Thursday, November 13, 2014

बरसों पहले सिंगरौली में छोटे छोटे होटलों,चाय की दूकानों में काम करते 8-10 साल के बच्चों को देखकर ये चंद लाइनें लिखी थी लेकिन आज भी हालात जस के तस हैं,कहने को बाल श्रम के खिलाफ कानून तो हैं।
       
          बाल श्रलिक 
आजादी का दिवस आज पर
हम कितने लाचार हैं
मांज रहे होटल में बरतन
सहते अत्याचार हैं
देखो चाचा नेहरु अपने
ख्वाबों की ताबीर को
खून टपकता उंगली से
बुनते बुनते कालीन को
बाप बना बंधुआ भट्ठे पर
मां घर में बीमार है
     मांज रहे होटल में बरतन
       सहते अत्याचार हैं
दाग दिया मालिक ने चिमटे से
चुनुआ की पीठ को
आंखों में आंसू फिर भी हंसता है
देखो ढ़ीठ को
किसे दिखायें किसे सुनायें
मन में भरा गुबार है
       मांज रहे होटल में बरतन
        सहते अत्याचार है
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Monday, November 10, 2014

इस समय दामाद कथायें सुर्खियों में है।एक दामाद जमीन घोटाले के कारण तो दूसरे दामाद जी अपने मुख्यमंत्री ससुर के पीए बनने के कारण खबरों में रहे।इसी संदर्भ में प्रस्तुत है कविता
        दामाद जी
हाथी घोड़ा पालकी
जय बोलो दामाद की
   चारागाह देश जब सारा
    चिंता फिर किस बात की
जिधर नजर फिर जाय तुम्हारी
दौड़ पड़ा अमला सरकारी
दिन को रात आम को इमली
      कहते सुर में आपकी
       जय बोलो दामाद की
रहे सभी कानून से ऊपर
किया बंदगी सबने झुक कर
पद से दूर रहे फिरभी थी
        धाक तुम्हारे नाम की
         जय बोलो दामाद की
सत्ता का सुख खूब है लूटा
बिल्ली के भागों छींका टूटा
किसमें दम रोके टोके जो
            मनमानी श्रीमान की
             जय बोलो दामाद की
समय रहा कब सदा एक सा
समय बदलते सब कुछ बदला
घिरी घटायें चली हवायें
         तूफानी रफ्तार की
         जय बोलो दामाद की
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Saturday, November 8, 2014

