Sunday, August 15, 2010

दिल कम ही किसी से मिलता है

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम ही किसी से मिलता है
मैं भूल जाता हूँ हर सितम उसके
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है की फूलों का
रंग तेरी हंसी से मिलता है॥


शायर
???

Saturday, August 14, 2010

बड़े दिनों से पीपली लाइव फिल्म का इंतज़ार कर रही थी

जब से पीपली लाइव के प्रोमोज देखे थे तब से इस फिल्म को देखने का बड़ा मन था। फिल्म वाकई बड़ी अच्छी है खासतौर से जिसने नत्था का कैरेक्टर निभाया है, उसकी एक्टिंग देखने लायक है। नत्था जियादा कुछ नहीं बोलता, पर उसका चेहरा ही सब कुछ बयान कर देता है। अगर आपने उन आदिवासियों को देखा हो जो शहर से बिलकुल कटे हैं और जिन्हें पैंट शर्ट वाले हम लोग भी अजूबा ही लगते हैं तो आपने ज़रूर नोटिस किया होगा की उनके चेहरे पे कोई एक्सप्रेशंस ही नहीं आते। वो बहुत ही निउट्रल लगते है। ठीक इसी तरह इस फिल्म में नत्था लगता है पक्का आदिवासी। दूसरा करेक्टर जो फिल्म में आपको हसाएगा वो है नत्था की माँ का। वो जो चिल्ला चिल्ला के बोलती है और जिस अंदाज़ में बोलती है- अरे भूतनी अब एहू का खाए डाल, ऐ बुधिया मोर खटिया धुप माँ निकार दे रे, सुनत नहीं आये। जब आप उनके मुह से ये सब सुनोगे तो हंस हंस के पेट पकड़ लोगे पक्का। खैर ये तो थी मजेदार बातें अब आते हैं मुद्दे पर। इस फिल्म में मीडिया वालों की अच्छी खबर ली गयी है और उनकी सो कॉल्ड ब्रेकिंग न्यूज़ की भी बखिया उधेडी गयी है। किस तरह मीडिया वाले किसी के पीछे नहा धोकर पड़ जाते हैं अच्छा दिखाया है अनुषा रिजवी ने इस फिल्म में। सबसे बड़ी बात उस किसान की त्रासदी दिखाई गयी है जो क़र्ज़ में डूबे होने के कारन अपनी ज़मीन बेचने के लिए मजबूर है। नत्था और उसके भाई बुधिया शंकर को जब एक लोकल नेता के एक चमचे से ये पता चलता है की सरकार आत्महत्या करने वाले के घरवालों को एक लाख रुपये मुआवजा देती है तो नत्था बेचारा मरने के लिए तैयार हो जाता है और इसके लिए उसको प्रेरित करता है उसका भाई बुधिया जो नत्था से जियादा होशियार है। जैसे ही एक रिपोर्टर को ये बात पता चलती है वो उस पर खबर बना के छाप देता है फिर क्या है दुसरे मीडिया वाले नत्था के गाँव में आके डेरा डाल लेते हैं। नत्था हर चैनल की ख़बरों के केंद्र में होता है। सरकार अलग राजनीती करती है, कृषि विभाग अलग दलीलें देता है और बेचारे नत्था की जान सांसत में आ जाती है। पिक्चर की एंडिंग मुझे कुछ जियादा अच्छी नहीं लगी ऐसा लगा कुछ और होना चाहिए शायद कुछ बाक़ी रह गया पर ओवर ऑल पिक्चर बहुत अच्छी है। बहुत कुछ सीखने को मिलता है हमें। और सबसे बड़ी बात इसमें एक भी सिने स्टार नहीं हैं बल्कि सारे कला कार हबीब तनवीर जे की नाटक मंडली के हैं। आज के इस दौर में जब या तो सेक्स बिकता है या फिर मार धाड़ ये फिल्म ये साबित करती है की अगर सीरियस मुद्दों को भी सलीके से उठाया जाए तो लोग ऐसी फिल्में भी पसंद करते हैं। अंत में एक वाकया जो पिक्चर हौल में हुआ। मेरे पीछे वाली सीट पे एक बच्चा था ५-६ साल का जैसे ही फिल्म स्टार्ट हुयी वह जोर जोर से रोने लगा - मम्मी ये गन्दी फिल्म है, मैं नहीं देखूँगा। छी- छी गंदे गंदे लोग हैं इसमें और वो चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मुझे गुस्सा उसपे नहीं आ रहा था बल्कि उसके माँ बाप से खफा थी मैं जिन्होंने उसे इस बात से अवगत नहीं कराया की हमारे देश में ऐसे लोग भी हैं। बच्चा भी क्या करेगा वो वही सीखेगा न जो माँ बाप सिखायेंगे। जब माँ बाप ही गरीब गुरबों को गन्दा बोलते हैं तो फिर बच्चा तो बोलेगा ही न। जब भी समय मिले ये फिल्म देखिएगा।


भावना के
"दिल की कलम से "

दुःख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग

दुःख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
इस नगरी में क्यूँ मिलती है रोटी सपनो के बदले
जिनकी नगरी है वो जाने, हम ठहरे बंजारे लोग॥



शायर
जावेद अख्तर साहब

कोई वक़्त हो दर्द सोता नहीं

तुझे भूल जाऊं यह होता नहीं
कोई वक़्त हो दर्द सोता नहीं
न हो जाओ बदनाम तुम इसलिए
मैं रो रोके दामन भिगोता नहीं
ये प्यार वो फसल है जो उगे खुद -ब-खुद
कोई दर्द के बीज बोता नहीं
ये माना की तूफ़ान का जोर है
मैं घबरा के कश्ती डुबोता नहीं ॥


शायर
???

