Sunday, August 31, 2014

...बड़े खतरे हैं इस राह में 

बाबू जी धीरे चलना … बड़े धोखे हैं इस राह में। ये गाना बड़ी तेज़ी से लोकप्रिय होती जा रही वर्चुअल दुनिया के वर्चुअल रिश्तों पर सटीक बैठता है। खुल जा सिमसिम की तरह इंटरनेट पर महज़ एक क्लिक करके आप इस जादुई दुनिया में पहुँच सकते हैं। जहाँ आपके पास ऑनलाइन शॉपिंग, चैटिंग, गेम खेलने से लेकर सोशल मीडिया के  ज़रिये हज़ारों लोगों तक पहुचने के ढेरो रास्ते खुले हैं। इन सभी विकल्पों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो रहा है वर्चुअल रिश्ता। जहां इंटरनेट के ज़रिये आप अपने देश के साथ साथ विदेश में भी बैठे किसी भी शख़्स से दोस्ती कर सकते हैं। वर्चुअल रिश्तों की ये दुनिया १२-१८ साल के बच्चों और युवाओं को बड़ी रास आ रही है। खासकर छोटे शहर, कस्बों और गावों के युवाओं को। पर शहरी युवाओं का एक तबका ऐसा भी है जिसका वर्चुअल दुनिया और वर्चुअल रिश्तों से मोह भंग होता जा रहा है। उनकी नज़र में वर्चुअल रिश्ते फ़र्ज़ी होते है। वो दोस्त ही कैसा जो वक़्त पर काम न आये और मदद की उम्मीद आप वर्चुअल दोस्त से नहीं कर सकते। लेकिन बच्चे चाहे गांव के हो या शहर के अगर इंटरनेट उनकी पहुंच में है तो इस दुनिया के लिए उनकी दीवानगी देखते ही बनती है। हाल ही में इंदौर में हुए एक सर्वे में ये सामने आया कि १४-१८ साल के बच्चे १८-२० घंटे ऑनलाइन रहते हैं और कई बच्चों के फेसबुक पर अकाउंट हैं। हालांकि कई स्कूलों में फ़ोन ले जाना मना है लेकिन फिर भी बच्चे चोरी-छुपे फ़ोन का इस्तेमाल करते हैं। स्कूल में फ़ोन पर प्रतिबन्ध लगाने से भी क्या होगा, बच्चे घर आकर फ़ोन से चिपक जाएंगे। बच्चों को सोशल साइट्स पर अपनी फोटो अपलोड करना, अपनी गतिविधियों का स्टेटस अपडेट कर उसपर दोस्तों के लाइक्स और कमेंट्स देखना, नए नए लोगों से चैट करना अच्छा लगता है। अब तो बहुत जल्द प्रधानमंत्री जी ने भी अपने देश को डिजिटल इंडिया बनाने का वादा किया है यानि अब वर्चुअल दुनिया में हमारी हिस्सेदारी और भी ज़्यादा बढ़ जायेगी और हम वर्चुअल रिश्तेदारी बखूबी निभा सकते हैं। 

अब सवाल ये उठता है कि आखिर वर्चुअल दुनिया के लिए इतना आकर्षण क्यों ? पहली बात हर नयी चीज़ के प्रति आकर्षण ज़्यादा होता है। दूसरी बात एकल परिवार में माँ-बाप दोनों के नौकरी पर जाने के कारण बच्चे एकदम अकेले हो जाते हैं ऐसे में वो वर्चुअल दुनिया में अपना दोस्त तलाशना शुरू कर देते हैं और उनसे अपनी बातें शेयर करने लगते हैं क्यूंकि मम्मी पापा के पास तो उनसे बात करने का वक़्त होता नहीं। तीसरी बात हमारे पारम्परिक रिश्ते जैसे दादा-दादी , मौसा-मौसी, मामा-मामी, बुआ फूफा , नाना-नानी के पास जाने के लिए वक़्त भी चाहिए और पैसे भी और पारम्परिक रिश्तों में ख़ुशी और ग़मी दोनों में ही सामने वाले के घर हाजरी लगानी पड़ती है। आना जाना पड़ता है जबकि वर्चुअल रिश्ते में ऐसी किसी रस्मअदायगी की ज़रुरत नहीं इसलिए भी इस ओर लोगों का रुझान बढ़ रहा है।  चौथी बात लोगों खासकर बच्चों को नए नए दोस्त बनाना, उनसे बातें करना अच्छा लगता है। ऑडियो और वीडियो शेयरिंग  उनके लिए एकदम ही नया और रोमांचक अनुभव है। पांचवी बात स्मार्टफोन के ज़रिये इंटरनेट घर घर पहुंच गया है। आज सोशल साइट्स और व्हाट्स-अप, वाइबर, हाइक जैसे सोशल ऍप्स का इतेमाल स्टेटस सिंबल हो गया है। टीवी पर आने वाले विज्ञापन भी हमें इनकी ओर खींचते हैं। 

