Tuesday, June 2, 2020

फ़िल्म #सात ख़ून माफ़ क़ की समीक्षा

फ़िल्म सात ख़ून माफ़ की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...20) 

आज (01/006/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित फिल्म सात खून माफ देखी जिसमें मुख्य किरदार निभाया है प्रियंका चोपड़ा ने जिसके लिए उन्हें कई अवॉर्ड्स भी मिले साथ ही उनके अभिनय की सराहना भी हुए। हालाकि 2011 में अाई ये फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर तो धूम नहीं मचा पाई पर मसाला फिल्मों से इतर सेंसिबल सिनेमा पसंद करने वालों को खूब रास अाई। इस फ़िल्म को देखने की मेरे पास दो वजहें थीं: इरफ़ान खान साहब और #विशालभारद्वाज जी। दरअसल विशाल भारद्वाज जी का एक स्क्रीन प्ले मैंने #Lallantop पर पढ़ा था: #इरफ़ान और मैं। अठारह पेज के इस स्क्रीन प्ले को पढ़ते हुए मुझे लगा  कि मैंने इरफ़ान साहब जी को लेकर बनाई गई दो फिल्में मकबूल और हैदर तो देख ही ली है क्यूं ना सात ख़ून माफ़ भी देख ली जाए। इस फ़िल्म को  देखने की ललक तब और बढ़ गई जब मैंने विशाल भारद्वाज जी के स्क्रीनप्ले में पढ़ा कि इस फ़िल्म में प्रियंका का शायर पति बनने के लिए कोई तैयार नहीं हो रहा था तो विशाल साहब के मनुहार पर इरफ़ान साहब ने आखरी में हामी भारी। प्रियंका चोपड़ा के साथ साथ इस फ़िल्म में विवान शाह, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम, इरफ़ान खान, अन्नू कपूर, अलेक्जेंडर दयाचेंको, नसीरुद्दीन शाह एवं ऊषा उत्थुप हैं। रस्किन बॉन्ड जिनके नॉवेल "सुजैन्ना सेवन हसबैंड" पर ये फ़िल्म आधारित है उनका भी आखरी में गेस्ट अपीयरेंस है। ये फ़िल्म कहानी है उस सुजैन्ना की जो ज़िन्दगी से लबरेज़ है पर इश्क़ से मायूस, जो सच्ची मोहब्बत की तलाश में दर बदर भटकती है पर उसे मिलती हैं सिर्फ रुसवाईयां। खुशियों की तलाश में सुजैन्ना गम के समंदर और गुनाहों के दलदल में फंसती ही चली जाती है। कोई उसके हुस्न का दीवाना था तो किसी को उसकी दौलत से मोहब्बत थी, उसकी रूह तक कोई ना पहुंच सका। जो उससे सच्ची मोहब्बत करता था और उसके आसपास ही था उसे वह पहचान ना सकी बिल्कुल उस मृग की तरह जिसकी नाभि में कस्तूरी होती है और वो उसे इधर उधर ढूंढता है।    वो अपने जिन पतियों का ख़ून करती है उन सबके के पीछे की उसकी अपनी ठोस वजह थी। प्रेम और सुजैन्ना का मानो छत्तीस का आंकड़ा था। जन्म देते ही मां गुज़र गई, छुटपन में ही बाप का साया भी सर से उठ गया, जिसे चाहा उसमें से किसी ने उसे अपने पैर की जूती समझा, कोई कहीं और मसरूफ रहा, कोई इंसान के भेष में जानवर निकला, कोई पहले से ही शादीशुदा था, कोई दिवालिया था और उससे प्रेम का नाटक कर उसकी सारी दौलत हड़प लेना चाहता था। सब के सब उससे ही कुछ चाहते रहे, वो क्या चाहती है ये जानने की कोशिश किसे ने भी नहीं की। कभी वो सुजैन्ना से आना बनी तो कभी सुल्ताना पर नाम बदलने से तकदीरें नहीं बदलतीं। उसकी तकदीर में शायद सारे बुरे मर्द ही लिखे थे।