शाम हो जाम हो सुबू भी हो

शाम हो जाम हो सुबू भी हो
तुझको पाने की जुस्त-जू भी हो
दिल से दिल की कहानिया भी सुने
आँखों आँखों में गुफतगू भी हो
झील सी गहरी सब्ज़ आँखों में
डूब जाने की आरज़ू भी हो॥


शायर
???

ये आंधिया, ये तूफ़ान, ये तेज़ धारे

ये आंधिया, ये तूफ़ान, ये तेज़ धारे
कड़कते तमाशे, गरजते नज़ारे
अँधेरी फ़ज़ा (माहौल ) सांस लेता समंदर
मुसाफिर खडा रह अभी जी को मारे
उसी का है साहिल, उसी के कगारे
तलातुम (बाढ़) में फसकर जो दो हाथ मारे
अँधेरी फ़ज़ा सांस लेता समंदर
यूँ ही सर पटकते रहेंगे ये धारे
कहाँ तक चलेगा किनारे किनारे॥


शायर
कैफ़ी आज़मी

Friday, August 13, 2010

आज़ादी के बाद अब आगे क्या...............

आज़ादी ख्वाहिशों को पूरा करने की, अनंत आकाश में उड़ने की, उज्जवल भविष्य के सपने देखने की और इन सबके साथ खुली आबोहवा में आँखें मूंद कर बाहें फैलाए लम्बी साँसे लेते हुए दिल से कहने की - "हाँ मैं हूँ आज़ाद भारत का आज़ाद नागरिक। " क्यूँ इस ख़याल मात्र से ही दिल को कितना सुकून मिलता है, है न, तो फिर हमें इस सुकून के लिए उन लोगों का शुक्रियादा भी करना चाहिए जो इसके असली हक़दार हैं। बिरसामुन्दा, तिलका मांझी, तात्या टोपे, लक्ष्मीबाई, महात्मा गांधी, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह। ये आजादी के वो परवाने जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह किये बगैर देश हित को सर्वोपरि मन। लाख आंधी तूफ़ान आये मगर आज़ादी की उस लौ को भुझा नहीं पाए और वो लौ बुझती भी तो बुझती कैसे आज़ादी के इन मतवालों ने उसे अपने लहू से जो रौशन कर रखा था। दो सौ सालों तक अंग्रेजों की गुलामी का वो गुस्सा चिंगारी से आग बना, आग से शोला और फिर जो ज्वालामुखी फूटा उस जन आक्रोश ने परतंत्रा के परखच्चे उड़ा दिए। आज़ादी की इस दास्ताँ से आप किसी न किसी तरह तो वाकिफ होंगे ही या तो बड़े लोगों से सुना होगा या फिर किताबों में पढ़ा होगा और कुछ नहीं तो फिल्में तो देखी ही होंगी है न।
जब मैं छोटी थी तो मुझे पंद्रह अगस्त इसलिए अच्छा लगता था क्यूंकि उस दिन स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे, मिठाईयां मिलती, और बड़ा सा झंडा फहराया जाता था। ये सब देखकर मुझे बड़ा मज़ा आता था और बहुत ख़ुशी होती थी और मुझे अच्छी तरह से याद है की १४ अगस्त की रात मैं सो भी नहीं पाती थी क्यूंकि दर लगा रहता था की अगर सुबह नींद न खुली तो, कहीं मैं कार्यक्रम में हिस्सा न ले पायी तो? और जब ज़हन में इतने सवाल हो तो भला नींद किसे आती है।
खैर मुझे अब यादों से बहार निकल के आजादी के बाद आज देश के सामने कौन सी चुनौतियां हैं इस बारे में आपसे चर्चा करनी है। हालाकि देश को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद कराना एक बहुत बड़ी आज़ादी है पर ये आजादी तब तक अधूरी है जब तक की हमारा देश गरीबी, भुखमरी, कुपोषण जैसी बीमारियों से आज़ाद नहीं हो जाता। सबको शिक्षा और रोज़गार के सामान औसर नहीं मिल जाते। हमें आजादी मिले आधी से जियादा सदी बीतने के बावजूद आज भी कई गाँव ऐसे हैं जहां बिजली, पानी, अस्पताल और प्राईमरी स्कूल तक की सुविधा नहीं है। ग्रामीणों के उत्थान के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार करोडो रूपये खर्च करती है पर नतीजा वही धाक के तीन पात। वजह सारा का सारा पैसा और योजनायें सिर्फ कागज़ पर होती हैं। भला बुखा और कुपोषित भारत विकास की दुआद में कैसे जीत हांसिल कर पायेगा?
कई गाँव में स्कूल आज भी पेड़ों के नीचे लगते हैं और शिक्षक भूले भटके आया करते हैं। क्या करें पूरा दोष उनका भी नहीं है। कयिओं को कई महीनो से वेतन नहीं मिला तो शिक्षाकर्मियो को वेतन के नाम पर सिर्फ ३-४ हज़ार रुपये ही मिलते हैं। भला ऐसी महंगाई में इतने पैसों में काम कैसे चले। सरकारी स्कूलों में मध्यान भोजन योजना लागू होने से बच्चों की संख्या में इजाफा तो हुआ लेकिन वहाँ भी गड़बड़ी। घटिया भोजन से बच्चे बीमार पड़े तो कईयों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। और तो और कई बार तो अनाज का बोरा स्कूल पहुचता ही नहीं बल्कि प्रिंसिपल साहब के घर वाले मध्यान भोजन का लाभ उठाते हैं।