इस बेतार वर्चुअल दुनिया से अपराधों के तार तेज़ी से जुड़ते जा रहे हैं। चोरी, डकैती, अपहरण, हत्या जैसे अपराधों को अंजाम देने के लिए फेसबुक जैसी सोशल साइट्स का इस्तेमाल किया जा रहा है। ब्रिटेन, अमेरिका जैसे कई देशों में फेसबुक बच्चों और बड़ों की आत्महत्या का कारण बन चुका है।  वे लोग जो घंटों सोशल साइट्स पर सक्रिय रहते हैं वे धीरे धीरे अपने आसपास की दुनिया से अलग-थलग होते जाते हैं और एक समय ऐसा आता है जब वो डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। इस वर्चुअल दुनिया में कोई भी फेक आई. डी.
बनाकर आपको दोस्ती के जाल में फंसा सकता है। सोशल साइट पर आपकी प्रोफाइल पर जाकर आपकी पसंद-नापसंद के बारे में जानकर वो आपके मुताबिक़ आपसे बाते करके आपकी गुड बुक में शामिल हो सकता है और जब आप उसपर पूरी तरह से भरोसा करने लगे, उससे अपनी हर बात शेयर करने लगें यहां तक की पर्सनल फोटो और अपनी ज़िन्दगी के राज़ भी तब वो आपको इनके आधार पर ब्लैकमेल कर सकता है। आपकी पर्सनल फोटो और आपके सीक्रेट्स आपके जानने वालों को बताने की धमकी देकर आपसे रुपयों की  मांग कर सकता है, आपका शोषण कर सकता है। हो सकता है आप जिसे लड़की समझकर घंटों बतियाती हों वो असल में लड़का हो जो अब आपके और आपके परिवार के बारे में सब कुछ जानता है और कभी भी आपको 
नुक्सान पहुंचा सकता है। यह भी हो सकता है की जिससे आपकी मुलाक़ात ऑनलाइन हुयी हो धीरे धीरे बातें करते करते वो आपको बहुत अच्छा लगने लगा हो और आप तो उसको लेकर सीरियस हों पर वो आपसे फ़्लर्ट कर रहा है और जब आपको इस सच्चाई का पता चले तो आपका दिल टूट जाए आप डिप्रेशन में चली जाएं, या फिर आत्महत्या की कोशिश करें। इस तरह की घटनाएं आये दिन सुनने को मिलती हैं। 

यकीन मानिए ये सब बताकर मेरा मक़सद आपको ख़ौफ़ज़दा करना कतई नहीं है बल्कि मेरा इरादा आपको इस वर्चुअल दुनिया के खतरों से सचेत करना है। बड़ों को समझाना तो फिर भी आसान है पर बच्चों को समझाना ज़रा मुश्किल है पर इस डर से आप उन्हें इस दुनिया से ही रूबरू न होने दें ये ठीक नहीं है। वैसे भी आप उनपर बंदिश नहीं लगा सकते क्यूंकि अगर आप उन्हें स्मार्टफोन नहीं देंगे तो भी वो अपने दोस्तों के फोन या साइबर कैफ़े में जाकर इंटरनेट यूज़ कर सकते हैं। उनपर बंदिश लगाने के बजाये आप उन्हें इसके अच्छे बुरे दोनों पहलुओं से परिचित कराएं। आये दिन जो साइबर क्राइम के केस आ रहे हैं उनका उदाहरण देके समझाएं। बच्चों के दोस्त  बन जाएँ। उनको ये यकीन दिलाएं की अगर उनसे कोई गलती हो भी गयी हो, कोई उन्हें सोशल साइट्स पर परेशान कर रहा हो, कोई उनकी मॉर्फ करके अश्लील फोटो लगा रहा हो तो वो उस बात को आपसे छुपाये नहीं बल्कि किसी नयी मुसीबत में पड़ने के बजाये आपसे अपनी प्रॉब्लम खुलकर बताएं। बच्चे बड़े ही जिज्ञासू होते है और वो बड़ी जल्दी बहकावे में आ जाते हैं इसलिए वो साइबर क्राइम का सॉफ्ट टारगेट होते हैं। इंटरनेट के ज़रिये मानव तस्करी को भी अंजाम दिया जा सकता है। संभव है की कोई आपके बच्चे का दोस्त बनकर उससे मिलने और घूमने के बहाने आपके शहर आये और मौका पाकर आपके बच्चे को अगवा कर ले जाए। परमाणु बमों के हमले से ज़्यादा खतरनाक है साइबर हमला। ऐसे में मीडिया लिटरेसी की भूमिका और भी बढ़ जाती है। क्यूंकि बच्चे और युवा साइबर अटैक के सॉफ्ट टारगेट होते हैं इसलिए मीडिया   लिटरेसी की शुरुआत स्कूलों से ही हो जानी चाहिए। आपका मीडिया लिटरेट होना और भी ज़रूरी है क्यूंकि तभी आप अपने बच्चों को इस वर्चुअल दुनिया के अच्छे बुरे नतीज़ों से वाक़िफ़ करा पाएंगे।  

