। जहां आपने एक्टिंग करनी शुरू की वहीं कैसेट उलझ जाती है। 
जब सुरेश (के के मेनन) ट्रेन ब्लास्ट के गुनहगारों का कुछ भी पता ना लगा पाने का गुस्सा तुकाराम पाटिल पर उसे धक्का देकर निकालता है तो पाटिल पिता की तरह दरिया दिल होकर उसे माफ कर देता है और एक उदाहरण के ज़रिए बड़े प्रेम से समझाता है कि वो उसे धक्का नहीं देना चाहता बल्कि वो इस धक्का मुक्की की चेन को तोड़ना चाहता है। मजहबी धक्का मुक्की सिर्फ और सिर्फ हिंसा को जन्म देती है, नफरतों के बीज बोती है, ब्लास्टों का रूप अखतियार करती है जिससे तिल तिल मरता है आपसी प्रेम, विश्वास और भाईचारा।

Tuesday, June 2, 2020

फ़िल्म #सात ख़ून माफ़ क़ की समीक्षा

फ़िल्म सात ख़ून माफ़ की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...20) 

आज (01/006/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित फिल्म सात खून माफ देखी जिसमें मुख्य किरदार निभाया है प्रियंका चोपड़ा ने जिसके लिए उन्हें कई अवॉर्ड्स भी मिले साथ ही उनके अभिनय की सराहना भी हुए। हालाकि 2011 में अाई ये फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर तो धूम नहीं मचा पाई पर मसाला फिल्मों से इतर सेंसिबल सिनेमा पसंद करने वालों को खूब रास अाई। इस फ़िल्म को देखने की मेरे पास दो वजहें थीं: इरफ़ान खान साहब और #विशालभारद्वाज जी। दरअसल विशाल भारद्वाज जी का एक स्क्रीन प्ले मैंने #Lallantop पर पढ़ा था: #इरफ़ान और मैं। अठारह पेज के इस स्क्रीन प्ले को पढ़ते हुए मुझे लगा  कि मैंने इरफ़ान साहब जी को लेकर बनाई गई दो फिल्में मकबूल और हैदर तो देख ही ली है क्यूं ना सात ख़ून माफ़ भी देख ली जाए। इस फ़िल्म को  देखने की ललक तब और बढ़ गई जब मैंने विशाल भारद्वाज जी के स्क्रीनप्ले में पढ़ा कि इस फ़िल्म में प्रियंका का शायर पति बनने के लिए कोई तैयार नहीं हो रहा था तो विशाल साहब के मनुहार पर इरफ़ान साहब ने आखरी में हामी भारी। प्रियंका चोपड़ा के साथ साथ इस फ़िल्म में विवान शाह, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम, इरफ़ान खान, अन्नू कपूर, अलेक्जेंडर दयाचेंको, नसीरुद्दीन शाह एवं ऊषा उत्थुप हैं। रस्किन बॉन्ड जिनके नॉवेल "सुजैन्ना सेवन हसबैंड" पर ये फ़िल्म आधारित है उनका भी आखरी में गेस्ट अपीयरेंस है। ये फ़िल्म कहानी है उस सुजैन्ना की जो ज़िन्दगी से लबरेज़ है पर इश्क़ से मायूस, जो सच्ची मोहब्बत की तलाश में दर बदर भटकती है पर उसे मिलती हैं सिर्फ रुसवाईयां। खुशियों की तलाश में सुजैन्ना गम के समंदर और गुनाहों के दलदल में फंसती ही चली जाती है। कोई उसके हुस्न का दीवाना था तो किसी को उसकी दौलत से मोहब्बत थी, उसकी रूह तक कोई ना पहुंच सका। जो उससे सच्ची मोहब्बत करता था और उसके आसपास ही था उसे वह पहचान ना सकी बिल्कुल उस मृग की तरह जिसकी नाभि में कस्तूरी होती है और वो उसे इधर उधर ढूंढता है।    वो अपने जिन पतियों का ख़ून करती है उन सबके के पीछे की उसकी अपनी ठोस वजह थी। प्रेम और सुजैन्ना का मानो छत्तीस का आंकड़ा था। जन्म देते ही मां गुज़र गई, छुटपन में ही बाप का साया भी सर से उठ गया, जिसे चाहा उसमें से किसी ने उसे अपने पैर की जूती समझा, कोई कहीं और मसरूफ रहा, कोई इंसान के भेष में जानवर निकला, कोई पहले से ही शादीशुदा था, कोई दिवालिया था और उससे प्रेम का नाटक कर उसकी सारी दौलत हड़प लेना चाहता था। सब के सब उससे ही कुछ चाहते रहे, वो क्या चाहती है ये जानने की कोशिश किसे ने भी नहीं की। कभी वो सुजैन्ना से आना बनी तो कभी सुल्ताना पर नाम बदलने से तकदीरें नहीं बदलतीं। उसकी तकदीर में शायद सारे बुरे मर्द ही लिखे थे।