भ्रस्क्ताचार इसलिए बढ़ता है क्यूंकि हम चुप रहते हैं, या फिर नज़रंदाज़ कर देते हैं की छोडो हमें क्या फर्क पड़ता है, हमारा क्या जाता है? जिस दिन हमें फर्क पड़ना शुरू हो जाएगा उस दिन से ऐसी अनियमिताओं में और भ्रस्ताचार में कमी आना शुरू हो जायेगी। इस बात पे मुझे किसी कवी की दो लाईने याद आ रही हैं -
तू खुद तो बदल, तू खुद तो बदल
तब तो ये ज़माना बदलेगा॥
और बदलाव एकाएक नहीं आता धीरे धीरे होता है। ऐसी बहुत सी कुरीतियाँ आज भी कायम हैं जिनसे हमें अभी आज़ाद होना बाकी है। कहने के लिए हम २१ सदी में रह रहे हैं पर फिर भी होणार किलिंग के नाम पे लोगों को मारा जाता है हमारे सामने और हम चुप चाप देखते रहते हैं। खाप पंचायतें खुद को न्यायपालिका से भी बड़ा मान लेती हैं और हम कोई विरोध नहीं करते उल्टा कई बुध्जीवी तो इसका समर्थन ही करते हैं।
एक तरफ हमारा देश आतंकवाद जैसी समस्या से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ नक्सलवाद एक बड़ी चुनौती बनके हमारे सामने आया है। सरकार ये अच्छी तरह जानती है की नक्सलवादियों की समस्या क्या है। सीधी सी बात है अगर आप उनके जल जंगल और ज़मीन को हथियाएँगे तो वो कहाँ जायेंगे क्या खायेंगे इसलिए वो सोचते हैं मरना भूख से भी है और लड़ते हुए भी तो क्यूँ न लड़के मारा जाए। सरकार जितना पैसा नक्सल उन्मूलन के नाम पे खर्च कर रही है वही पैसा उनके उठान में क्यूँ नहीं लगाती ? इतनी सी बात उसे क्यूँ नहीं समझ आती? वैसे नक्सलवाद उन्मूलन के लिए केंद्र सरकार ने ३५ जिलों को १४ हज़ार करोड़ रुपये दिए हैं पर सवाल ये उठता है की इतनी सतही राहत से आखिर क्या होगा?
आप सोच रहे होंगे अब तक मैं आपको सिर्फ समस्याओं पे समस्याएं बताये बताये जा रही हूँ क्या आजादी के बाद देश ने कोई तरक्की नहीं की? की है न अगर नहीं की होती तो आज हम विकासशील देशों की श्रेणी में नहीं खड़े होते। और ना ही भारत इतनी बड़ी युवा शक्ति बनके उभरता। यह हमारी म्हणत, लगन और जूनून का ही नतीजा है की आज अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत ने अपनी एक पहचान बना ली है। हमारे देश के पास वो युवा शक्ति है जो अगर ठान ले तो क्या नहीं कर सकती? बस ज़रुरत है युवा को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की। पर अफ़सोस आज के युवा के लिए आज़ादी के मायने ही बदल गए हें। वो आज़ादी का मतलब बेरोक टोक ज़िन्दगी को मानता है, दोस्तों से साथ मस्ती करने को मानता है, तफरी करने को मानता है। माना की ये सब भी ज़रूरी है ज़िन्दगी में पर क्या अपने समाज के प्रति हमारा कोई उतरदायित्व नहीं है? आज ज़यादातर लोगों के लिए आज़ादी महज़ सरकारी छुट्टी का ही ही एक और दिन बन के रह गया है। बड़े बड़े शहर में तो आलम ये है की पड़ोस में कौन रहता है ये तक पता नहीं होता सामने वाले को? सारे रिश्ते नाते को टाक पर रख कर सिर्फ पैसा कमाने के पीछे भागे जा रहे हें हम। तो कहीं न कहीं इस भागदौड़ वाली उप्भोग्तावादी संस्कृति से भी हमें आज़ादी चाहिए। कहीं ऐसा न हो की ये बाजारवादी संस्कृति की चका चौंध हमें इस कदर अपना गुलाम बना ले की फिर हम उसकी गुलामी से कभी आज़ाद ही ना हो पाएं। इन साड़ी चुनौतियों से निजात पाना ही आज के सन्दर्भ में असली आज़ादी है। तो इन ही शब्दों के साथ मैं आगे क्या करना है ये आप पर डालते हुए अपनी लेखनी को विराम देने देने जा रही हूँ की
तोपों से नहीं गोलों से नहीं
हौसलों से आज़ादी पायी है
अब तक तो देखा था अँधेरा
ये सुबह दिनों बाद आई
अभी महज़ टूटी जंजीरें
आगे और लड़ाई है। ।



भावना के
"दिल की कलम से "

Thursday, August 12, 2010

जब मेरी याद सताए तो मुझे ख़त लिखना

जब मेरी याद सताए तो मुझे ख़त लिखना
तुमको जब नींद न आये तो मुझे ख़त लिखना
हरे पेड़ों की घनी छाँव में हंसता सावन
प्यासी धरती में समाने को तरसता सावन
रात भर छत पे लगातार बरसता सावन
दिल में जब आग लगाए तो मुझे ख़त लिखना॥



शायर
???