- भावना पाठक 

शुक्रिया प्रकाश पुरोहित जी। 

आज प्रकाश पुरोहित जी से मुलाक़ात हुयी। प्रकाश पुरोहित जी इंदौर से निकलने वाले प्रभातकिरण अखबार के संपादक हैं। उनसे मिलकर मुझे विष्णु नागर और जनसत्ता के प्रसून लतांत जी की याद आ गयी जिनकी हौसला-अफजाई की वजह से क़लम का सिपाही बन आप तक पहुँचने की हिमाक़त कर रही हूँ। वो कलम जो एक लम्बे अरसे से नहीं चली थी प्रकाश पुरोहित जी की वजह से फिर से चलने की कोशिश कर रही थी। पुरोहित जी ने कहा की हर लेखक को पढ़ने वाले के कंधे पर हाथ रखकर लिखना चाहिए। जिन शब्दों का इतेमाल हम बोल-चाल की भाषा में नहीं करते उनका इतेमाल आखिर लिखने में क्यों करते हैं ? अगर आप लिखते वक़्त अपने पाठक से कद में ऊंचा होकर लिखोगे तो आपको पढ़ने वाला शख्स आपके नीचे से गुज़र जाएगा। वो खुद को आपके करीब महसूस नहीं कर पायेगा, आपसे जुड़ नहीं पायेगा। जैसा आप सोचते हैं वैसा ही हर आम आदमी भी सोचता है फ़र्क़ सिर्फ इतना है की वो अपनी बातों को आपकी तरह बयां नहीं कर सकता। उसके पास आप जैसा अंदाज़-ए -बयां नहीं होता और न ही शब्दों का वो खज़ाना जिसके मालिक आप हैं। बेहतर होगा कि आप अपने लेख में आकड़ों का अंबार लगाने के बजाय ऐसी बात कहें जो लोगों के दिलों तक पहुंचे। आंकड़े लोगों को याद नहीं रहते लेकिन पढ़ी सुनी कोई पते की बात उसके ज़हन में घर कर जाती है। अपने आस-पास के लोगों, उनके काम धाम और बातों को ध्यान से देखो -सुनो और अपनी कलम को उनके हिसाब से उनके ही अंदाज़ में चलाओ  फिर देखो लोगों को पढ़ने में कितना मज़ा आएगा। अगर छोटे बच्चों को हम बड़े ही नीरस ढंग से नैतिकता का पाठ पढ़ाएं तो उनको वो सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं होती लेकिन अगर हम वही बात किसी कहानी के ज़रिये उन तक पहुंचाएं तो उन्हें मज़ा आता है। आपकी कलम से शब्द नदी की मानिंद कल-कल, छल-छल कर अपनी धुन में रवानी के साथ बहने चाहिए। कहीं पढ़ा भी था - जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख, फिर इस भीड़ में सबसे बड़ा तू दिख। सूचना और संचार क्रांति के इस युग में 
महिला दिवस ,पर्यावरण दिवस आदि दिवसों की तरह खेल दिवस भी आया और चला गया। हर वर्ष की तरह रस्में  पूरी की गईं पर अभी भी इस मानसिकता में ज्यादा बदलाव नहीं आया है -पढ़ोगे लिखोगे होगे नवाब ,खेलोगे कूदोगे होगे खराब।यह भी देखिये कि नीचे स्तर पर खेल  तक कितनों की पहुंच हो पाती  है। चलिए चंद दोहों में अपनी बात कहने की कोशिश करता हूँ

खेलों में इस कदर है राजनीति की पैठ
मार  कुंडली पदों पर नेता गए हैं बैठ

खेल दिवस से खेल का कितना होगा मान
खेल संघ जब कर रहे खेलों का अपमान

बाकी दिवसों सा हुआ खेल दिवस भी आज
खेलों की जो दशा है कहते आती लाज
bhonpooo.blogspot.in
  

Friday, August 29, 2014

बांधों ,खदानों ,बड़ी बड़ी परियोजनाओं से बहुत बड़े पैमाने पर होने वाले विस्थापन एवं पर्यावरणीय नुकसान को हमेशा जनहित ,देशहित के नाम पर जायज ठहराया जाता रहा है। जबकी कोयला खदान आबंटन घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि खदान आबंटित करते समय सरकारों ने जनहित और सार्वजनिक उद्देश्य की खुलेआम  अनदेखी की है। इस पर प्रस्तुत हैं चंद दोहे

संसाधन को लूटते ले जनहित का नाम
कोल आबंटन धांधली है इसका परिणाम

कालिख मुंह ऐसी पुती भेद न कछू लखाय
पंजा भी काला हुआ काला  कमल दिखाय

संसाधन पर देश के सबका है अधिकार
न्यायपूर्ण वितरण करे जो भी हो सरकार

Tuesday, August 26, 2014

अधिकतर धर्म ,जाति ,गोत्र आदि तमाम बंधनों  केकारण बेमेलशादियां होतीं हैं जिसके कारण जिंदगी नर्क बन जाती है। इसलिए जरूरत तो इन बेड़ियों को तोड़ने की है। विवाह के नाम पर धोखाधड़ी करनेवाले को जल्द कड़ी सजा मिलनी चाहिए पर लव जेहाद के नाम पर वैमनस्य फैलाना उचित नहीं कहा जायेगा। इस पर चंद दोहे प्रस्तुत हैं

प्रेम भला कब देखता जात पांत और धर्म
सौदागर जानें नहीं कभी प्रेम का मर्म

जाति धर्म की बेड़ियां हों बेमेल विवाह
घुट घुट कर जीवन जियें निकले आह कराह

धोखेबाजों को मिले जल्द सजा माकूल
लव जिहाद का नाम ले मत बोएं यूं शूल
bh

Sunday, August 24, 2014

मौत के मुहाने पर खड़ी एक और ज़िन्दगी : दास्तान-ए-रैगिंग 


दिल्ली के अपोलो अस्पताल में एक ज़िन्दगी मौत से लड़ रही है।  ४८ घंटे से खामोश पड़ी इस ज़िन्दगी के एक बार पलक झपकाने से डॉक्टरों और परिजनों के दिल में उम्मीद की किरण जाएगी है। ऊपर वाला इस उम्मीद को कायम रखे। मौत से जूझने वाली ये ज़िन्दगी महज़ १४ साल की है जिसका नाम है आदर्श। आदर्श ग्वालियर के सिंधिया स्कूल फोर्ट में ९ वीं का छात्र है जिसने अपने सीनियर्स की रैगिंग से परेशान होकर ख़ुदकुशी की कोशिश की। दुखद पहलू तो ये है की स्कूल प्रबंधन इस मामले को छुपाने में लगा है। जिस चादर से उसने फांसी लगाने की कोशिश की उस चादर तक को छुपाया गया। आदर्श के साथी कह रहे हैं की उसको हॉस्टल की गैलरी में एंगल से लटका देख बेहोशी की हालत में  नीचे उतारकर अस्पताल भेजा गया तो स्कूल प्रबंधन कह रहा है की उन्हें वो अपने कमरे में बेहोश मिला। इस घटना से स्कूल के सभी बच्चे ख़ौफ़ज़दा है और उनके परिजन फिक्रमंद इसलिए सिंधिया फोर्ट में अपने बच्चों से मिलने आने वाले परिजनों का तांता लगा रहा। आदर्श के माता पिता की आँखों में दर्द भी है और गुस्सा भी।

ज़्यादा पुरानी घटना नहीं है २००९ में भी हिमांचल प्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाले १९ वर्षीय अमन कचरू की रैगिंग की वजह से ही मौत हो गयी थी।  रैगिंग के नाम पर उसके नशे में धुत्त सीनियर्स ने उसे बेरहमी से पीटा और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया था जिसके कारण वो ज़िन्दगी से हार गया। माना दोषी छात्रों को ४ साल की सजा मिली पर अच्छे आचरण के आधार पर वो ९ महीने पहले ही जेल से रिहा हो गये। ऐसा ही अच्छा आचरण उन्होंने अमन के साथ क्यों नहीं किया, क्यूँ उसके साथ दरिंदगी से पेश आये और उसकी जान के दुश्मन बन बैठे ? ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाओं से हम कोई सबक क्यों नहीं लेते ?