फ़िल्म का पहला सीन: सुजैन्ना ने अपनी कनपटी पर बंदूक तान रखी है, बेजान सा चेहरा, शुष्क होंठ, चेहरे पर क्रोध, भय और मायूसी के अलग अलग भाव आते जाते हुए और फिर एक चीख के साथ गोली की आवाज़ और सामने की दीवार रक्तरंजित।  
सुजैन्ना की कहानी अरुण कुमार (विवान शाह) अपनी पत्नि नंदिनी (कोंकणा सेन शर्मा) को सुनाता है उसे बताता है कि किस तरह साहेब (वो सुजैन्ना को साहेब बोलता था) उसका पहला प्यार थीं और जब उनका पहला पति मेजर (नील नितिन मुकेश) मरा तो वो खुशी से फूल कर गुब्बारा हुआ जा रहा था कि अब उसके और साहेब के बीच कोई तीसरा नहीं होगा पर साहेब को तो गुब्बारा नहीं गिटार पसंद था यानि उनकी लाइफ में दूसरे मर्द की एंट्री होती है जो एक गिटारिस्ट था और गाता भी था जिमी (जॉन अब्राहम)। जिमी को ड्रग्स की लत थी और वो एक नंबर का झूठा भी था। सुजैन्ना ने अपनी इस शादी को बचाने की पूरी कोशिश की पर अफसोस नहीं बचा पाई। इस पति की भी रहस्यात्मक ढंग से मौत हो जाती है। तीसरा पति शायर ( इरफ़ान ख़ान) था उसकी शायरी में जितनी मुलायमियत थी वो उतना ही सख्त और  वहशी था। चौथा पति निक एक रशियन जासूस होता है। सुजैन्ना को लगा अब शायद उसे सच्चा प्रेम मिल जाए पर यहां भी धोखा, मॉस्को में निक की पत्नि और दो बच्चे होते हैं। निक की मौत भी रहस्यात्मक ढंग से एक कुएं में गिरने और सांपों के काटने से होती है। पांचवा नंबर होता है अन्नू कपूर का को इंटेलिजेंस के ऑफिसर होते हैं और सुजैन्ना को निक की मौत के जंजाल से निकालने के लिए उससे सेक्सुअल फेवर मांगते हैं और सुजैन्ना के मोह पाश में इस कदर जकड़ जाते है कि वो जकड़न उनकी ज़िन्दगी को भी जकड़ लेती है और वो भी भगवान को प्यारे हो जाते हैं। ज़िन्दगी से हताश सुजैन्ना जब आत्महत्या करने की कोशिश करती है तो एक डॉक्टर (नसीरुद्दीन शाह) के द्वारा बचा ली जाती है। हालाकि वो उस डॉक्टर से शादी नहीं करना चाहती पर वो सुजैन्ना से शादी करना चाहता है ताकि उसकी दौलत हथिया सके। डॉक्टर सुजैन्ना को मारना चाहता है पर वो ही उसे मार देती है। आखिरी शादी वो येशु से करती है और नन बन जाती है। सब तरफ घोर अंधियारा, हताशा और निराशा, आत्म ग्लानि से भरी सुजैन्ना को अंत में येशु की शरण में सुकून मिलता है। 
प्रियंका चोपड़ा का अभिनय ज़बरदस्त है। प्रियंका इस फ़िल्म और बर्फी फ़िल्म के लिए याद की जाएंगी। विशाल भारद्वाज जी ने सुजैन्ना के सभी पतियों का चयन भी बख़ूबी किया है खासकर नसीर  साहब, इरफ़ान साहब और अन्नू कपूर का अभिनय काबिले तारीफ़ है। विवान शाह और उनके मुंहबोले बाप गूंगे का किरदार भी प्रभावशाली है। जाने माने लेखकों और साहित्यकारों के उपन्यास और नाटकों पर फ़िल्म बनाने में विशाल भारद्वाज का कोई सानी नहीं है। गीत "डार्लिंग आंखों से आंखें चार करने दो" में रेखा भारद्वाज और ऊषा उत्थुप ने कमाल ही कर दिया है। ऐसी फिल्मों का अपना एक ख़ास दर्शक वर्ग होता है और विशाल भारद्वाज की अधिकांश फिल्में ख़ास दर्शक वर्ग के लिए होती हैं, सस्ते और हल्के मनोरंजन से कोसों दूर।

