एक थी सिंगरौली-------18
नेताअों का चीरहरण शायद काफी देर तक अौर चलता अगर उन्हीं में से एक ने यह कह कर चर्चा पर विराम न लगाया होता कि भाई लोगों नेता पुराण पर हम सारी रात बतियाते रहें तो भी इसका कुछ अोर छोर न मिलेगा यह भी हरि कथा की तरह अनंत है।इस तमाम गलचौर से कुछ हासिल भी नहीं होने वाला है।मजे की बात यह भी है कि जिन नेताअों की यहां हम बैठकर बखिया उधेड़ रहे हैं अगर उनमें से कोई भी अभी आ जाय तो हम सब के सुर बदल जायेंगे अौर तुरंत ही नेता जी के आवभगत में लग जायेंगे।तो एेसी बक बक से क्या लाभ।बेहतर होगा कि हम उस पर सोच विचार करें जिस समस्या से आज तमाम गांव जूझ रहे हैं। अगर कोई हमें इस समस्या का कोई रास्ता बता दे तो हम पर बहुत उपकार होगा।उन्ही सज्जन ने बात को खोलते हुये कहा कि देखने में तो ऊपर ऊपर लगता है कि हम लोग पहले से ठीक ठाक हैं,पक्की सड़कों पर चलते हैं,बस,रेल से यात्रा करते हैं,आसपास तमाम बाजार हो गये हैं।परियोजनाअों के आने के बाद से यह सब तो तेजी से बढ़ा है लेकिन हमारी मुसीबत उससे भी ज्यादा तेजी से बढ़ी है।यह मुसीबत पहले नहीं थी।
यह सही है कि गावों में हम लोग मोटा खाते थे, मोटा झोटा पहनते थे।खेती- किसानी पशुपालन,बागववानी ही गुजर बसर का जरिया था।इसी में पीढ़ी दर पीढ़ी हम लोग रमे रहते थे।खेत खलिहान से फुरसत मिलती तो नाते रिश्तेदारी में घूम-बाग आते।बहुत हुआ तो साल में इलाके में जो दो चार मेले लगते जैसे शक्तीनगर में ज्वालामुखी देवी का मेला,औड़ी मोड़के हनुमान जी का मेला या फिर कोहरौल या पचौर में शिवरात्री का मेला वहां घूम आते बस इसी के इर्द गिर्द हमारी दुनिया थी,उसी में हम रमे थे।सिंगरौली क्षेत्र के बाहर बड़े शहर तक बहुत ही कम लोग पहुंचपाते थे।परियोजनाअों के आने से नजारा ही बदल गया।अब परिवारों में जो कलह अौर टेंशन है वह अलग ही तरह की है।हम अभी तक विस्थापित तो नहीं हुए अपनी जमीनों,घरों से लेकिन अब हम बहुत परेशान हैं अपने ही घरों के लड़कों,भाई-भतीजों, नाती-पोतों से।यह समस्या सिर्फ कुछ घरों या एक दो गांव की नही है।आस पास के किसी गांव में चले जाइये यही सब सुनने को मिलेगा कि परियोजनाअों के आने से सबसे ज्यादा हमारी नौजवान पीढ़ी बिगड़ी है।यहां पर गांवों के लड़के इतने पढ़े लिखे तो हैं नहीं कि प्लांट में नौकरी पा जांय।नौकरी जब विस्तापितों के लिये ही नहीं है जिनकी जगह जमीन गई है तो हमारे लड़कों को भला क्या मिलेगी।इन्हें तो ठेका मजगूर के रूप में भी काम नहीं मिल पाता क्योंकी अधिकतर ठेकेदार बाहर से लेबर लाता है जो हर तरह से उसके दबाव में रहते हैं।
समस्या इतनी ही नहीं है,हम लोग खेतिहर किसान हैं हम लोगों की कारखनिया मजदूरों की तरह रोजाना आठ आठ,दस दस घंटे खटने कीआदत नहीं है,हमारे लड़के भी बिलासपुरिया मजदूरों की तरह हाड़ तोड़ मेहनत नहीं कर सकते इसीलिये ठेकेदारी में कुछ दिन काम कर खुद ही काम छोड़ कर चले आते हैं।इस तरब गांव के इन नौजवानों के पास घरों में बेरोजगार पड़े रहने के अलावा कोई चारा नहीं है।अब दिन भर ये लड़के गांव में इधर से उधर आवारागर्दी करते फिरते हैं या अगर कहीं चार छह इकट्ठे हो गये तो ताश पत्ती खेल कर दिन काटेंगे।अगर बात यहीं तक सीमित रह जाती तो भी गनीमत थी।असली समस्या तो इसके आगे है।अंधेरा होते ही इन्हीं लड़कों में से कुछ गांव के बाहर सड़क के किनारे किसी पुलिया पर या किसी सूनसान जगह पर मुुंह पर अंगौछा बांध कर खड़े हो जाते हैं और छोटी मोटी राहजनी की वारदात करते हैं।कभी कोई बड़ी वारदात होगी तब पकड़े ही जायेंगे तब घर खानदान की सारी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी।अब तो हर समय यही डर लगा रहता है कि पता नहीं कब बहकावे में पड़ कर घर के ही लड़के इस कुकर्म में शामिल हो जांय और परिवार के मुंह पर कालिख पोत दें।सबसे बड़ा सवाल है कि हम क्या करेें।लड़कों को जानवरों की तरह घर में बेड़ कर रख भी तो नहीं सकते।चौबीसो घंटे उनकी निगरानी भी तो नहीं की जा सकती।कितना टोकें,कितना रोकें उन्हें।
..........क्रमश:
bhonpooo.blogspot.in