अब जब रैगिंग की बात निकली है तो चलिए रैगिंग के इतिहास के पन्नों को खोल कर देखते हैं। इसका इतिहास १२०० साल पुराना है।  ग्रीक के ओलम्पिक खेलो से शुरू हुयी रैगिंग मिलिटरी से होती हुयी मेडिकल
कॉलेजों, इंजीनियरिंग व अन्य कॉलेजों के मार्फ़त स्कूलों तक पहुँच गयी। भारत में इसकी शुरुआत अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के साथ हुयी। पहले यह विषय उतना चर्चित इसलिए नहीं  क्यूंकि अंग्रेजी शिक्षा उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। जैसे जैसे अंग्रेजी शिक्षा आमजन तक पहुंची वैसे वैसे रैगिंग भी इसके साथ नत्थी हो गयी।

एम्स, क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज, आई आई टी जैसे कॉलेजों में रैगिंग का इतिहास नाकाबिल-ए-बर्दाश्त और भयावह रहा है।  खासतौर से मेडिकल कॉलेजों का।  रैगिंग के नाम पर सीनियर्स अपने जूनियर्स के मज़े लेने के लिए उन्हें तरह तरह से परेशान करते हैं। सबके सामने कपडे उतारकर न्यूड परेड करना , सीनियर्स के कपडे धुलवाना, सर के बल खड़े होने को कहना, कॉलेज गेट से आने वाली किसी भी लड़की को किस करने को कहना, इंटीमेट सीन्स करवाना, चालू हीटर पर पेशाब करवाना आदि रैगिंग के हथियार हैं। जो इसके करने से इंकार करता है उसको सबके सामने मारना पीटना, गाली गलौच करना रैगिंग करने वाले सीनियर्स का काम होता है। जो छात्र भावनात्मक रूप से कमज़ोर होते है वो अवसाद में चले जाते हैं। जो रैगिंग की ज़िल्लत बिलकुल नहीं झेल पाते वो मौत को गले लगा लेते हैं।

रैगिंग एक तरह की संगठित कैंपस हिंसा है जिसमें सीनियर्स का ग्रुप जूनियर्स को इंटरैक्शन और तहज़ीब सिखाने के नाम पर शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। इसके पक्षधर यह दलील देते है की इससे सीनियर्स और जूनियर्स एक बीच मज़बूत रिश्ता बनता है। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हॉउस कॉलेज और हॉस्टल की छात्रा रही हूँ। मैं खुद रैगिंग की भुक्तभोगी हूँ। सीनियर्स को कहीं भी देखते ही दंडवत प्रणाम करना, उनके सामने सर झुका कर चलना, बात बात पर सीनियर्स का चिल्लाना, सारी सीनियर्स का नाम याद रखना और भूल जाने पर उठक-बैठक लगाना मैंने भी किया है। एक तो माँ-बाप से दूर उनकी याद सताती दूसरा सीनियर्स सताते, कई महीने रोते गुज़रे मिरांडा हॉउस में।

अपने देश में तमिलनाडू में सबसे पहले रैगिंग के ख़िलाफ़ कानून बना था १९९७ में उसके बाद २००१ में सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में रैगिंग को बैन कर दिया। पर अफ़सोस रैगिंग पर प्रतिबन्ध होने के बावजूद कई छात्रों को रैगिंग के कारण मौत को गले लगाना पड़ता है। रैगिंग की शिकायत के लिए हेल्पलाइन भी बनायी गयी है। helpline@antiragging.in पर रैगिंग पीड़ित छात्र अपनी शिकायत दर्ज़ करा सकता है। उसकी पहचान गुप्त रखी जाती है, साथ ही वो 1800-180-5522 पर कॉल करके भी शिकायत कर सकता है। २००९ में अमन कचरू की मौत के बाद यू.जी.सी. ने रैगिंग को रोकने के लिए एक रेगुलेशन बनाया जिसके तहत हर कॉलेज में यह अनिवार्य कर दिया गया कि हर कॉलेज नए छात्रों को सीनियर्स से अलग रखेगा, बीच बीच में एंटी रैगिंग स्क्वॉड चेकिंग करेगा खासकर रात में, सभी छात्रों और उनके परिजनों से एफिडेविट भरवाया जाए की वो रैगिंग में किसी भी हाल में शरीक नहीं होंगे। ऐसी ही और बहुत सी शर्ते हैं पर अफ़सोस इन सबके बावजूद रैगिंग ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है।