दिन को भी इतना अँधेरा है मेरे कमरे में

दिन को भी इतना अँधेरा है मेरे कमरे में
साया आते हुए भी डरता है मेरे कमरे में
गम थका हरा मुसाफिर है चला जाएगा
कुछ दिनों के लिए ठहरा है मेरे कमरे में
सुबह तक देखना अफ़साना बना डालेगा
तुझको एक शक्स ने देखा है मेरे कमरे में॥



शायर
ज़फर गोरखपुरी

अब कैफ़ी आज़मी साहब को पढ़िए

बस एक झिझक है यही हाले दिल सुनाने में
की तेरा ज़िक्र भी आएगा इस फ़साने में
बरस पड़ती थी जो रुख से नकाब उठाने में
वो चांदनी है अभी तक मेरे गरीब खाने में
इसी में इश्क की किस्मत बदल भी सकती थी
जो वक़्त बीत गया मुझको आजमाने में
ये कहते हुए टूट पड़ा शाखए गुल से आखिरी फूल
अब और देर है कितनी बहार आने में॥



शायर
कैफ़ी आज़मी साहब

अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए

अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुयी चीज़ों को सजाया जाए
जिन चरागों को हवाओं का कोई खौफ नहीं
उन चरागों को हवाओं से बचाया जाए
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए
खुदखुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाए
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए॥

शायर
???

ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

धुप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो
वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में उसे
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो
पत्थरों में भी जुबां होती है दिल होता है
अपने घर की दर-ओ-दीवार सजाकर देखो
फासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढाकर देखो॥

शायर
शायद निदा साहब

Wednesday, August 11, 2010

गुलज़ार साहब की कुछ और त्रिवेणी प्रस्तुत है

त्रिवेणी- यह गुलज़ार साहब के द्वारा ही इजाद की गयी एक और विधा है जिसको उन्होंने इजाद तो १९७२-७३ में कर दिया था लेकिन यह प्रसिद्ध हुयी उनकी किताब आने के बाद। आज गुलज़ार साहब की लाडली बेटी "त्रिवेणी" जवान हो चुकी है। आप देखेंगे की इसमें ऊपर की दो पंक्तियाँ शेर की तरह होती है और अपने आप में पूरी होती हैं पर जो तीसरी पंक्ती है वो ऊपर वाली दोनों पंक्तियों का पूरा अर्थ ही बदल देती है। इसको गुलज़ार ने त्रिवेणी इसलिए कहा की जिस तरह से गंगा जमना सरस्वती तीन नदियाँ आपस मिलती हैं पर दिखती दो ही हैं कहा जाता है की सरस्वती दिखाई नहीं देती पर वो अन्दर कहीं बह रही है बस उसी तरह इस त्रिवेणी में तीसरी पंक्ती भी है। पढियेगा मज़ा आएगा----

हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी
तुम सलामत रहो हज़ार बरस

ये बरस तो फ़क़त दिनों में गए॥
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तुम्हारे होंठ बहुत खुश्क खुश्क रहते हैं
इन्ही लबों पे कभी ताज़ा शेर रहते थे

यह तुमने होठों पर अफ़साने रख लिए कब से॥
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यह सुस्त धुप अभी नीचे भी नहीं उतरी

ये सर्दियों में बहुत देर छत पे सोती है

लिहाफ उम्मीद का भी कब से तार तार हुआ॥

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कभी कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है

कीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था॥

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आप की खातिर अगर हम लूट भी लें आसमान

क्या मिलेगा चाँद चमकीले से शीशे तोड़ कर ?

चाँद चुभ जाएगा ऊँगली में तो खून आ जाएगा॥

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वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर एक दिन

जो मूड के देखा तो वह और मेरे साथ न था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं॥

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तमाम सफाए किताबों के फद्फदाने लगे

हवा धकेल के दरवाज़ा आ गयी घर में

कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो॥

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जंगल से गुज़रते थे तो कभी बस्ती भी मिल जाती थी

अब बस्ती में कोई पेड़ नज़र आ जाए तो भी जी भर आता है

दीवार पे सब्ज़ देखके अब याद आता है, पहले जंगल था॥

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कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं

आँख के शीशे मेरे चटके हुए हैं

टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझे॥

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एक से घर हैं सभी, एक से बाशिंदे हैं

अजनबी शहर में कुछ अजनबी लगता ही नहीं

एक से दर्द हैं सब, एक ही से रिश्ते हैं॥

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इस तेज़ धुप में भी अकेला नहीं था मैं

एक साया मेरे आगे पीछे दौड़ता रहा

तनहा तेरे ख़याल ने रहने नहीं दिया॥

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चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में च्भ्ते ही खून बह निकला

नंगे पाँव खेल रहा था, लड़का अपने आँगन में

बाप ने कल फिर दारू पी के माँ की बाह मरोड़ी थे॥

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शाम गुजरी है बहुत पास से होकर लेकिन

सर पे मंडराती हुयी रात से जी डरता है

सर चढ़े दिन की इसी बात से जी डरता है॥

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जिस्म के खोल के अन्दर ढूंढ रहा हूँ और कोई

एक जो मैं हूँ, एक जो कोई और चमकता है

एक म्यान में दो तलवारें कैसे रहती हैं?