वाह वाह क्या बात है,पहले थर्ड फ्रंट का राग अलापते थे अब वही महामोर्चा का जाप कर रहे हैं।इसी पर चंद दोहे पेश हैं
1
टूट टूट कर फिर जुड़ें जुड़ते ही छितरांय
पता नहीं अागे अभी कितनी ठोकर खांय
2
थर्ड फ्रंटकी रागनी जब ना आई काम
महामोर्चा जाप से वे चाहें परिणाम
3
महामोर्चा के लिये लगता महा प्रयास
जनता कब से देखती बदला ना कुछ खास
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एक थी सिंगरौली(भाग-10)
इस तरह हम पाते हैं कि सिंगरौली की ही तरह दुनिया के दूसरे भागों से भी विश्वबैंक समर्थित परियोजनाअों का विरोध अस्सी के दशक के उत्तरार्ध अौर नब्बे के दशक के शुरुआत से ही होने लगा था जिसे अब अौर नजर
अंदाज करना विश्व बैंक के लिए मुश्किल होता जा रहा था क्योंकी विश्व बैंक विरोधियों ने इसके  खिलाफ जोर शोर से अभियान छेड़ रक्खा था। दुनिया  के सामने अपनी अच्छी छवि बनाये रखने अौर आलोचनाअों का मुंह बंद करनेके लियेविश्वबैंक ने कुछ परियोजनाअों में जाांच दल भेजा अौर उनकी सिफारिशों के आधार पर उन परियोजनाअों की आर्थिक मदद से पीछे हटा।भारत में इस तरह का उदाहरण सरदार सरोवर परियोजना थी जिससे मोर्स कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद विश्व बैंक ने हाथ खीचे।
   विश्व बैंक समर्थित परियोजनाअों से आने वाली शिकायतों की जांच के लिए विश्व बैंक की अोर से बाद में एक इंस्पेक्शन पैनेल का ही गठन कर दिया गया।लेकिन यह पैनेल स्वतंत्र न होकर विश्व बैंक के आधीन था अौर इसे शिकायत की जांच कर विश्व बैंक को ही अपने निष्कर्ष,सुझाव देने थे।वास्तव में तो यह एक सेफ्टी वाल्व भर था।फिर भी इसे एक सकारात्मक कदम माना जा रहा था।एक राय यह बन रही थी कि इसे भी आजमाया जाना चाहिए।
    सिंगरौली स्थित,विश्वबैंक द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त एनटीपीसी के रिहंदनगर बिजलीघर के विस्थापित परिवारों की अोर से सामाजिक कार्यकर्ता मधु कोहली ने वाशिंगटन स्थित इस इंश्पेक्शन पैनेल में याचिका दायर की।इसके पूर्व बैंक के अधिकारियों से इन विस्थापितों की समस्याअों को लेकर कई बार वार्तायें हुईं,काफी लिखा पढ़ी की गई पर कोई नतीजा न निकलते देखकर पैनेल का दरवाजा खटखटाया गया था।
प्रारम्भिक जांच में पैनेल ने पाया कि बैंक की गाइड लाइन के उल्लंघन का प्रथम दृष्टया मामला बनता है।पैनेल ने अपनी रिपोर्ट में भारत जाकर विस्तार से मामले की जांच किये जाने की सिफारिश की।विश्व बैंक की सबसे ताकतवर संस्था बोर्ड आफ डायरेक्टर ने पैनेल की भारत जाकर जांच करने की सिफारिश को नामंजूर करते हुए वाशिंगटन में रह कर विश्व बैंक कार्यालय में उपलब्ध दस्तावेजों के अधार पर जांच करने को कहा।मजेदार बात तो यह हुई कि इस सीमित जांच में भी पैनेल ने विश्वबैंक को अपने ही बनाये गये गये नियमों के उल्लंघन का दोषी पाया।
 विश्वबैंक के लिये यह बहुत ही शर्मनाक स्थिति थी।अमेरिका के एक प्रमुख अखबार ने चुटकी लेते हुए लिखा था कि-वर्ड बैंक अक्यूजेज इटसेल्फ ।अब यहां से शुरू होता है ड्रामे का दूसरा पार्ट।इस छीछालेदर से बचने के लिये बैंक अधिकारियों को बहुत पापड़ बेलने पड़े जिसकी अलग ही लम्बी दास्तान है।संक्षेप में बैंक के बोर्ड आफ डायरेक्टर ने सिंगरौली में पुनर्वास की समस्या की बात को स्वीकार किया अौरआनन फानन में समस्या के निराकरण के लिये एक एेक्शन प्लान बनाने की घोषणा की डाली। यह सब कुछ एकतरफा मामला था यानी विश्व बैंक की मनमानी क्योंकी एक्शन प्लान बनाने में न तो इंस्पेक्शन पैनेल जिसने पूरे मामले की जांच पड़ताल की थी उसे शामिल किया गया अौर ना ही शिकायत कर्ता विस्थापितों या उनके प्रतिनिधियों को ही।
इस तरह यह डैमेज कंट्रोल की एक चाल भर थी इससे अधिक कुछ नहीं।
     इसी एक्शन प्लान के अंतर्गत सिंगरौली स्थित एनटीपीसी के बिजलीघों के लिये स्वतंत्र मानीटरिंग पैनेल का गठन किया गया था।इस पैनेल के भी हाथ पहले ही बांध दिये गये थे क्योंकी यह भी कोई निर्णय नहीं ले सकता था सिर्फ एनटीपीसी ,विश्वबैंक के समक्ष अपनी सिफारिशें रख सकता था निर्णय तो विश्वबैंक का ही चलना था।एनटीपीसी ने स्वतंत्र मानीटरिंग पैनेल की राय-एक ही परियोजना के विस्थापितों को स्टेज1 अौर स्टेज2 में विभाजन कृत्रिम व असंवैधानिक है तथा सभी विस्थापितों को एक सा पैकेज दिया जाना चाहिये,का विरोध किया।इसीलिये स्वतंत्र मानीटरिंह पैनेल ने बाद में पहले के विस्थापतों(स्टेज1) के संबंध में अपनी रिपोर्ट सीधे भारत सरकार को दी थी जिससे उनके साथ न्याय हो सके लेकिन दुखद सत्य यही है कि वह रिपोर्ट आज भी सरकार के पास धूल खा रही है।
       - अजय
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Thursday, November 6, 2014

लीजिये साहब सेंसेक्स अट्ठाइस हजार पार कर गया।इस उछाल पर लोग खुश हैं,अगर सेंसेक्स लुढ़कता है तो हाय तौबा मच जाती है।इसी पर चंद दोहे पेश हैं
1
मत खुश हो मन देख कर यह सेंसेक्स उछाल
बीमारी से भूख की जूझें अब भी लाल
2
अौसत समृद्धी दिखा खुश होते हैं आप
सच पर पर्दा डालने का करते हैं पाप
3
खांई गैर बराबरी की बढ़ती ही जाय
देश तरक्की कर रहा वे रट रहे लगाय
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Monday, November 3, 2014