रैगिंग को महज़ कानून बनाकर नहीं रोक जा सकता।  इसके  लिए हमें भी कड़े कदम उठाने होंगे। जिस कॉलेज या स्कूल में  रैगिंग की घटना हो उस स्कूल प्रबंधन की कड़ी निंदा होनी चाहिए साथ ही बहिष्कार भी। सीनियर्स को अपने जूनियर्स के प्रति संवेदनशील बनाने की भी ज़रुरत है ताकि वो उन्हें अपने छोटे भाई-बहन की तरह समझें। अगर किसी की रैगिंग के कारण मौत हो जाए तो दोषी छात्र को जेल के साथ साथ उसकी मार्कशीट और डिग्री पर भी उसके दोषी होने का ठप्पा लगा होना चाहिए ताकि उसे अपना किया ज़िन्दगी भर याद रहे और वो जहां भी नौकरी के लिए जाए वहाँ का मैनेजमेंट उसके कॉलेज बैकग्राउंड से अवगत हो। SAVE, CURE , स्टॉप रैगिंग, नो रैगिंग फाउंडेशन जैसी गैर सरकारी संस्थाओं को मज़बूत बनाने की ज़रुरत है। इन्हे लोगों का समर्थन मिलना चाहिए। इसके अलावा रैगिंग बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए चाहे वो मज़ाक के स्तर पर ही क्यों न की जाए।

भावना पाठक

मौत के मुहाने पर खड़ी एक और ज़िन्दगी : दास्तान-ए-रैगिंग 


दिल्ली के अपोलो अस्पताल में एक ज़िन्दगी मौत से लड़ रही है।  ४८ घंटे से खामोश पड़ी इस ज़िन्दगी के एक बार पलक झपकाने से डॉक्टरों और परिजनों के दिल में उम्मीद की किरण जाएगी है। ऊपर वाला इस उम्मीद को कायम रखे। मौत से जूझने वाली ये ज़िन्दगी महज़ १४ साल की है जिसका नाम है आदर्श। आदर्श ग्वालियर के सिंधिया स्कूल फोर्ट में ९ वीं का छात्र है जिसने अपने सीनियर्स की रैगिंग से परेशान होकर ख़ुदकुशी की कोशिश की। दुखद पहलू तो ये है की स्कूल प्रबंधन इस मामले को छुपाने में लगा है। जिस चादर से उसने फांसी लगाने की कोशिश की उस चादर तक को छुपाया गया। आदर्श के साथी कह रहे हैं की उसको हॉस्टल की गैलरी में एंगल से लटका देख बेहोशी की हालत में  नीचे उतारकर अस्पताल भेजा गया तो स्कूल प्रबंधन कह रहा है की उन्हें वो अपने कमरे में बेहोश मिला। इस घटना से स्कूल के सभी बच्चे ख़ौफ़ज़दा है और उनके परिजन फिक्रमंद इसलिए सिंधिया फोर्ट में अपने बच्चों से मिलने आने वाले परिजनों का तांता लगा रहा। आदर्श के माता पिता की आँखों में दर्द भी है और गुस्सा भी।

ज़्यादा पुरानी घटना नहीं है २००९ में भी हिमांचल प्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाले १९ वर्षीय अमन कचरू की रैगिंग की वजह से ही मौत हो गयी थी।  रैगिंग के नाम पर उसके नशे में धुत्त सीनियर्स ने उसे बेरहमी से पीटा और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया था जिसके कारण वो ज़िन्दगी से हार गया। माना दोषी छात्रों को ४ साल की सजा मिली पर अच्छे आचरण के आधार पर वो ९ महीने पहले ही जेल से रिहा हो गये। ऐसा ही अच्छा आचरण उन्होंने अमन के साथ क्यों नहीं किया, क्यूँ उसके साथ दरिंदगी से पेश आये और उसकी जान के दुश्मन बन बैठे ? ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाओं से हम कोई सबक क्यों नहीं लेते ?

अब जब रैगिंग की बात निकली है तो चलिए रैगिंग के इतिहास के पन्नों को खोल कर देखते हैं। इसका इतिहास १२०० साल पुराना है।  ग्रीक के ओलम्पिक खेलो से शुरू हुयी रैगिंग मिलिटरी से होती हुयी मेडिकल
कॉलेजों, इंजीनियरिंग व अन्य कॉलेजों के मार्फ़त स्कूलों तक पहुँच गयी। भारत में इसकी शुरुआत अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के साथ हुयी। पहले यह विषय उतना चर्चित इसलिए नहीं  क्यूंकि अंग्रेजी शिक्षा उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। जैसे जैसे अंग्रेजी शिक्षा आमजन तक पहुंची वैसे वैसे रैगिंग भी इसके साथ नत्थी हो गयी।

एम्स, क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज, आई आई टी जैसे कॉलेजों में रैगिंग का इतिहास नाकाबिल-ए-बर्दाश्त और भयावह रहा है।  खासतौर से मेडिकल कॉलेजों का।  रैगिंग के नाम पर सीनियर्स अपने जूनियर्स के मज़े लेने के लिए उन्हें तरह तरह से परेशान करते हैं। सबके सामने कपडे उतारकर न्यूड परेड करना , सीनियर्स के कपडे धुलवाना, सर के बल खड़े होने को कहना, कॉलेज गेट से आने वाली किसी भी लड़की को किस करने को कहना, इंटीमेट सीन्स करवाना, चालू हीटर पर पेशाब करवाना आदि रैगिंग के हथियार हैं। जो इसके करने से इंकार करता है उसको सबके सामने मारना पीटना, गाली गलौच करना रैगिंग करने वाले सीनियर्स का काम होता है। जो छात्र भावनात्मक रूप से कमज़ोर होते है वो अवसाद में चले जाते हैं। जो रैगिंग की ज़िल्लत बिलकुल नहीं झेल पाते वो मौत को गले लगा लेते हैं।

रैगिंग एक तरह की संगठित कैंपस हिंसा है जिसमें सीनियर्स का ग्रुप जूनियर्स को इंटरैक्शन और तहज़ीब सिखाने के नाम पर शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। इसके पक्षधर यह दलील देते है की इससे सीनियर्स और जूनियर्स एक बीच मज़बूत रिश्ता बनता है। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हॉउस कॉलेज और हॉस्टल की छात्रा रही हूँ। मैं खुद रैगिंग की भुक्तभोगी हूँ। सीनियर्स को कहीं भी देखते ही दंडवत प्रणाम करना, उनके सामने सर झुका कर चलना, बात बात पर सीनियर्स का चिल्लाना, सारी सीनियर्स का नाम याद रखना और भूल जाने पर उठक-बैठक लगाना मैंने भी किया है। एक तो माँ-बाप से दूर उनकी याद सताती दूसरा सीनियर्स सताते, कई महीने रोते गुज़रे मिरांडा हॉउस में।