Monday, June 1, 2020

फ़िल्म सात ख़ून माफ़ की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...20)
आज (01/006/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित फिल्म सात खून माफ देखी जिसमें मुख्य किरदार निभाया है प्रियंका चोपड़ा ने जिसके लिए उन्हें कई अवॉर्ड्स भी मिले साथ ही उनके अभिनय की सराहना भी हुए। हालाकि 2011 में अाई ये फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर तो धूम नहीं मचा पाई पर मसाला फिल्मों से इतर सेंसिबल सिनेमा पसंद करने वालों को खूब रास अाई। इस फ़िल्म को देखने की मेरे पास दो वजहें थीं: इरफ़ान खान साहब और #विशालभारद्वाज जी। दरअसल विशाल भारद्वाज जी का एक स्क्रीन प्ले मैंने #Lallantop पर पढ़ा था: #इरफ़ान और मैं। अठारह पेज के इस स्क्रीन प्ले को पढ़ते हुए मुझे लगा  कि मैंने इरफ़ान साहब जी को लेकर बनाई गई दो फिल्में मकबूल और हैदर तो देख ही ली है क्यूं ना सात ख़ून माफ़ भी देख ली जाए। इस फ़िल्म को देखनी की ललक तब और बढ़ गई जब मैंने विशाल भारद्वाज जी के स्क्रीनप्ले में पढ़ा कि इस फ़िल्म में प्रियंका का शायर पति बनने के लिए कोई तैयार नहीं हो रहा था तो विशाल साहब के मनुहार पर इरफ़ान साहब ने आखिर में हामी भारी। 