नेताअों का चीरहरण शायद काफी देर तक अौर चलता अगर उन्हीं में से एक ने यह कह कर चर्चा पर विराम न लगाया होता कि भाई लोगों नेता पुराण पर हम सारी रात बतियाते रहें तो भी इसका कुछ अोर छोर न मिलेगा यह भी हरि कथा की तरह अनंत है।इस तमाम गलचौर से कुछ हासिल भी नहीं होने वाला है।मजे की बात यह भी है कि जिन नेताअों की यहां हम बैठकर बखिया उधेड़ रहे हैं अगर उनमें से कोई भी अभी आ जाय तो हम सब के सुर बदल जायेंगे अौर तुरंत ही नेता जी के आवभगत में लग जायेंगे।तो एेसी बक बक से क्या लाभ।बेहतर होगा कि हम उस पर सोच विचार करें जिस समस्या से आज तमाम गांव जूझ रहे हैं। अगर कोई हमें इस समस्या का कोई रास्ता बता दे तो हम पर बहुत उपकार होगा।उन्ही सज्जन ने बात को खोलते हुये कहा कि देखने में तो ऊपर ऊपर लगता है कि हम लोग पहले से ठीक ठाक हैं,पक्की सड़कों पर चलते हैं,बस,रेल से यात्रा करते हैं,आसपास तमाम बाजार हो गये हैं।परियोजनाअों के आने के बाद से यह सब तो तेजी से बढ़ा है लेकिन हमारी मुसीबत उससे भी ज्यादा तेजी से बढ़ी है।यह मुसीबत पहले नहीं थी।
यह सही है कि गावों में हम लोग मोटा खाते थे, मोटा झोटा पहनते थे।खेती- किसानी पशुपालन,बागववानी ही गुजर बसर का जरिया था।इसी में पीढ़ी दर पीढ़ी हम लोग रमे रहते थे।खेत खलिहान से फुरसत मिलती तो नाते रिश्तेदारी में घूम-बाग आते।बहुत हुआ तो साल में इलाके में जो दो चार मेले लगते जैसे शक्तीनगर में ज्वालामुखी देवी का मेला,औड़ी मोड़के हनुमान जी का मेला या फिर कोहरौल या पचौर में शिवरात्री का मेला वहां घूम आते बस इसी के इर्द गिर्द हमारी दुनिया थी,उसी में हम रमे थे।सिंगरौली क्षेत्र के बाहर बड़े शहर तक बहुत ही कम लोग पहुंचपाते थे।परियोजनाअों के आने से नजारा ही बदल गया।अब परिवारों में जो कलह अौर टेंशन है वह अलग ही तरह की है।हम अभी तक विस्थापित तो नहीं हुए अपनी जमीनों,घरों से लेकिन अब हम बहुत परेशान हैं अपने ही घरों के लड़कों,भाई-भतीजों, नाती-पोतों से।यह समस्या सिर्फ कुछ घरों या एक दो गांव की नही है।आस पास के किसी गांव में चले जाइये यही सब सुनने को मिलेगा कि परियोजनाअों के आने से सबसे ज्यादा हमारी नौजवान पीढ़ी बिगड़ी है।यहां पर गांवों के लड़के इतने पढ़े लिखे तो हैं नहीं कि प्लांट में नौकरी पा जांय।नौकरी जब विस्तापितों के लिये ही नहीं है जिनकी जगह जमीन गई है तो हमारे लड़कों को भला क्या मिलेगी।इन्हें तो ठेका मजगूर के रूप में भी काम नहीं मिल पाता क्योंकी अधिकतर ठेकेदार बाहर से लेबर लाता है जो हर तरह से उसके दबाव में रहते हैं।
समस्या इतनी ही नहीं है,हम लोग खेतिहर किसान हैं हम लोगों की कारखनिया मजदूरों की तरह रोजाना आठ आठ,दस दस घंटे खटने कीआदत नहीं है,हमारे लड़के भी बिलासपुरिया मजदूरों की तरह हाड़ तोड़ मेहनत नहीं कर सकते इसीलिये ठेकेदारी में कुछ दिन काम कर खुद ही काम छोड़ कर चले आते हैं।इस तरब गांव के इन नौजवानों के पास घरों में बेरोजगार पड़े रहने के अलावा कोई चारा नहीं है।अब दिन भर ये लड़के गांव में इधर से उधर आवारागर्दी करते फिरते हैं या अगर कहीं चार छह इकट्ठे हो गये तो ताश पत्ती खेल कर दिन काटेंगे।अगर बात यहीं तक सीमित रह जाती तो भी गनीमत थी।असली समस्या तो इसके आगे है।अंधेरा होते ही इन्हीं लड़कों में से कुछ गांव के बाहर सड़क के किनारे किसी पुलिया पर या किसी सूनसान जगह पर मुुंह पर अंगौछा बांध कर खड़े हो जाते हैं और छोटी मोटी राहजनी की वारदात करते हैं।कभी कोई बड़ी वारदात होगी तब पकड़े ही जायेंगे तब घर खानदान की सारी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी।अब तो हर समय यही डर लगा रहता है कि पता नहीं कब बहकावे में पड़ कर घर के ही लड़के इस कुकर्म में शामिल हो जांय और परिवार के मुंह पर कालिख पोत दें।सबसे बड़ा सवाल है कि हम क्या करेें।लड़कों को जानवरों की तरह घर में बेड़ कर रख भी तो नहीं सकते।चौबीसो घंटे उनकी निगरानी भी तो नहीं की जा सकती।कितना टोकें,कितना रोकें उन्हें।
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