Wednesday, June 10, 2020

फ़िल्म #धर्म की समीक्षा

आज (10/06/2020) #Sensiblecinema के तहत् पंकज कपूर अभिनीत फ़िल्म #धर्म देखी जिसे भावना तलवार ने निर्देशित किया था और ये फ़िल्म 2007 में रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म में निर्देशक ने धर्म और प्रेम के बीच का द्वंद दिखाने की कोशिश की है। कई जगह धर्म प्रेम पर हावी होता दिखाई देता है तो कई जगह प्रेम धर्म पर भारी पड़ता नज़र आता है पर अंत में जाकर महसूस होता है कि धर्म और प्रेम एक दूसरे के पूरक हैं। सच्चा धर्म वही है जो प्रेम और सद्भावना सिखाए। ईश्वर तो हर एक में बसता है, उसे उसके सभी बच्चे प्रिय हैं। ऊंच नीच, जाति पाति, अमीर गरीब के बीच असमानता की गहरी खाई हमने खोदी है। एक संवाद में पुरोहित चतुर्वेदी (पंकज कपूर) कहते हैं : धर्म सत्य पर चलता है और सत्य कभी नहीं बदलता। हर धर्म का अटल सत्य यही है कि हम सब उस ईश्वर की संतान हैं। हर धर्म आपस में प्रेम से रहने की सीख देता है पर कुछ उन्मादी लोग धर्म की आड़ में कई अधर्म करते हैं। मज़हब के नाम पर दंगे करवाते हैं, अपने हित के लिए लोगों को लड़वाते हैं। सच्चा धर्म अहिंसक होता है वो कभी भी हिंसा को जन्म दे ही नहीं सकता। प्रेम किस तरह से किसी व्यक्ति को बदलकर रख देता है, प्रेम के वशीभूत इंसान किस कदर बेबस हो जाता है। धर्म और ममता के बीच कैसी रस्सा कस्सी चलती है इस ऊहा पोह को निर्देशक ने बखूबी दर्शाया है। एक ओर धर्म का अडिग स्वरूप है तो दूसरी ओर प्रेम, ममता और करुणा की त्रिवेणी जो हर दीवार और पर्वत की सख्त चट्टानों के बीच से कल कल, छल छल कलरव करती हुई बह निकलने के लिए आतुर है। 
एक तरफ खड़े हैं धर्म के पुरोधा पंडित चतुर्वेदी। जो बड़े ही धैर्यवान, स्थिर चित्त, गंभीर स्वभाव के व्यक्ति हैं। जिनके के लिए उनका ब्राह्मण धर्म ही सब कुछ है, उनका मान, उनकी प्रतिष्ठा, उनके जीवन का मूल आधार सभी की धुरी है धर्म तो दूसरी ओर खड़ी हैं उनकी पत्नि (सुप्रिया पाठक) जिनकी ममता एक नन्हे से अनाथ बच्चे को देकर उसे अपने पास रखने के लिए व्याकुल हो उठती है और उसके प्रेम के वशीभूत वो पंडित चतुर्वेदी से झूठ बोलती है कि वो किसी ब्राह्मण का बच्चा है। जब की वो बच्चा मुसलमान होता है। जब इस बात का पता पंडित जी को चलता है तो वो अपनी पत्नी और बेटी को सज़ा देने के बजाए खुद को ही सज़ा देने लगते हैं, चंद्रायन जैसे कठिन तप करते हैं पर फिर भी उस नन्हे बालक की छवि उनकी आंखों से ओझल नहीं हो पाती। रह रह उनके भीतर का प्रेम उस बच्चे को तलाशता है। वो उसकी यादों से जितना दूर जाना चाहते हैं वो बच्चा उन्हें रह रह कर उतना याद आता है। 
पुरोहित के किरदार को पंकज कपूर ने जीवित कर दिया है। उनके हाव भाव, उनके "महादेव" कहने का अंदाज़, बहुत प्रभावशाली है। बस पंकज कपूर यू पी वाली टोन को बेहतर ढंग से नहीं पकड़ पाए पर अपने अभिनय के ज़रिए वो इस कमी को नजरंदाज करने में सफल हुए। पंकज त्रिपाठी का रोल भी अच्छा है। फ़िल्म का कंटेंट और कॉन्टेंट का ट्रीटमेंट बेहतर हो तभी फ़िल्म सेंसिबल कहलाएगी। इस फिल्म को सजेस्ट करने के लिए मैं अपनी कलीग इशिता दास जी का शुक्रिया अदा करना चाहूंगी। 

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