एक थी सिंगरौली(भाग-9)
अब लगे हाथ यह भी जान लें कि सिंगरौली को लेकर वाशिंगटन में क्यों अौर कैसे इतना हो हल्ला मचा कि बाद में विश्वबैंक की हिन्दुस्तान आने वाली टीमों के लिए तो जैसे चिलकाडांड तीर्थ बन गया था।हुआ यह कि लोकायन-लोकहित की पहल पर सन् 1987 में एनवायर्नमेंट डिफेंस फंड(ईडीएफ) अमेरिका,के सामाजिक कार्यकर्ता ब्रुश रिच ने सिंगरौली की यात्रा की,विस्थापित बस्तियों में गये,वहां की दुर्दशा देखी।सिंगरौली से वापसी के समय ब्रुश रिच विस्थापन अौर पुनर्वास पर चित्रकूट में आयोजित राष्ट्रीय कार्यशाला में भी शामिल हुए।इस कार्यशाला में गुजरात,झारखंड़,मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र आदि से विस्थापित प्रतिनिधियों के अलावा प्रो.रजनी कोठारी प्रो.धीरू भाई सेठ,डा.बी.डी.शर्मा,मेधा पाटकर,डा.वंन्दना शिवा,स्मितु कोठारी,सुरेश शर्मा आदि प्रमुख लोगों ने भाग लिया था। विस्थापन पर लम्बे विचार विमर्श के बाद यह आम राय थी कि देश में विकास के नाम पर बड़ी बड़ी परियोजनाअों अब विस्थापन बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है इसलिए जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए कानून हो।
     वापस जाकर ब्रुश रिच ने सिंगरौली के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट अमेरिकी सीनेट की एक समिति को दी तब जा कर हंगामा हुआ।इस रिपोर्ट से विश्व बैंक विरोधियों को बल मिल गया कि विश्व बैंक की मदद से चलने वाली परियोजनायें स्थानीय लोगों का जीवन कष्टमय बना रहीं हैं,अब बहुत हो चुका इसे बंद किया जाना चाहिये।इतना धमाल मचने के बाद विश्वबैंक की कुंभकर्णी नींद टूटी तब कहीं जाकर विश्वबैंक की टीम पहली बार सन् 1988में, यानी परियोजना शुरू होने के दस सालों बाद सिंगरैाली आई अौर विस्थापित बस्ती चिल्काडांड गई तब सब कुछ अपनी अांखों से देखा।
     दरअसल चिल्काडांड सिंगरौली में विस्थापन की त्रासदी का प्रतीक बन गया।हमेशा विस्थापितों को कूड़ा करकट के ढ़ेर की तरह जहां मन चाहा उठा कर फेंक दिया गया, कोई उनकी सुनने वाला नहीं,न  प्रशासन,न ही परियोजना अधिकारी।जिम्मेदार अधिकारियों की घोर उपेक्षाअौर लापरवाही का जीता जागता उदाहरण रही है यह विस्थापित बस्ती।एनटीपीसी के बिजलीघर से विस्थापित होने से पहले ये सभी लोग रिहंंद बांध से उजाड़े गये थे।जिसेे जहां जगह मिली जंगल झाड़ी साफ कर बस गया।वर्षों कष्ट सहकर जमीनों को खेती लायक बनाया।रिहंद की त्रासदी से अभी उबर भी नहीं पाये थे कि विस्थापन की गाज फिर आ गिरी उन पर।इस बार तो उन्हेंं रेलवे लाइन अौर कोयला खदान के दो पाटों के बीच पिसने के लिए ला पटका गया।
  जह चिल्का डांड की बात उठी है तो यह भी जानना रोचक होगा कि सारांश,मंथन,निशात,अंकुर जैसी सार्थक फील्में देने वाले संवेदनशील प्रसिद्ध निर्देशक श्याम बेनेगल ने सिंगरौली के अपने प्रशंसकों को निराश ही किया जब उन्होंने सिंगरौली अा कर एनटीपीसी के लिए एक फिल्म बनाई थी जिसमें एनटीपीसी की कार्य-संस्कृति की जादुई तस्वीर तो पेश की लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू की जरा सी झलक भी नहीं दिखाई।जिस मोती ढ़ाबा के आस पास वे अ्पनी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे वहीं से कुछ सौ मीटर की ही दूरी पर चिल्काडांड विस्थापित बस्ती थी लेकिन उनके कैमरे ने एक बार भी उधर का रुख ही नही किया।