Wednesday, January 14, 2015

एक थी सिंगरौली-----16
यह बात सन् 1998 या1999 के शुरुआत की है ठीक ठीक याद नहीं।यह जरूर याद है कि वह दौर निराशा का था।विश्वबैंक के इंस्पेक्शन पैनल से हल्की ही सही एक उम्मीद तो जगी थी कि विस्थापितों की समस्याअों की सुनवाई होगी।विस्थापितों के प्रति एनटीपीसी का रवैया शुरू से ही असंतोषजनक था।पुनर्वास और विस्थापित उनके लिए हमेशा ही सिरदर्द रहे हैं।पुनर्वास के मामले में भरसक टालमटोल और कम से कम खर्च में काम निकालने की नीति अपनाई गई।लेकिन विश्वबैंक ने भी इस बार दिखला दिया था कि एेसे ही नहीं एनटीपीसी को विश्व बैक का मानस पुत्र कहा जाता है बल्कि विश्वबैंक सचमुच एनटीपीसी का बाप है।
विश्वबैंक इंसपेक्शन पैनल में सिंगरौली के विस्थापितों की अोर से याचिका दायर किये जाने के बाद जब पैनल ने प्रारम्भिक जांच और बाद में डेस्क इंक्वायरी में भी विश्वबैंक को अपने ही बनाये नियमों के उल्लंघन का दोषी पाया तब विश्वबैंक अपने असली रूप में आ गया।गल्ती सुधारने के नाम पर विश्वबैंक की अोर से बिना विस्थापितों से कोई परामर्श किये ही कार्यक्रम बनाया गया।इसके क्रियान्वयन की जांच के लिये जो उच्चस्तरीय निगरानी समिति भी बनाई उसमें भी विस्थापितों का प्रतिनिधित्व नहीं रक्खा गया।इस तरह शक्तिहीन इंडिपेंडेंट मानीटरिंग पैनल और मनमानी निगरानी समिति बनाकर जिस तरह से दुनिया की नजरों में विश्वबैंक ने धूल झोंका उससे निराशा ही हुई।इसके बाद ही यह मानस बना कि उन गांवों पर ध्यान दिया जाय जो अभी विस्थापन की चपेट में नहीं आये हैं।तभी मधु कोहली के साथ हिरवाह,सिंगरौलिया गांव जाना हुआ।
विश्वबैंक की अोर से सिंगरौली क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण अध्ययन करवाये गये,यह अलग बात है कि उन अध्ययनों की रिपोर्टें धूल ही खाती रहीं।सिंगरौली क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण अध्ययन एक ब्रिटिश संस्था द्वारा किया गया जो जीएचके स्टडी के नाम से जानी जाती थी।इस अध्ययन की खास बात यह थी कि इसमें काचन-मयार नदी के इलाके में कृषि के विकास पर ध्यान देने की सलाह दी गई थी।इसके पीछे यह तर्क था कि काचन-मयार नदी वाला भूभाग अत्यधिक उपजाऊ है यहां आधुनिक खेती को बढ़ावा देकर अच्छी पैदावार ली जा सकती है।इस प्रकार से सिंगरौली क्षेत्र में परियोजनाअों के कारण बढ़ी हुई आबादी की खाद्य समस्या का स्थानीय हल निकाला जा सकता है।इस उपजाऊ इलाके में कोई ऊर्जा परियोजना न लगाकर सघन खेती को बढ़ावा देने की बात के समर्थन में तर्क यह था कि कृषि क्षेत्र में रोजगार की कहीं ज्यादा संभावनायें हैं जबकी ऊर्जा परियोजना जैसी भारी पूंजीवाली परियोजनाअों में लगने वाली पूंजी के मुकाबले में रोजगार की संभावना कम होती है।
हमें इस रिपोर्ट का ध्यान सिंगरौलिया गांव में बैठकर लोगों से चर्चा करते समय उस वक्त आया जब उन्होंने एक अलग ही समस्या सामने रक्खी जिसका निदान उन्हें उनके बूते के बाहर लग रहा था।हम लोग जब सिंगरौलिया गांव हिरवाह होते हुए पहुंचे तो एक जगह चार-छह लोगों को इकट्ठा देख कर वहीॆ रुक गये।अपना परिचय देने और थोड़ी औपचारिक बातचीत के बाद हमने लोगों के सामने यह प्रश्न रक्खा कि अगर आपके गांव में कोई परियोजना आये तो क्या आप लोग अपनी जमीनें देंगे,इस पर अलग अलग राय सुनने को मिली।कुछ लोगों का कहना था कि प्लांट के लिए जमीन लेते समय तो बहुत वादे किये जाते हैं,बहुत सपने दिखाये जाते हैं।एेसा लगता है कि प्लांट लगने से ही हमारा जीवन खुशहाल होगा,बच्चों का भविष्य उज्जवल होगा और प्लांट का विरोध करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है।बाद में यह सब शेखचिल्ली का सपना लगता है। जमीन लेने के बाद तो परियोजना अधिकारियों का नजरिया एकदम बदलजाता है।विस्थापितों को तो वे फूटी आंख भी देखना पसंद नहीं करते।शुरू में जिन गांव वालों के गले में बांह डाल कर घूमते हैं,जिनके साथ चाय पीते हैं वही विस्थापित होने के बाद उनके लिए सिरदर्द हो जाता है।शक्तिनगर,अनपरा,रिहंद,विंध्यनगर की यही कहानी रही है,लोग बार बार ठगे गये।सबसे ज्यादा उपेक्षित विस्थापितों की बस्तियां ही रही हैं।  
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