अपने देश में तमिलनाडू में सबसे पहले रैगिंग के ख़िलाफ़ कानून बना था १९९७ में उसके बाद २००१ में सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में रैगिंग को बैन कर दिया। पर अफ़सोस रैगिंग पर प्रतिबन्ध होने के बावजूद कई छात्रों को रैगिंग के कारण मौत को गले लगाना पड़ता है। रैगिंग की शिकायत के लिए हेल्पलाइन भी बनायी गयी है। helpline@antiragging.in पर रैगिंग पीड़ित छात्र अपनी शिकायत दर्ज़ करा सकता है। उसकी पहचान गुप्त रखी जाती है, साथ ही वो 1800-180-5522 पर कॉल करके भी शिकायत कर सकता है। २००९ में अमन कचरू की मौत के बाद यू.जी.सी. ने रैगिंग को रोकने के लिए एक रेगुलेशन बनाया जिसके तहत हर कॉलेज में यह अनिवार्य कर दिया गया कि हर कॉलेज नए छात्रों को सीनियर्स से अलग रखेगा, बीच बीच में एंटी रैगिंग स्क्वॉड चेकिंग करेगा खासकर रात में, सभी छात्रों और उनके परिजनों से एफिडेविट भरवाया जाए की वो रैगिंग में किसी भी हाल में शरीक नहीं होंगे। ऐसी ही और बहुत सी शर्ते हैं पर अफ़सोस इन सबके बावजूद रैगिंग ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है।

रैगिंग को महज़ कानून बनाकर नहीं रोक जा सकता।  इसके  लिए हमें भी कड़े कदम उठाने होंगे। जिस कॉलेज या स्कूल में  रैगिंग की घटना हो उस स्कूल प्रबंधन की कड़ी निंदा होनी चाहिए साथ ही बहिष्कार भी। सीनियर्स को अपने जूनियर्स के प्रति संवेदनशील बनाने की भी ज़रुरत है ताकि वो उन्हें अपने छोटे भाई-बहन की तरह समझें। अगर किसी की रैगिंग के कारण मौत हो जाए तो दोषी छात्र को जेल के साथ साथ उसकी मार्कशीट और डिग्री पर भी उसके दोषी होने का ठप्पा लगा होना चाहिए ताकि उसे अपना किया ज़िन्दगी भर याद रहे और वो जहां भी नौकरी के लिए जाए वहाँ का मैनेजमेंट उसके कॉलेज बैकग्राउंड से अवगत हो। SAVE, CURE , स्टॉप रैगिंग, नो रैगिंग फाउंडेशन जैसी गैर सरकारी संस्थाओं को मज़बूत बनाने की ज़रुरत है। इन्हे लोगों का समर्थन मिलना चाहिए। इसके अलावा रैगिंग बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए चाहे वो मज़ाक के स्तर पर ही क्यों न की जाए।

भावना पाठक

एक तरफ पाकिस्तान की शरीफ सरकार घरेलू मोर्चे पर घिरी हुई है दूसरी और पाकसेना भारतीय गांवों में गोले बरसा रही है। इन दोनों में जो कनेक्शन है वह चंद दोहों में पेश है

जबहिं पाक सरकार की नैय्या डगमग होय
सीमा पर गड़बड़ बढ़े जानत है सब कोय

संगीनों की छाँव में रहीं पाक सरकार
कठपुतली सी नाचती रहती बारम्बार

आतंकी घुसपैठ की हरकत हर नापाक
लंबे अरसे से सदा करता आया पाक

Saturday, August 23, 2014

कल शब-ए-मालवा इंदौर में वसीम बरेलवी, मुनव्वर राणा , और राहत इन्दौरी साहब को सुना एक लम्बे अरसे के बाद बड़ा सुकून मिला। शक़ील आज़मी जी ने बड़ी ही ज़हनी बात कही की शायरी वो ताजमहल है जिसे बनाने के लिए हज़ारों कारीगरों की ज़रुरत नहीं होती, ये वो ताजमहल है जिसे शायर खुद अकेला बनता है।  वो खुद ही इस ताजमहल का राजमिस्त्री है, शाहजहाँ है सब कुछ वही है।  शुक्रिया हिदायतुल्ला खान साहब का जिन्होंने कल शब-ए-मालवा की शाम को और खूबसूरत बनाया इस महफ़िल को सजाकर।  पेश-ए-खिदमत है वसीम बरेलवी साहब की चंद शायरी।

१.
मैं बोलता गया हूँ वो सुनता रहा ख़मोश
ऐसे भी मेरी हार हुयी है कभी कभी।।

२.
फूल तो फूल है आँखों से घिरे रहते हैं
कांटे बेकार हिफाज़त में लगे रहते हैं।।

उसको फुरसत नहीं मिलती की पलटकर देखे
हम ही दीवाने हैं दीवाने बने रहते हैं।।

मुन्तज़िर मैं ही नहीं रहता किसी आहट का
कान उसके भी दरवाज़े पे लगे रहते हैं।।

देखना साथ न छूटे बुज़ुर्गों का कहीं
पत्ते पेड़ों पे लगे हों तो हरे रहते हैं।।


Friday, August 22, 2014

ज़िन्दगी के सौदागर


अगर वो हिम्मत करके चलती ट्रेन से कूदी न होतीं तो ना जाने उन्हें किसे बेच दिया जाता ? उन्हें कितने में बेचना है , खरीददार कौन है , सब तैय हो चुका था बस अब तो लड़कियों को मैसूर तक ले जाना भर बाकी था। रतलाम से अगवा की गयी दो नाबालिग बच्चियों को जैसे ही इस बात की भनक लगी कि ४०-४० हज़ार में उनका सौदा कर दिया गया है वैसे ही उन लड़कियों ने बैतूल स्टेशन पर चलती ट्रेन से छलांग लगा दी। ख़ुदा का शुक्र है वो सलामत हैं उन मानव तस्करों के चंगुल से भी और चलती ट्रेन से कूदने पर होने वाली दुर्घटना की आशंका से भी।