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जिससे भी पूछा ठिकाना उसका

एक पता और बता जाता है

या वह बेघर है, या हरजाई है॥

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झुग्गी के अन्दर एक बच्चा रोते रोते

माँ से रूठ अपने आप ही सो भी गया

थोड़ी देर को "युद्ध विराम" हुआ है शायद॥

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सितारे चाँद की कश्ती में रात लाते हैं

सहर के आने से पहले ही बिक भी जाते हैं

बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब् का॥

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ज़मीन भी उसकी ज़मीन की ये नियामतें उसकी

ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बन्दे भी

खुदा से कहिये , कभी वो भी अपने घर आये॥

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शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर

किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुमको

तिनको का मेरा घर है, कभी आओ तो क्या हो?

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शाम से शम्मा जली देख रही है रास्ता

कोई परवाना इधर आया नहीं, देर हुयी

सौत होगी मेरी, जो पास में जलती होगी॥

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चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग नज़र आते हैं

रोड़े, पत्थर और गुलेलों से दिन भर खेला करता था

बहुत कहा आवार उल्काओं की संगत ठीक नहीं॥

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जो लिखोगे गवाही दे दूंगा

मेरी कीमत तो मेरे मुह पर लिखी है

"पोस्टल पोस्टकार्ड " हूँ मैं तो ॥

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गुलज़ार साहब की

"त्रिवेणी"

पिता जी की कलम से -हँसता चेहरा गुलाब लगता है

हंसता चेहरा गुलाब लगता है
चमकता माहताब लगता है
हंसी से बढ़ के और दौलत क्या
ये खजाना लुटाओ बढ़ता है
हंसी से सस्ती भी न चीज़ कोई
हंसो हसने में कुछ न लगता है
कैसा जादू है, कैसा इन्फेक्शन
हँसे जो एक दूजा हंसता है
हज़ार गम की एक दवा है हंसी
है बहादुर जो गम पे हँसता है
अश्क आँखों में है लबों पे हंसी
ना जाने कौन किसको छलता है
इश्क की राह उसने पकड़ी है
वह अंगारों पे रोज़ चलता है॥
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पिता अजय पाठक जी की
"दिल की कलम से "

Monday, August 9, 2010

साफ़ नियत है तुम्हारी तो मेरे पास आओ

साफ़ नियत है तुम्हारी तो मेरे पास आओ
रूह से रूह मिलाओ तो मेरे पास आओ
लगता नहीं अच्छा परदे में आके मिलना
आग चिलमन में लगाओ तो मेरे पास आओ
जीते हो किस तरह कुछ हाल तो बताओ
बात दिल की सुनाओ तो मेरे पास आओ
बंदिशों में आखिर कैसे मिलोगे हमसे
कोई दीवार गिराओ तो मेरे पास आओ
करते हो तुम मोहब्बत कैसे करें यकीं
प्यार परवान चढ़ाव तो मेरे पास आओ
बहते देखे हैं हजारों सलाबे सागर
प्यार अश्कों की बुझाओ तो मेरे पास आओ॥
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सामने धुँआ धुँआ मगर पर्दा नहीं था
पत्थरों को पूजा मगर खुदा नहीं था
राahat तो मिली मेरे बीमारे दिल को
जाने क्या पिलाया मगर दावा नहीं था
आँखों में नशा और सर पे जुनू उसके
होश उड़ रहे थे मगर मैकदा नहीं था
एहसासे नज़र से उसे ढूंढता रहा
जाने कौन था मगर गुम्सुदा नहीं था
सलामे इश्क कर बैठे नादानियों में
दूर जा रहे थे मगर अलविदा नहीं था॥
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शायर
सागर सुमार अज्ञानी
असली नाम
राम लखन मिस्त्री
पता --
एम् पी सेन गर्ल इंटर कोलेज रोड
सहयोग नगर, के के सी
चारबाग लखनऊ
राधा आंटी के जस्ट बगल में
०९५६५७७०१६३

Sunday, August 8, 2010

आज़ादी दिवस पर पिता जी की कलम से

आता है हर साल दिवस यह आज़ादी का

करता कई सवाल दिवस यह आज़ादी का

देशभक्ति के कैसेट आज बजेंगे जमकर

खद्दर धारी नेता देंगे भाषद(स्पीच ) डटकर

वही परेडें वही सलामी होंगी कसकर

अगले दिन आएँगी ये सब खबरें बनकर

कर्मकांड बन गया दिवस क्यूँ आज़ादी का

करता कई सवाल दिवस ये आज़ादी का ...............



क्या थे सपने बिरसा तात्या भगत सिंह के

होकर के आज़ाद कहाँ पर अब हम पहुचे

कहाँ हो गयी चूक कहाँ पर हम है भटके

कौन नचाता हमें आज भी देता झटके

क्या है आलम भूख गरीबी बीमारी का

करता कई सवाल दिवस यह आज़ादी का ................

