Tuesday, June 16, 2020

फ़िल्म #गुलाबोसिताबो की समीक्षा

फ़िल्म #Gulabositabo  की समीक्षा 

मिशन #Sensiblecinema के तहत कल (13/06/2020) रात शूजित सिरकार द्वारा निर्देशित फ़िल्म #गुलबोसिताबो देखी। ये फ़िल्म 12 जून को एमेजॉन प्राइम पर 200 देशों में एक साथ रिलीज़ हुई।फ़िल्म में मुख्य किरदार मिर्ज़ा कि भूमिका में हैं अमिताभ बच्चन साहब और बाकें का किरदार निभाया है आयुष्मान खुराना ने। अमिताभ बच्चन जी और आयुष्मान खुराना के अलावा विजय राज, बृजेश काला, फारुख ज़फ़र आदि कलाकारों की भूमिका भी काबिले तारीफ है। यूं देखा जाए तो फ़िल्म की कहानी में कोई खास दम नहीं है पर किरदारों ने फ़िल्म को संभाले रखा खासकर मिर्ज़ा के किरदार को अमिताभ जी ने जिस शिद्दत से निभाया है उसकी तारीफ की जानी चाहिए। 
एक अच्छा अभिनेता वही है जो किरदार को जी जाए और इस फ़िल्म में अमिताभ अमिताभ नहीं बल्कि मिर्ज़ा लगते हैं। वो मिर्ज़ा जिसे मोहब्बत है महज़ पैसों और फातिमा महल (अपनी बेगम की हवेली) से। वो मिर्ज़ा जिससे फातिमा बेगम पंद्रह साल बड़ी थीं फिर भी मिर्ज़ा ने उनसे निकाह किया सिर्फ उस हवेली की खातिर। वो मिर्ज़ा जो बेगम के गुज़र जाने का बेसब्री से इंतजार करता है ताकि वो हवेली उसकी हो जाए। वो मिर्ज़ा जो इतना चिंदी चोर है कि आए दिन हवेली की बेशकीमती चीजें भंगार की दुकान में औने पौने दामों में बेंच आता है। वो मिर्ज़ा जो अपनी बीवी के मरने से पहले ही उसके कफ़न का इंतजाम कर आता है। वो मिर्ज़ा जो हवेली के कागज़ात अपने नाम करने के लिए अपनी सोई हुई बीवी के अंगूठे के निशान हवेली के कागज़ात पर लगवा लेता है। वो मिर्ज़ा जो अपनी बेगम की दी हुई आखरी निशानी भी ढाई सौ में बेंच आता है। वो मिर्ज़ा जो बड़ा ही ढीठ है। मिर्ज़ा के किरदार के लिए अमिताभ जी हमेशा याद रखे जाएंगे। इलाहाबाद से होने के कारण लखनवी तहज़ीब को वो बखूबी निभा पाए हैं। मिर्ज़ा की बेगम के रूप में फारुख ज़फ़र जी का अभिनय ज़बरदस्त है, उनकी डायलॉग डिलीवरी और लखनवी नवाबी अंदाज़ ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ता है। मिर्ज़ा और बांके के बीच की नोक झोंक बिल्कुल टॉम एंड जेरी की लड़ाई की तरह मज़ेदार है। दोनों ही ढीठ हैं। 
फ़िल्म के केंद्र में है हवेली। हवेली उस नायिका की तरह है जिसपर कई लोगों की नज़र है। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत यहां चरितार्थ होती है। फातिमा महल (हवेली) को मिर्ज़ा अपनी जागीर समझता है और उसके मालिकाना हक के लिए अपनी बेगम के मरने का इंतजार करता है तो दूसरी ओर बांके (आयुष्मान खुराना) जैसे किरायेदार हैं जो सालों से हवेली में रह रहे हैं तीस रूप महीने के किराए पर वो भी कई महीनों से भरा नहीं। बांके इस फ़िराक़ में है कि बेगम और मिर्ज़ा अल्ला मियां को प्यारे हों तो हवेली उसकी हो जाए। एक ओर मुन मुन बिल्डर की गिद्द जैसी नज़र है हवेली पर तो दूसरी ओर आर्केलॉजी वाले हवेली को अपने कब्जे में लेना चाहते हैं। पर हवेली इनमें से किसी के भी हाथ नहीं लगती। सब के सब हाथ मलते रह जाते हैं और चुपड़ी रोटी मुंह में दबाकर कोई और ले जाता है। मिर्ज़ा का किरदार ऐसा है जिसपर कभी गुस्सा आता है, कभी दया तो कभी उसकी मासूमियत पर प्यार। ये फ़िल्म हमें कई सबक सिखाती है: चीज़ों से की जाने वाली मोहब्बत क्षण भंगुर होती है इसलिए उसे पैसों और चीज़ों में तलाशने के बजाए इंसानों में खोजो। दूसरी सीख ये है कि रईसी इंसान की शक्सियत में होती है। जिसकी शक्सियत रईस नहीं वो कितना भी पैसे वाला क्यूं ना हो जाए रहेगा चिंदी चोर ही मिर्ज़ा की तरह। मिर्ज़ा ने फातिमा महल से प्यार किया फातिमा से नहीं इसलिए अंत में उसे ना तो फातिमा महल मिलता है और ना ही फातिमा बेगम। किरदारों के ताने बाने के महत्व को समझने की दृष्टि से ये फ़िल्म अच्छी है।  शूजित सिरकार एक्सपेरिमेंटल फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं जिसका ट्रीटमेंट रेगुलर फिल्मों से अलग होता है। ये फ़िल्म भी वैसी ही है। फ़िल्म को आप अपने पूरे परिवार के साथ देख सकते हैं।

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