यह मानव तस्करी का पहला मामला हो ऐसा नहीं है , आये दिन अख़बारों, टीवी चैनलों पर मानव तस्करी की घटनाएं सुनने को मिल जाती हैं। ड्रग्स और हथियारों के बाद यह दुनियां का तीसरा सबसे बड़ा संगठित अपराध है जो बड़ी तेज़ी से फल-फूल रहा है। जहां महिलाओं और लड़कियों को यौन शोषण और देह व्यापार की आग में झोंक दिया जाता है तो मासूम बच्चों को बंधुआ मजदूर बनाकर अमानवीय तरीकों से होटलों , फैक्ट्रियों आदि में उनसे घंटो काम कराया जाता है साथ ही उनका यौन शोषण भी होता है। इतना ही नहीं  बच्चों के हाथ पैर तोड़ कर इनसे भीख तक मंगवाई जाती है।  पडोसी देश नेपाल से लाये गए बच्चों से जबरन सर्कस में काम कराया जाता है। इन सब के अलावा किडनी, लीवर आदि मानव अंगों की तस्करी के लिए भी मानव तस्करी की जाती है। मानव तस्करी को ख़त्म करने में एक बड़ी दिक्कत यह भी आती है की इसमें कम से कम तीन देशों के अपराधी शामिल रहते हैं - पहला जहां से बच्चों और औरतों को उठाया जाता है दूसरा वह देश जहां से होकर इनको गंतव्य देश तक पहुँचाया जाता है। इन् अपराधियों की लोकल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल लेवल तक ज़बरदस्त नेटवर्किंग रहती है।

मानव तस्करी के प्रमुख कारणों में - गरीबी, अशिक्षा , बेरोज़गारी है जिसका फायदा मानव तस्कर उठाते हैं।  वे गरीब और ज़रूरतमंद लड़कियों और औरतों को शहर या दूसरे देश में नौकरी दिलाने के बहाने , कभी शादी का झांसा देकर तो कभी पैसों का लालच देकर उन्हें उनके घरों से निकालते हैं और बाद में उनका सौदा कर देते हैं। जो लडकियां औरतें आसानी से उनके झांसे में नहीं आती उन्हें डरा धमकाकर या अगवा कर के भी इस काम में लगाया जाता है। नेपाल और बांग्लादेश से लडकियां पहले भारत लायी जाती हैं फिर यहां से खाड़ी देशों , यूरोप और अमेरिका तक में भेजी जाती हैं। जहां उनसे जबरन शादी से लेकर घरेलू कामकाज के साथ साथ देह व्यापार तक कराया जाता है।  यह भी देखा गया है की कभी कभी जो महिला खुद मानव तस्करी का शिकार होती है कुछ समय बाद वह इस व्यवसाय में शामिल हो जाती है और दलाल बनकर वे दूसरी लड़कियों महिलाओं को अपना शिकार बनाती हैं। ऐसा करने के लिए भी अक्सर उन्हें पैसों का लालच, इमोशनल ब्लैकमेल या नशे का आदि बनाकर किया जाता है।

दूर क्या जाना देश की राजधानी दिल्ली के पश्चिमी इलाके शकरपुर बस्ती में ही घरेलू नौकर मुहैया कराने वाली ५००० से ज़्यादा एजेंसियां काम कर रही हैं जिनका कोई लेख जोखा किसी भी सरकारी विभाग में नहीं है। बिहार, झारखण्ड, कर्णाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, नार्थईस्ट की लडकियां सबसे ज़्यादा दिल्ली में लेकर बेचीं जाती हैं। फर्स्ट पोस्ट के एक लेख के अनुसार दिल्ली भारत के मानव तस्कर व्यापार का गढ़ है। मानव तस्करी सबसे ज़्यादा देह व्यापार के लिए की जाती है। यहां से लड़कियों को हरियाणा जैसे राज्य में भी बेचा जाता है जहां उनसे हरियाणा के कुंवारे जबरन ब्याह रचाते हैं।

हमारे देश में इंसानी खरीद-फ़रोख्त जैसे गैर कानूनी अपराध की सजा सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक रखी गयी है बावजूद इसके यह अपराध घटने का नाम नहीं ले रहा क्यूंकि मानव तस्करी का काम बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है जिसमें कई बिचोलिये होते हैं। विडंबना तो यह है की अभी तक कोई ऐसा यूनिवर्सल कानून नहीं बना है जो मानव तस्करी के सभी पहलुओं को शामिल करता हो। मानव तस्करों के चंगुल से छुड़ाई गयी लड़कियों और औरतों के लिए जो शेल्टर्स बनाये भी गए हैं वहाँ उनके लिए सम्मान से अपने पैरों पे फिर से खड़े होने जैसे इंतजामात तक नहीं होते। माना अँधेरा बहुत घना है पर राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे कई गैर सरकारी संगठन उम्मीद की रौशनी का काम भी कर रहे हैं।  अमेरिका का इंटरनेशनल जस्टिस मिशन, नेपाल का ए. बी. सी., कनाडा का अ बेटर वर्ल्ड, भारत के शक्ति वाहिनी, प्रज्ज्वला, अपने आप वुमन वर्ल्ड वाइड आदि ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जो अपने स्तर पर मानव तस्करी के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे हैं।  ये संगठन न केवल मानव तस्करों के चंगुल से औरतों लड़कियों और बच्चों को आज़ादा कराते हैं बल्कि उनके रहने, ट्रेनिंग देने का भी काम करते हैं ताकि वो अपने पैरों पर खड़े हो सकें और सम्मान के साथ जीवन जी सकें।  अंत में आप सबसे  मेरी यह अपील है कि जब कभी भी और कहीं भी आप महिलाओं और बच्चों को संदिग्ध अवस्था में पाएं जहां उनके मानव तस्करों के हाँथ में पड़ने की आशंका हो तो ऐसे में कम से कम १०० नंबर डायल करके पुलिस को जानकारी ज़रूर दे दें।