(१८५७ की क्रांति तो हमें याद है पर उससे भी पहले देश को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद कराने के लिए बिरसा मुंडा, कान्हू जैसे वीर आदिवासियों ने भी क्रान्ति की थी और कहा था की जंगल और ज़मीन पर अधिकार लोगों का होना चाहिए शायद उनकी शहादाद कम ही लोगों को पता होगी इसलिए ज़िक्र किया है पिता जी ने उनका क्यूंकि किताबों में भी जियादा ज़िक्र नहीं मिलता उनका और एक और पंक्ती है-- "कौन नचाता हमें आज भी देता झटके "से आशय उस बाज़ार से है, उन देशों से है जो उदारीकरण के नाम पर हमें तरह तरह के झटके देते रहते हैं जैसे विदेशी पूंजी का खुदरा बाज़ार में प्रत्यक्ष निवेश। ज़रा सोचिये अगर ऐसा हुआ तो कितने व्यापारियों और किसानो का क्या होगा दुकानों और हाट का अस्तित्व ही मिट जाएगा नज़र आयेंगे तो सिर्फ बड़ी बड़ी कंपनियों के माल। )



रीति नीति अब भी क्यूँ है अंग्रेजों वाली

पुलिस आज भी धनिकों की करती रखवाली

एम् एल ऐ , सांसद बने क्यूँ गुंडे मवाली

बहस न चलती संसद में बस मुक्के गाली

कब होगा उपहास बंद यह आज़ादी का

करता कई सवाल दिवस यह आज़ादी का॥

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पिता अजय पाठक जी की
"दिल की कलम से "

हर घडी खुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा

हर घडी खुद से उलझना है मुक्क़दर मेरा
मै ही कश्ती हूँ मुझमें है समंदर मेरा
मुद्दतों बीत गयी खाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा॥
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शायर
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सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को खुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो
यही है ज़िन्दगी कुछ खाब चंद उमीदें
इन्ही खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
हर इक सफ़र को है महफूज़ रास्तों की तलाश
हिफाज्तों की रिवायत(परंपरा) बदल सको तो चलो
कहीं नहीं है कोई सूरज धुँआ धुँआ है फिजा
तुम अपने आपसे बहार निकाल सको तो चलो॥
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शायर
निदा फाजली साहब

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दुआर में हम
हर कलमकार की बेनाम खबर के हम हैं॥
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शायर
निदा फाजली साहब

दिल से दिल तक

साकिया एक नज़र जाम से पहले पहले

हमको जाना है कहीं शाम से पहले पहले

खुश हुआ है दिल की मोहब्बत तो निभा दी तूने

लोग उजड़ जाते हैं अंजाम से पहले पहले॥

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नज़र नज़र से मिलाकर शराब पीते हैं

हम उनको पास बिठा कर शराब पीते हैं

इसलिए तो अँधेरा है मैकदे में बहुत

लोग घरों को जलाकर शराब पीते हैं

उन्ही के हिस्से में आती है प्यास ही अक्सर

जो दूसरों को पिलाकर शराब पीते हैं॥

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इक न इक शम्मा अँधेरे में जलाए रखिये

सुबह होने को है उम्मीद बनाए रखिये

कौन जाने की वो किस राह गुज़र से गुजरें

हर गुज़र राह को फूलों से सजाये रखिये॥

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बदला न अपने आपको जो थे वही रहे

मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

दुनिया न जीत पो तो हरो न खुद को तुम

थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराजगी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश है

हम जिसके भी करीब रहे, वो हमसे दूर ही रहे

गुजरो जो बाग़ से तो दुआ मांगते चलो

जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे॥

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शायरों का नाम

???

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
माना की मोहब्बत का छिपाना है मोहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ
किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे खफा है तो ज़माने के लिए आ
जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने
वैसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ ॥

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शायर
अहमद फ़राज़ साहब

अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो

कठिन है डगर रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो
तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हे भी होश नहीं
बहुत मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो
ये एक शाम की मुलाक़ात भी गनीमत है
किसे है कल की खबर थोड़ी दूर साथ चलो
अभी तो जाग रहे हैं चिराग राहों में
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो॥
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शायर
अहमद फ़राज़

वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला

दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभाने वाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला
तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया
आज तनहा हूँ तो कोई नहीं आने वाला
मुन्तजिर किसका हूँ टूटी हुयी दहलीज़ पे मैं
कौन आएगा यहाँ कौन है आने वाला
मैंने देखा है बहारों में चमन को झलते
है कोई खाब की ताबीर बताने वाला?
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शायर
अहमद फ़राज़ साहब

चन्द शेर

निगाहों को निगाहों से समझ लेना मुनासिब है
जुबां से हसरते दीदार समझाई नहीं जाती॥

अश्क आँखों से गिरा, खुश्क हुआ सूख गया
काश पलकों पे ठहरता तो सितारा होता॥

ऐसा न हो की आप परेशां दिखाई दें
इतना हमारे वास्ते सोचा न कीजिये॥

तड़पते हैं न रोते हैं न हम फ़रियाद करते हैं
सनम की याद में हरदम खुदा को याद करते हैं॥

शायरों के नाम
???

