Thursday, June 4, 2020

फ़िल्म #मुंबई मेरी जान की समीक्षा

फ़िल्म #मुंबईमेरीजान की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...21)

 यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत आज (04/06/2020)  इरफ़ान साहब की एक और फ़िल्म देखी मुंबई मेरी जान जो 2008 में रिलीज़ हुई थी जिसे निर्देशित किया था निशिकांत कामत ने। निशिकांत कामत ने ही इरफ़ान साहब को लेकर फ़िल्म #मदारी भी बनाई थी। ये फ़िल्म आधारित है 2006 के मुंबई ट्रेन ब्लास्ट्स पर। मुंबई की लाइफ लाइन मानी जाने वाली लोकल ट्रेनों में 2006 में महज़ 11 मिनट के अंदर प्रेशर कुकर बॉम्ब के ज़रिए सात अलग अलग जगहों पर धमाके हुए थे जिसमें 200 से ज़्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई और 700 के करीब लोग जख्मी हुए थे। इस हादसे ने मुंबई को हिलाकर रख दिया था, लोग लोकल ट्रेनों में चढ़ने से खौफ खाने लगे थे। 
इस फ़िल्म के जरिए डॉयरेक्टर ने उन पांच लोगों की ज़िंदगी से हमें क़रीब से रूबरू कराने की कोशिश की है जिनकी ज़िंदगियों पर ट्रेन ब्लास्ट्स का प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से असर पड़ा। एक कहानी है एक जानी मानी रिपोर्टर रूपाली जोशी (सोहा अली खान) और उसके मंगेतर की, एक कहानी है निखिल (आर माधवन) की, एक कंप्यूटर बेचने वाले सुरेश (के के मेनन) की, एक कहानी पुलिसकर्मी कदम की और उसके सीनियर तुकाराम पाटिल (परेश रावल) की और एक कहानी है दक्षिण भारत से रोज़गार की तलाश में मुंबई आए थोमस (इरफ़ान खान की)जो ट्रेन ब्लास्ट की घटना के बाद से कई फोनबूथ से पुलिस कंट्रोल रूम में मॉल्स में बॉम्ब होने की गलत सूचना देता है और फिर अफरा तफरी मच जाने  से आनंदित होता है। जुलाई 11, 2006 में हुए उस ट्रेन ब्लास्ट्स ने इन सबकी ज़िंदगियां बदलकर रख दीं। उस ब्लास्ट में रूपाली अपना मंगेतर खो बैठती है तो निखिल जो पर्यावरण प्रेमी है और इसी वजह से वो कार के बजाए ट्रांसपोर्टेशन के लिए ट्रेन का इस्तेमाल करता है वो ट्रेन में दोबारा चढ़ने का हौसला खो देता है और उस हादसे की वजह से डिप्रेशन में चला जाता है,सुरेश को मुस्लिमों से नफ़रत हो जाती है और वो सभी मुसलमान को अतंकवादी समझने लगता है, कदम को अपनी छुट्टियां कैंसल कर तुरंत अपना पुलिस स्टेशन ज्वाइन करना पड़ता है तो वो अपनी खीज दूसरों पर निकलता है, तुकाराम पाटिल जिनका कुछ ही दिनों में रिटायरमेंट होने वाला होता है उन्हें अपनी नौकरी में आखरी के कुछ दिन भी सुकून नसीब नहीं होता। थॉमस जो मॉल में बॉम्ब होने की गलत सूचना पुलिस को देता है जिससे उस मॉल में भगदड़ मच जाती है और जिसे देखकर वो मज़े लेता है जब वो देखता है कि उसकी वजह से एक बुज़ुर्ग व्यक्ति को अटैक आ गया और उसकी जान पर बन आई तो उसे बड़ी ही आत्म ग्लानि होती है और अपनी गलती का एहसास भी। 
बॉम्ब ब्लास्ट्स सिर्फ बेकसूर लोगों की जान लेकर औरों में खौफ ही पैदा नहीं करते बल्कि एक कौम विशेष के बेगुनाह लोगों के ख़िलाफ़ दूसरी कौम के लोगों में नफ़रत और शक का बीज भी बो जाते हैं जिनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। इस फ़िल्म के ज़रिए उस मीडिया पर भी करारा व्यंग किया गया है जो पीड़ित के परिवार से बड़ा ही बेतुका सा सवाल करता है "आपको कैसा लग रहा है"। जिस परिवार ने अपना अज़ीज़ खोया होगा ज़ाहिर सी बात है उसे अच्छा तो नहीं लग रहा होगा। हो सकता है वो इस मनःस्थिति में भी ना हो कि मीडिया को कोई जवाब दे सके, पर मीडिया को तो खबरों से खेलना है, संवेदनाओं को भुनाना है। दूसरों के दर्द में उन्हें हाई टीआरपी वाली स्टोरी नज़र आती है और कई बार तो खबरों को इस हद तक तोड़ा मरोड़ा जाता है कि खबर की आत्मा ही मर जाती है। ट्रेन ब्लास्ट्स में मरे और घायल हुए लोगों वाला सीन् मन विचलित कर देता है। इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत ये है कि फ़िल्म को आशावादी नज़रिए से फिल्माया गया है और आखिर में ये बताने की कोशिश की गई है कि बड़े से बड़ा हादसा मुंबई वालों के हौसलों को नहीं तोड़ पाया, बॉम्बे की रफ्तार को कम नहीं कर पाया। हर हादसे से बॉम्बे जल्द से जल्द उबर कर फिर क्रियाशील हो गया है। 
एक सीन में बतौर सीनियर पुलिस ऑफिसर तुकाराम पाटिल (परेश रावल) अपने जूनियर को समझाते हैं कि उसे पुलिस की नौकरी को एक दर्शक की माफ़िक एक फ़िल्म की तरह देखना चाहिए, उसमें एक्टिंग करने की ज़रूरत नहीं है। जहां आपने एक्टिंग करनी शुरू की वहीं कैसेट उलझ जाती है। 
जब सुरेश (के के मेनन) ट्रेन ब्लास्ट के गुनहगारों का कुछ भी पता ना लगा पाने का गुस्सा तुकाराम पाटिल पर उसे धक्का देकर निकालता है तो पाटिल पिता की तरह दरिया दिल होकर उसे माफ कर देता है और एक उदाहरण के ज़रिए बड़े प्रेम से समझाता है कि वो उसे धक्का नहीं देना चाहता बल्कि वो इस धक्का मुक्की की चेन को तोड़ना चाहता है। मजहबी धक्का मुक्की सिर्फ और सिर्फ हिंसा को जन्म देती है, नफरतों के बीज बोती है, ब्लास्टों का रूप अखतियार करती है जिससे तिल तिल मरता है आपसी प्रेम, विश्वास और भाईचारा।

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