फ़िल्म #Manto की समीक्षा

फ़िल्म #Manto की समीक्षा 

आज (31/05/2020) मिशन #Sensiblecinema के तहत नंदिता दास द्वारा निर्देशित और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी द्वारा अभिनीत फ़िल्म #मंटो देखी जो 2018 में रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म में कई हस्तियों ने गेस्ट अपीयरेंस दिया है जैसे: ऋषी कपूर, जावेद अख्तर, दिव्या दत्ता, रणवीर शौरी, परेश रावल आदि। फ़िल्म निर्देशन और अभिनय दोनों ही दृष्टि से काबिले तारीफ़ है।  ये बायोग्राफी बेस्ड ड्रामा फ़िल्म है। इस फ़िल्म का प्रीमियर, 2018 के कान फ़िल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। ये फ़िल्म आधारित है उर्दू के सबसे चर्चित साथ ही अपनी कहानियों के लिए विवादों से हमेशा घिरे रहने वाले साहित्यकार सादत हसन मंटो की ज़िंदगी पर। मंटो की अधिकांश कहानियां वेश्याओं की ज़िंदगियों, विभाजन की त्रासदी झेल रहे लोगों की तकलीफों के इर्द गिर्द घूमती है। वो अपने आसपास जो घटित होता देखते थे उसे बेबाक़ी से ज्यों का त्यों लिख देते थे जो तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले लोगों को हज़म नहीं हो पाता था। उनके लिखे पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह उन पर केस चले पर उन्होंने तीखा लिखना नहीं छोड़ा। उनकी क़लम की धार अंत तक जस की तस बनी रही। 
फ़िल्म में भी एक जगह जब मंटो (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) के दोस्त उनसे कहते हैं कि वो वैश्याओं को छोड़कर और किसी मुद्दे पर क्यूं नहीं लिखते क्यूं लोगों को उकसाते रहते हैं और कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते हैं तो मंटो कहते हैं: लोगों को रंडियों के पास जाने की खुली छूट है तो हमें उस पर लिखने की छूट क्यूं नहीं? अगर आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि ज़माना ही नाकाबिले बर्दाश्त है। 
मंटो मुंबई को अपनी माशूका की तरह चाहते थे, जब भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो वो बड़े ही भारी मन से मुंबई को छोड़कर पाकिस्तान गए। फ़िल्म में एक सीन दिखाया गया है जिसके बाद मंटो ने मुंबई छोड़ना उचित समझा, वो सीन था: जब विभाजन की खबरें आ रही थीं उस वक़्त मंटो के अजीज मित्र जो एक उस वक़्त मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री के जाने माने अभिनेता थे श्याम चड्ढा, उनके परिवार को लाहौर से छिपते छिपाते दहशतगर्दों से अपनी जान बचाकर मुंबई आना पड़ा। इस घटना से श्याम के मन में मुस्लिमों के लिए नफ़रत भर गई थी। मंटो ने उनसे पूछा कि मुसलमान तो वो भी हैं अगर कभी मुंबई में दंगा भड़का तो मुमकिन है श्याम उन्हें भी मार दें तो श्याम गुस्से में बोला कि हां ये मुमकिन है। उस घटना ने मंटो को भीतर तक झकझोर दिया था कि जब अजीज दोस्त ऐसा कह रहा है तो दूसरे लोग तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं छोड़ेंगे। श्याम ने मंटो को बहुत रोकना चाहा बोला उस दिन गुस्से में उसने ऐसा कहा था पर मंटो नहीं माने और पाकिस्तान रवाना हो गए। 
पाकिस्तान में भी उनकी कहानी ठंडा गोश्त पर मुक़दमा चलता है और वो जिस ढंग से अपना तर्क रखते हैं वो सीन लाजवाब था। उनकी सबसे बड़ी ताकत थी उनकी बीवी सफिया जो मुश्किल से मुश्किल घड़ी और बदहाली में भी उनके साथ रही। ये हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि अच्छे साहित्यकार पूरी ज़िन्दगी बदहाली में ही जीते रहे जैसे कि मंटो, प्रेमचंद आदि। 
फ़िल्म देखकर बहुत देर तक मन भारी और उदास रहा। नवाज़ुद्दीन ने मंटो के किरदार के साथ सत प्रतिशत न्याय किया है। सेट डिजाइन से लेकर, कॉस्ट्यूम तक सब उम्दा  था। बायोपिक बनाना एक निर्देशक और उस किरदार को निभाना एक अभिनेता दोनों के लिए जोख़िम भरा होता है और इस जोख़िम को उठाने के लिए नंदिता दास और नवाज़ुद्दीन दोनों को सलाम।