फ़िल्म का पहला सीन: सुजैन्ना ने अपनी कनपटी पर बंदूक तान रखी है, बेजान सा चेहरा, शुष्क होंठ, चेहरे पर क्रोध, भय और मायूसी के अलग अलग भाव आते जाते हुए और फिर एक चीख के साथ गोली की आवाज़ और सामने की दीवार रक्तरंजित।  
सुजैन्ना की कहानी अरुण कुमार (विवान शाह) अपनी पत्नि नंदिनी (कोंकणा सेन शर्मा) को सुनाता है उसे बताता है कि किस तरह साहेब (वो सुजैन्ना को साहेब बोलता था) उसका पहला प्यार थीं और जब उनका पहला पति मेजर (नील नितिन मुकेश) मरा तो वो खुशी से फूल कर गुब्बारा हुआ जा रहा था कि अब उसके और साहेब के बीच कोई तीसरा नहीं होगा पर साहेब को तो गुब्बारा नहीं गिटार पसंद था यानि उनकी लाइफ में दूसरे मर्द की एंट्री होती है जो एक गिटारिस्ट था और गाता भी था जिमी (जॉन अब्राहम)। जिमी को ड्रग्स की लत थी और वो एक नंबर का झूठा भी था। सुजैन्ना ने अपनी इस शादी को बचाने की पूरी कोशिश की पर अफसोस नहीं बचा पाई। इस पति की भी रहस्यात्मक ढंग से मौत हो जाती है। तीसरा पति शायर ( इरफ़ान ख़ान) था उसकी शायरी में जितनी मुलायमियत थी वो उतना ही सख्त और  वहशी था। चौथा पति निक एक रशियन जासूस होता है। सुजैन्ना को लगा अब शायद उसे सच्चा प्रेम मिल जाए पर यहां भी धोखा, मॉस्को में निक की पत्नि और दो बच्चे होते हैं। निक की मौत भी रहस्यात्मक ढंग से एक कुएं में गिरने और सांपों के काटने से होती है। पांचवा नंबर होता है अन्नू कपूर का को इंटेलिजेंस के ऑफिसर होते हैं और सुजैन्ना को निक की मौत के जंजाल से निकालने के लिए उससे सेक्सुअल फेवर मांगते हैं और सुजैन्ना के मोह पाश में इस कदर जकड़ जाते है कि वो जकड़न उनकी ज़िन्दगी को भी जकड़ लेती है और वो भी भगवान को प्यारे हो जाते हैं। ज़िन्दगी से हताश सुजैन्ना जब आत्महत्या करने की कोशिश करती है तो एक डॉक्टर (नसीरुद्दीन शाह) के द्वारा बचा ली जाती है। हालाकि वो उस डॉक्टर से शादी नहीं करना चाहती पर वो सुजैन्ना से शादी करना चाहता है ताकि उसकी दौलत हथिया सके। डॉक्टर सुजैन्ना को मारना चाहता है पर वो ही उसे मार देती है। आखिरी शादी वो येशु से करती है और नन बन जाती है। सब तरफ घोर अंधियारा, हताशा और निराशा, आत्म ग्लानि से भरी सुजैन्ना को अंत में येशु की शरण में सुकून मिलता है। 
प्रियंका चोपड़ा का अभिनय ज़बरदस्त है। प्रियंका इस फ़िल्म और बर्फी फ़िल्म के लिए याद की जाएंगी। विशाल भारद्वाज जी ने सुजैन्ना के सभी पतियों का चयन भी बख़ूबी किया है खासकर नसीर  साहब, इरफ़ान साहब और अन्नू कपूर का अभिनय काबिले तारीफ़ है। विवान शाह और उनके मुंहबोले बाप गूंगे का किरदार भी प्रभावशाली है। जाने माने लेखकों और साहित्यकारों के उपन्यास और नाटकों पर फ़िल्म बनाने में विशाल भारद्वाज का कोई सानी नहीं है। गीत "डार्लिंग आंखों से आंखें चार करने दो" में रेखा भारद्वाज और ऊषा उत्थुप ने कमाल ही कर दिया है। ऐसी फिल्मों का अपना एक ख़ास दर्शक वर्ग होता है और विशाल भारद्वाज की अधिकांश फिल्में ख़ास दर्शक वर्ग के लिए होती हैं, सस्ते और हल्के मनोरंजन से कोसों दूर।

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