दोस्त भी दिल ही दुखाने आये

तेरी बातें ही सुनाने आये

दोस्त भी दिल ही दुखाने आये

फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं

तेरे आने के ज़माने आये

अब तो रोने से भी दिल दुखता है

शायद अब होश ठिकाने आये

क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी

लोग क्यूँ जश्न मनाने आये॥

शायर

अहमद फ़राज़

Saturday, August 7, 2010

गुलज़ार की त्रिवेणी उनकी खुद की इजाद की हुयी विधा

कुछ इस तरह ख़याल तेरा जल उठा की बस
जैसे दिया-सलाई जले हो अँधेरे में ।
अब फूक भी दो वरना ये उंगलियाँ जलाएगा॥
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तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा
अजनबी लोग भी पहचाने से लगते हैं मुझे।
तेरे रिश्ते में तो दुनिया ही पिरो ली मैंने॥
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आओ सारे पहन लें आईना
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा
रूह अपनी भी किसने देखी है॥
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गुलज़ार साहब की त्रिवेणी

गुलज़ार साहब के बारे में तो जितना भी कहा जाए कम है शब्द तो उनकी कलम से झरने की तरह फूटते हैं। जिसमें खनक भी होती है, जिंदगानी भी और कहानी भी। चाहे वो गीत हो, ग़ज़ल हो, शेर हो या फिर त्रिवेणी (त्रिप्लेट्स ) लिखने में गुलज़ार का कोई जवाब नहीं। उनके गीतों से तो आप सब ही वाकिफ होंगे ही पर शायद त्रिवेणी इतनी न पढ़ी हो और अगर पढ़ी हो तो जो मैं न पोस्ट कर पाऊँ वो आप कर दीजियेगा। श्रवण जी ने गुलज़ार साहब की त्रिवेणी पोस्ट करने का सुझाव दिया था। मित्र इस सुझाव के लिए शुक्रिया। तो पेश है गुलज़ार की त्रिवेणी---------

इतने लोगों में कह दो अपनी आँखों से

इतना ऊंचा न ऐसे बोला करें

लोग मेरा नाम जाने जाते हैं॥

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क्या पता कब कहाँ से मारेगी

बस की मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ

मौत का क्या है एक बार मारेगी॥

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कांटे वाले तार पे किसने गीले कपडे टाँगे हैं

खून टपकता रहता है ...और नाली में बह जाता है

क्यूँ उस फौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है॥

(यकीन मानिए गुलज़ार साहब की ये त्रिवेणी लिखते हुए मेरी रूह काँप गयी आँखों में अश्क हैं मेरे। ज़रा कल्पना कीजिये उस मंज़र की वर्दी खून से सनी है उस फौजी की, उसकी बेवा हर रोज़ उस वर्दी को रगड़ रगड़ के धोती है मगर फिर भी उसमें से खून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है। सरहद पे न जाने कितने जवान शहीद होते हैं देश की रक्षा की खातिर पर उनको बुनियादी सुविधायें तक कई बार मुहैया नहीं कराई जाती हैं उनका बलिदान, उनका खून पानी की तरह बह जाता है )

माँ ने दुआएं दी थी

एक चाँद सी दुल्हन की

आज फुटपाथ पे लेते हुए...ये चाँद मुझे रोटी नज़र आता है॥

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चलो आज इंतज़ार ख़तम हुआ

चलो अब तुम मिल ही जाओगे

मौत का कोई फायदा तो हुआ॥

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ये माना इस दौरान कुछ साल बीत गए हैं

फिर भी आँखों में चेहरा तुम्हारा समाया हुआ है

किताबों पर धुल जमने से कहानी कहाँ ख़तम होती है॥

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मुझे आज कोई और न रंग लगाओ

पुराना लाल रंग अभी भी ताज़ा है

अरमानो का खून हुए जियादा दिन नहीं हुआ है॥

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तेरे गेसू जब भी बातें करते हैं

उलझी उलझी सी वो बातें होती हैं

मेरी उँगलियों की मेह्मांगी उसे पसंद नहीं॥

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उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा

देर तक हाथ हिलाती रही वह साख फिजा में

अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए?

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ज़िन्दगी क्या है जान ने के लिए

ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है

आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥

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सब पे आती है सबकी बारी से

मौत मुंसिफ है, कम-ओ-बेश नहीं

ज़िन्दगी सब पे क्यूँ नहीं आती॥

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कोई चादर की तरह खींचे चला जाता है दरिया

कौन सोया है तलए इसके जिसे ढूंढ रहे हैं

डूबने वाले को भी चैन से सोने नहीं देते


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गंगा जमुना सरस्वती की तरह गुलज़ार की त्रिवेणी

खट्टी मीठी यादों का सफ़र तैय कीजिये मेरे साथ

वो रुलाकर हंस न पाया देर तक
जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक
भुलाना चाहा अगर उसको कभी
और भी वो याद आया देर तक
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक
गुन गुनता जा रहा था एक फकीर
धूप रहती है न साया देर तक॥

तुम नहीं गम नहीं शराब नहीं
ऐसी तन्हाई का जवाब नहीं
गाहे गाहे इस पढ़ा कीजे
दिल से बेहतर कोई किताब नहीं
जाने किस किस की मौत आई है
आज रुख पर कोई नकाब नहीं
वो करम उँगलियों पे गिनते हैं
ज़ुल्म का जिनके कुछ हिसाब नहीं॥

पहले तुम वक़्त के माथे की लकीरों से मिलो
जाओ फुटपाथ के बिखरे हुए हीरों से मिलो
इशरते हुस्न में मसरूफ तो रहते हो मगर
वक़्त मिल जाए तो हम जैसे फकीरों से मिलो॥

रोज़ एक खाब खरीदा है किसी मंज़र से
रोज़ टूटा हूँ बहुत दूर कहीं अन्दर से
नए मौसम की तरह लोग बदल जाते हैं
मुख्तलिफ (अलग ) मैं ही हूँ अब भी ज़माने भर से॥

शायरों के नाम
???