Saturday, May 30, 2020

फ़िल्म #Eeballayooo की समीक्षा

आज (30/05/2020) #Sensiblecinema के तहत प्रतीक वत्स द्वारा निर्देशित फिल्म Eeb Allay Ooo का यूट्यूब पर प्रीमियर देखा। इस फ़िल्म को 2019 में मुंबई फ़िल्म फेस्टिवल में रिलीज़ किया गया था। आप सोच रहे होंगे ये कैसा नाम है, इसका अर्थ क्या है, क्या ये किसी और भाषा की फ़िल्म है, तो इन सारे सवालों का जवाब है नहीं। लगभग पौने दो घंटे की ये फ़िल्म हिंदी भाषा की ही फ़िल्म है। फ़िल्म में मुख्य किरदार अंजनी का रोल निभाया है शार्दुल भारद्वाज ने, अंजनी के जीजा के किरदार में हैं शशि भूषण और दीदी के किरदार में है नूतन सिन्हा। ये फ़िल्म कहानी है उस अंजनी की जो नौकरी कर ढेर सारा पैसा कमाने की चाह लिए अपने गांव से दिल्ली अपनी दीदी के पास आता है पर धीरे धीरे उसका एक एक सपना फूटे घड़े से पानी की तरह रिसता चला जाता है। प्रतीक वत्स की ये फ़िल्म ह्यूमर, ड्रामा और इमोशंस का परफेक्ट ब्लेंड है। ये फ़िल्म हंसाते हुए कभी भावुक कर जाती है तो कभी गरीबी में जीवन जीने को अभिशप्त लोगों की पीड़ा देख गैरबराबरी पर आधारित व्यवस्था के ख़िलाफ़ गुस्सा पैदा करती है। 
फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि अंजनी गांव से शहर एक अदद नौकरी की तलाश में दिल्ली अपनी बहन के पास आता है। अंजनी के जीजा जो ख़ुद किसी कंपनी में गार्ड की ड्यूटी करते हैं जैसे तैसे एक ठेकेदार को बोलकर अंजनी को दिल्ली के रायसिना हिल्स पर बंदर भगाने की नौकरी दिलाते हैं। महिंदर जिसकी कई पुश्ते ये काम करती चली आई हैं वो अंजनी को बंदर भगाने की ट्रेनिंग देता है। वो अंजनी को बताता है कि उसे ईईब... ऑले...ऊ ऊ ऊ की आवाज़ निकालकर बंदर को भगाना पड़ेगा। अंजनी बहुत प्रयास करता है पर महिंदर की तरह बंदरों को नहीं भगा पाता। वो नौकरी बचाने के लिए कभी लंगूरों के पोस्टर जगह जगह लगाता है तो कभी ख़ुद ही लंगूर के गेट अप में आ जाता है। इसकी खबर जब ठेकेदार को लगती है तो वो उसे नौकरी से निकालने की धमकी देता है और उसकी शिकायत उसके जीजा से भी करता है तो जीजा शशि अंजनी से कहते हैं: काहे जी काम ठीक से काहे नहीं करते हैं। अंजनी: कर ना रहे हैं। बंदर भगाना पड़ता है, आप भगाए हैं जी कभी। अंजनी लंगूरों भगाने के साथ साथ लोगों का मनोरंजन भी शुरू कर देता है और उसके विडियोज़ वायरल होने लगते हैं जिसके कारण उसकी नौकरी चली जाती है। लाख कोशिशों के बाद भी कोई काम नहीं मिलता। ये विडंबना ही है कि एक तरफ बंदरों को भागने के लिए लोग रखे जाते हैं और दूसरी तरफ उन्हीं बंदरों को हनुमान जी का अवतार मानने वाले कर्मचारी उन्हें रोज़ बुला बुलाकर खाने पीने की चीजें देते हैं और अगर बंदर भगाने वाला व्यक्ति उन्हें ऐसा करने से मना करे तो उसे नौकरी से निकलवाने की धमकी देते हैं। अंजनी उस वक़्त सकते में आ जाता है जब उसे पता चलता है कि उसका दोस्त महिंदर बंदर के हमले से मर गया। हमारे यहां इंसानों की ज़िन्दगी बहुत सस्ती है, गरीब आदमी कीड़े मकोड़े की तरह कब मर जाता है कोई नोटिस ही नहीं करता।
यह फ़िल्म कई गंभीर समस्याओं को सांकेतिक रूप से छूते हुए निकल जाती है जैसे गांवों से शहरों की ओर पलायन, शहर के संघर्ष, बस्तियों में रहने वाले लोगों की समस्या आदि। ख्वाबों के टूटने की टीस लिए अंजनी विक्षिप्त सा हो जाता है। 
अंजनी के किरदार को शार्दुल ने बख़ूबी निभाया है। नूतन सिन्हा और शशि भूषण जी का अभिनय भी ज़बरदस्त है। ये सारे किरदार हमें अपने आस पास के ही मालूम पड़ते हैं। टीम एफटीआईआई ने बहुत अच्छा काम किया है, तो एक बार पुनः सारी टीम को इस फ़िल्म के लिए साधुवाद।