Monday, June 1, 2020

फ़िल्म #Manto की समीक्षा

फ़िल्म #Manto की समीक्षा 

आज (31/05/2020) मिशन #Sensiblecinema के तहत नंदिता दास द्वारा निर्देशित और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी द्वारा अभिनीत फ़िल्म #मंटो देखी जो 2018 में रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म में कई हस्तियों ने गेस्ट अपीयरेंस दिया है जैसे: ऋषी कपूर, जावेद अख्तर, दिव्या दत्ता, रणवीर शौरी, परेश रावल आदि। फ़िल्म निर्देशन और अभिनय दोनों ही दृष्टि से काबिले तारीफ़ है।  ये बायोग्राफी बेस्ड ड्रामा फ़िल्म है। इस फ़िल्म का प्रीमियर, 2018 के कान फ़िल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। ये फ़िल्म आधारित है उर्दू के सबसे चर्चित साथ ही अपनी कहानियों के लिए विवादों से हमेशा घिरे रहने वाले साहित्यकार सादत हसन मंटो की ज़िंदगी पर। मंटो की अधिकांश कहानियां वेश्याओं की ज़िंदगियों, विभाजन की त्रासदी झेल रहे लोगों की तकलीफों के इर्द गिर्द घूमती है। वो अपने आसपास जो घटित होता देखते थे उसे बेबाक़ी से ज्यों का त्यों लिख देते थे जो तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले लोगों को हज़म नहीं हो पाता था। उनके लिखे पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह उन पर केस चले पर उन्होंने तीखा लिखना नहीं छोड़ा। उनकी क़लम की धार अंत तक जस की तस बनी रही। 
फ़िल्म में भी एक जगह जब मंटो (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) के दोस्त उनसे कहते हैं कि वो वैश्याओं को छोड़कर और किसी मुद्दे पर क्यूं नहीं लिखते क्यूं लोगों को उकसाते रहते हैं और कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते हैं तो मंटो कहते हैं: लोगों को रंडियों के पास जाने की खुली छूट है तो हमें उस पर लिखने की छूट क्यूं नहीं? अगर आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि ज़माना ही नाकाबिले बर्दाश्त है। 
मंटो मुंबई को अपनी माशूका की तरह चाहते थे, जब भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो वो बड़े ही भारी मन से मुंबई को छोड़कर पाकिस्तान गए। फ़िल्म में एक सीन दिखाया गया है जिसके बाद मंटो ने मुंबई छोड़ना उचित समझा, वो सीन था: जब विभाजन की खबरें आ रही थीं उस वक़्त मंटो के अजीज मित्र जो एक उस वक़्त मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री के जाने माने अभिनेता थे श्याम चड्ढा, उनके परिवार को लाहौर से छिपते छिपाते दहशतगर्दों से अपनी जान बचाकर मुंबई आना पड़ा। इस घटना से श्याम के मन में मुस्लिमों के लिए नफ़रत भर गई थी। मंटो ने उनसे पूछा कि मुसलमान तो वो भी हैं अगर कभी मुंबई में दंगा भड़का तो मुमकिन है श्याम उन्हें भी मार दें तो श्याम गुस्से में बोला कि हां ये मुमकिन है। उस घटना ने मंटो को भीतर तक झकझोर दिया था कि जब अजीज दोस्त ऐसा कह रहा है तो दूसरे लोग तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं छोड़ेंगे। श्याम ने मंटो को बहुत रोकना चाहा बोला उस दिन गुस्से में उसने ऐसा कहा था पर मंटो नहीं माने और पाकिस्तान रवाना हो गए। 
पाकिस्तान में भी उनकी कहानी ठंडा गोश्त पर मुक़दमा चलता है और वो जिस ढंग से अपना तर्क रखते हैं वो सीन लाजवाब था। उनकी सबसे बड़ी ताकत थी उनकी बीवी सफिया जो मुश्किल से मुश्किल घड़ी और बदहाली में भी उनके साथ रही। ये हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि अच्छे साहित्यकार पूरी ज़िन्दगी बदहाली में ही जीते रहे जैसे कि मंटो, प्रेमचंद आदि। 
फ़िल्म देखकर बहुत देर तक मन भारी और उदास रहा। नवाज़ुद्दीन ने मंटो के किरदार के साथ सत प्रतिशत न्याय किया है। सेट डिजाइन से लेकर, कॉस्ट्यूम तक सब उम्दा  था। बायोपिक बनाना एक निर्देशक और उस किरदार को निभाना एक अभिनेता दोनों के लिए जोख़िम भरा होता है और इस जोख़िम को उठाने के लिए नंदिता दास और नवाज़ुद्दीन दोनों को सलाम।

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