दिल मगर कम ही किसी से मिलता है
मैं भूल जाता हूँ हर सितम उसके
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है की फूलों का
रंग तेरी हंसी से मिलता है॥
शायर
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यह सुस्त धुप अभी नीचे भी नहीं उतरी
ये सर्दियों में बहुत देर छत पे सोती है
लिहाफ उम्मीद का भी कब से तार तार हुआ॥
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कभी कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है
कीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे
ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था॥
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आप की खातिर अगर हम लूट भी लें आसमान
क्या मिलेगा चाँद चमकीले से शीशे तोड़ कर ?
चाँद चुभ जाएगा ऊँगली में तो खून आ जाएगा॥
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वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर एक दिन
जो मूड के देखा तो वह और मेरे साथ न था
फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं॥
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तमाम सफाए किताबों के फद्फदाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गयी घर में
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो॥
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जंगल से गुज़रते थे तो कभी बस्ती भी मिल जाती थी
अब बस्ती में कोई पेड़ नज़र आ जाए तो भी जी भर आता है
दीवार पे सब्ज़ देखके अब याद आता है, पहले जंगल था॥
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कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चटके हुए हैं
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझे॥
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एक से घर हैं सभी, एक से बाशिंदे हैं
अजनबी शहर में कुछ अजनबी लगता ही नहीं
एक से दर्द हैं सब, एक ही से रिश्ते हैं॥
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इस तेज़ धुप में भी अकेला नहीं था मैं
एक साया मेरे आगे पीछे दौड़ता रहा
तनहा तेरे ख़याल ने रहने नहीं दिया॥
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चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में च्भ्ते ही खून बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था, लड़का अपने आँगन में
बाप ने कल फिर दारू पी के माँ की बाह मरोड़ी थे॥
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शाम गुजरी है बहुत पास से होकर लेकिन
सर पे मंडराती हुयी रात से जी डरता है
सर चढ़े दिन की इसी बात से जी डरता है॥
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जिस्म के खोल के अन्दर ढूंढ रहा हूँ और कोई
एक जो मैं हूँ, एक जो कोई और चमकता है
एक म्यान में दो तलवारें कैसे रहती हैं?
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जिससे भी पूछा ठिकाना उसका
एक पता और बता जाता है
या वह बेघर है, या हरजाई है॥
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झुग्गी के अन्दर एक बच्चा रोते रोते
माँ से रूठ अपने आप ही सो भी गया
थोड़ी देर को "युद्ध विराम" हुआ है शायद॥
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सितारे चाँद की कश्ती में रात लाते हैं
सहर के आने से पहले ही बिक भी जाते हैं
बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब् का॥
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ज़मीन भी उसकी ज़मीन की ये नियामतें उसकी
ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बन्दे भी
खुदा से कहिये , कभी वो भी अपने घर आये॥
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शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर
किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुमको
तिनको का मेरा घर है, कभी आओ तो क्या हो?
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शाम से शम्मा जली देख रही है रास्ता
कोई परवाना इधर आया नहीं, देर हुयी
सौत होगी मेरी, जो पास में जलती होगी॥
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चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गुलेलों से दिन भर खेला करता था
बहुत कहा आवार उल्काओं की संगत ठीक नहीं॥
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जो लिखोगे गवाही दे दूंगा
मेरी कीमत तो मेरे मुह पर लिखी है
"पोस्टल पोस्टकार्ड " हूँ मैं तो ॥
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गुलज़ार साहब की
"त्रिवेणी"
साकिया एक नज़र जाम से पहले पहले
हमको जाना है कहीं शाम से पहले पहले
खुश हुआ है दिल की मोहब्बत तो निभा दी तूने
लोग उजड़ जाते हैं अंजाम से पहले पहले॥
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नज़र नज़र से मिलाकर शराब पीते हैं