खट्टी मीठी यादों का सफ़र

ऐ दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
हमको उनसे है वफ़ा की उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है॥

जो हज़ारों दिलों में रहता है
वो कभी बमकां नहीं होता॥

किसी के जाने का अब अफ़सोस नहीं है हमको
बहुत करीब से उठकर चला गया है कोई॥

कौन कहता है मोहब्बत की जुबां होती है
यह हकीक़त तो आँखों से बयान होती है
वो न आये तो सताती है एक खलिश (चिंता यहाँ पर ) दिल को
वो जो आये तो खलिश (यहाँ पर बेचैनी ) और जवान होती है॥

यह और बात है वो इंसान बनके आया है
मगर वो शक्स ज़मीं पर खुदा का साया है
बड़ा अजीब है आता है उसपे प्यार बहुत
मगर यह बात भी सच है की वो पराया है
उतर भी आओ कभी आसमान के जीने से
की खुदा ने तुम्हे मेरे लिए बनाया है
लोग जिन खाबों को देखने के लिए सोते हैं
उन्ही खाबों ने हमें उम्र भर जगाया है॥

कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ नहीं देखा
फिर उनके बाद किसी की तरफ नहीं देखा
यहाँ जो भी है आवे-रवां (बहता पानी) का आदि है
किसी ने खुश्क नदी की तरफ नहीं देखा
वो जब से गए हैं ज़िन्दगी से मेरे
ज़िंदा हूँ पर ज़िन्दगी की तरफ नहीं देखा॥

इनमें से किसी भी शायार का नाम नहीं पता मुझे अगर आप को पता हो तो मेरी मदद कीजियेगा

खता की जो तुझे बेपनाह चाहा ऐतबार किया

खता की जो तुझे बेपनाह चाहा ऐतबार किया
इस दिल ने ये गुनाह बार बार किया
लोग कहते रहे तो झूठा और फरेबी है
पर मैंने हर बार इस बात से इनकार किया॥

भावना के
"दिल की कलम से "

वक़्त लम्हा दर लम्हा गुज़र जाता है

कौन यहाँ किसके लिए पल बिताता है
वक़्त लम्हा दर लम्हा गुज़रता जाता है
पहले न होगी पर आज ये बात आम है
जनाब ज़िन्दगी मसरूफियत का नाम है ॥

शायर
???

नशा पूरे शबाब पर है

ये शाम भी रंगीन है, ये मौसम भी हसीन है
समां है बहका बहका होश में हम भी नहीं हैं
न साकी है न पैमाना है, फिर भी नशा पूरे शबाब पर है
ये खुमारी जाये भी तो जाये कैसे, तुमने आँखों से जो पिला रक्खी है॥

भावना के
"दिल की कलम से "

भूल शायद बहुत बड़ी कर ली

भूल शायद बहुत बड़ी कर ली
दिल ने दुनिया से दोस्ती कर ली
तुम मोहब्बत को खेल कहते हो
हमने बर्वाद ज़िन्दगी कर ली
उसने देखा बड़ी इनायत से
आँखों आँखों में बात भी कर ली
आशिकी में बहुत ज़रूरी है
बेवफाई कभी कभी कर ली
हम नहीं जानते चरागों ने
क्यूँ अंधेरों से दोस्ती कर ली
धड़कने दफन हो गयी होंगी
दिल में दिवार क्यूँ खड़ी कर ली॥

शायर
बशीर बद्र

निदा फाजली साहब के कुछ दोहे

सीधा साधा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैली में भरे आंसू और मुस्कान ॥

घर को खोजे रात दिन घर से निकले पाँव
वो रास्ता ही खो गया जिस रास्ते था गाँव॥

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दिल ने दिल से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार॥

बच्चा बोला देखके मस्जिद आलिशान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान॥

शायर
निदा फाजली

कैसे गुजरेगा ये सफ़र तनहा

कैसे गुजरेगा ये सफ़र तन्हा
है गली और रहगुज़र तन्हा
आग फिर आरज़ू की भड़की है
दिन सुलगता है रात भर तन्हा
ज़िन्दगी से जुदा तो होना है
हाय निकले न दम मगर तन्हा
जब कभी भी कदम बढ़ाये हैं
खुद को पाया है बेखबर तन्हा
सुन रहा हूँ फ़क़त ये शोर-ओ-गुल
है तो ये ज़िन्दगी मगर तन्हा
है शिकायत हज़ार होठों पर
ज़िन्दगी क्यूँ हुयी बसर तन्हा
रंजिशे दिल है और गम-ये-दुनिया
रहबर दो हैं पर सफ़र तन्हा ॥

शायर
???

Thursday, August 5, 2010

हर दर्द की यारों मैं दवा लेके चला हूँ

अपने शहर की ताज़ा हवा लेके चला हूँ
हर दर्द की यारों मैं दवा लेके चला हूँ
मुझको यकीं है की रहूँगा मैं कामयाब
क्यूंकि मैं घर से माँ की दुआ लेके चला हूँ॥


चाक है जिगर फिर भी , आये हैं रफू करके
जायेंगे हकीक़त से तुझको रूबरू करके
प्यार की बड़ी इससे और मिसाल क्या होगी
हम नमाज़ पढ़ते हैं गंगा में वजू करके ॥

दोनों शेर
इमरान प्रतापगढ़ी के हैं