भावना पाठक
http://bhonpooo.blogspot.in/

Thursday, August 21, 2014

हमारे लिए ही क्यूँ ?


हर ज़ोर आज़माइश दिखाते हमहीं पे क्यूँ
दुनियां की हर नसीहतें देते हमहीं को क्यूँ

हर ख़ौफ़ के साये में क्यूँ जीना पड़े हमें
रिवाज़ों की बेड़ियों में गया जकड़ा हमें क्यूँ

चुप्पी के सारे ताले हमारे लबों पे क्यूँ
शर्मों हया के परदे हमारे लिए ही क्यूँ

सुर्खाब के पर ऐसे लगे तुममें क्या जनाब
आज़ादियों का जश्न तुम्हारे लिए ही क्यूँ ?

भावना की कलम से
http://dilkeekalamse.blogspot.in/

कहां तो हम पूरे देश को डिजिटल बनाने जा रहें हैं कहां आलम यह है की चमत्कारों में विश्वास करने वालों की देशमें कमी नहीं है। खबर है की अजमेर की दरगाह में किशोर उबलते पानी मेंकूदा जिससे उसकी मृत्यु हो गई। पुलिस के अनुसार किशोर किसी चमत्कार की उम्मीद में कूदा था। इस पर यही कहूँगा
 

चमत्कार को दूर से करना सभी प्रणाम
चमत्कार के लोभ ने बहुत बिगाड़े काम

चमत्कार की आस में तजते लोग विवेक
अंध भक्ति की शरण में जाते लोग अनेक

चमत्कार की ओट में चले ढोंग पाखंड
चलना मत इस राह में धोखे बहुत प्रचंड
bhonpooo.blogspot.in

Wednesday, August 20, 2014

कहां तो यह कहा जा रहा था की सरकार उद्योगों के लिए कृषि भूमि नहीं लेगी ,अब उल्टे सीलिंग एक्ट से उद्योगों को छूट देने की तयारी चल रही है। लीजिए चंद दोहे पेश हैं

कृषि भूमि की लूट है लूट सके तो लूट
उद्योगों को मिल रही सीलिंग से अब छूट

खेती घटे की हुई मरते जांय किसान
कार्पोरेट खेती नहीं इसका कोई निदान

एक बीज से सैकड़ों दाने  जो उपजाय
आत्महत्या करनी पड़े बात समझ न आय
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Tuesday, August 19, 2014

होमवर्क बड़े बच्चों के लिए सिरदर्द तो था ही ,खबर है की गाजियाबाद के एक स्कूल में एल के जी के छात्र की राड से पिटाई होमवर्क न कर के लाने के लिए की गई। चंद दोहे इस पर प्रस्तुत हैं

नन्हों पर है पड़ रही होमवर्क की मार
यह कैसी शिक्षा हुई यह तो अत्याचार

शिक्षा से आनंद को देंगे अगर निकल
शिक्षा तो रह जाएगी सूचनाओं का जाल

कैरियर का बढ़ गया है इतना अधिक दबाव
 क्या घर क्या स्कूल अब सब पर पड़ा प्रभाव
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अपनी कलम से ..........

सरे बाज़ार मेरे सारे राज़ खोल रहा है
उसे गुमान है फिर भी मेरे हमराज़ होने का।

- भावना पाठक 

dil kee kalam se: पेश-ए-खिदमत है बेसबब रूठ के जाने के लिए आये थेआप ...

dil kee kalam se: पेश-ए-खिदमत है बेसबब रूठ के जाने के लिए आये थे
आप ...
: पेश-ए-खिदमत है  बेसबब रूठ के जाने के लिए आये थे आप तो हमको मनाने के लिए आये थे। ये जो कुछ लोग खमिदा (झुके ) हैं कमानों की तरह आसमानो ...

पेश-ए-खिदमत है 

बेसबब रूठ के जाने के लिए आये थे
आप तो हमको मनाने के लिए आये थे।

ये जो कुछ लोग खमिदा (झुके ) हैं कमानों की तरह
आसमानो को झुकाने के लिए आये थे।

- मुज़फ्फर हनफ़ी 


पेश-ए -खिदमत है 

सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछाकर 
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।।

मुन्नवर राणा 

Monday, August 18, 2014

देश में धूमधाम से कृष्ण जी का जन्म मनाने की खबरें आ रहीं हैं। कहते हैं उनकी मुरली की तान पर न केवल गोपियाँ बल्कि गायें ,पक्षी तक मुग्ध हो जाते थे। राधा कृष्ण के प्रेम को मिसाल माना गया है। आज कुछ और ही नजर आ रहा है। इस संदर्भ में कुछ दोहे प्रस्तुत हैं

ईलू ईलू प्रेम अब शॉपिंग मॉल बिकाय
जिसके अंटी मॉल हो सोइ वीर ले जाय

लव गुरुओं का देश अब बना है हिंदुस्तान
देह प्रेम तक ही रहे इनका सारा ध्यान

ढ़ाई आखर प्रेम में डूबे सकल जहान
राधा बावरी हो गई सुन मुरली की तान
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