हम उनको पास बिठा कर शराब पीते हैं
इसलिए तो अँधेरा है मैकदे में बहुत
लोग घरों को जलाकर शराब पीते हैं
उन्ही के हिस्से में आती है प्यास ही अक्सर
जो दूसरों को पिलाकर शराब पीते हैं॥
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इक न इक शम्मा अँधेरे में जलाए रखिये
सुबह होने को है उम्मीद बनाए रखिये
कौन जाने की वो किस राह गुज़र से गुजरें
हर गुज़र राह को फूलों से सजाये रखिये॥
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बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे
दुनिया न जीत पो तो हरो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराजगी रहे
अपनी तरह सभी को किसी की तलाश है
हम जिसके भी करीब रहे, वो हमसे दूर ही रहे
गुजरो जो बाग़ से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे॥
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शायरों का नाम
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तेरी बातें ही सुनाने आये
दोस्त भी दिल ही दुखाने आये
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं
तेरे आने के ज़माने आये
अब तो रोने से भी दिल दुखता है
शायद अब होश ठिकाने आये
क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी
लोग क्यूँ जश्न मनाने आये॥
शायर
अहमद फ़राज़
गुलज़ार साहब के बारे में तो जितना भी कहा जाए कम है शब्द तो उनकी कलम से झरने की तरह फूटते हैं। जिसमें खनक भी होती है, जिंदगानी भी और कहानी भी। चाहे वो गीत हो, ग़ज़ल हो, शेर हो या फिर त्रिवेणी (त्रिप्लेट्स ) लिखने में गुलज़ार का कोई जवाब नहीं। उनके गीतों से तो आप सब ही वाकिफ होंगे ही पर शायद त्रिवेणी इतनी न पढ़ी हो और अगर पढ़ी हो तो जो मैं न पोस्ट कर पाऊँ वो आप कर दीजियेगा। श्रवण जी ने गुलज़ार साहब की त्रिवेणी पोस्ट करने का सुझाव दिया था। मित्र इस सुझाव के लिए शुक्रिया। तो पेश है गुलज़ार की त्रिवेणी---------
इतने लोगों में कह दो अपनी आँखों से
इतना ऊंचा न ऐसे बोला करें
लोग मेरा नाम जाने जाते हैं॥
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क्या पता कब कहाँ से मारेगी
बस की मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ
मौत का क्या है एक बार मारेगी॥
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कांटे वाले तार पे किसने गीले कपडे टाँगे हैं
खून टपकता रहता है ...और नाली में बह जाता है
क्यूँ उस फौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है॥
(यकीन मानिए गुलज़ार साहब की ये त्रिवेणी लिखते हुए मेरी रूह काँप गयी आँखों में अश्क हैं मेरे। ज़रा कल्पना कीजिये उस मंज़र की वर्दी खून से सनी है उस फौजी की, उसकी बेवा हर रोज़ उस वर्दी को रगड़ रगड़ के धोती है मगर फिर भी उसमें से खून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है। सरहद पे न जाने कितने जवान शहीद होते हैं देश की रक्षा की खातिर पर उनको बुनियादी सुविधायें तक कई बार मुहैया नहीं कराई जाती हैं उनका बलिदान, उनका खून पानी की तरह बह जाता है )
माँ ने दुआएं दी थी
एक चाँद सी दुल्हन की
आज फुटपाथ पे लेते हुए...ये चाँद मुझे रोटी नज़र आता है॥
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चलो आज इंतज़ार ख़तम हुआ
चलो अब तुम मिल ही जाओगे
मौत का कोई फायदा तो हुआ॥
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ये माना इस दौरान कुछ साल बीत गए हैं
फिर भी आँखों में चेहरा तुम्हारा समाया हुआ है
किताबों पर धुल जमने से कहानी कहाँ ख़तम होती है॥
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मुझे आज कोई और न रंग लगाओ
पुराना लाल रंग अभी भी ताज़ा है
अरमानो का खून हुए जियादा दिन नहीं हुआ है॥
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तेरे गेसू जब भी बातें करते हैं
उलझी उलझी सी वो बातें होती हैं
मेरी उँगलियों की मेह्मांगी उसे पसंद नहीं॥
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उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वह साख फिजा में
अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए?
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ज़िन्दगी क्या है जान ने के लिए
ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है
आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥
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सब पे आती है सबकी बारी से
मौत मुंसिफ है, कम-ओ-बेश नहीं
ज़िन्दगी सब पे क्यूँ नहीं आती॥
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कोई चादर की तरह खींचे चला जाता है दरिया
कौन सोया है तलए इसके जिसे ढूंढ रहे हैं
डूबने वाले को भी चैन से सोने नहीं देते
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गंगा जमुना सरस्वती की तरह गुलज़ार की त्रिवेणी