Wednesday, May 6, 2020

फ़िल्म #तलवार की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...07)

फ़िल्म #Talvar की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...07)

कल रात (06/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान अभिनीत फिल्म #Talvar देखी जिसे निर्देशित किया है मेघना गुलज़ार ने। ये फ़िल्म 2008 में हुए आरुषि हत्या कांड डबल मर्डर केस पर आधारित है। फ़िल्म का निर्देशन,पटकथा, सभी किरदारों का अभिनय, गीत और संगीत सभी उम्दा हैं। 2015 में रिलीज़ हुई इस फिल्म को बेस्ट स्क्रीन प्ले के लिए नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड भी मिल चुका है साथ ही बेस्ट एडिटिंग के लिए फ़िल्म फेयर अवॉर्ड भी। हालाकि फ़िल्म ने अपनी लागत से ज़्यादा कमा लिया लेकिन अफसोस गहन मुद्दे पर बनी तलवार जैसी फिल्में बहुत अच्छी कमाई नहीं कर पाती। यद्यपि इसके कई कारण है जैसे फ़िल्म की डिस्ट्रीब्यूटरशिप, फ़िल्म एक साथ कितने मल्टीप्लेक्स में लगी, फ़िल्म की प्रोमोशनल स्ट्रैटजी क्या थी आदि आदि पर इन सबके साथ एक और अहम बात है कि हम बतौर दर्शक ऐसी फिल्मों को देखने के लिए खुद कितने सजग हैं, क्या हम चलताऊ मनोरंजन के आदी हो चुके हैं जहां जब तक शीला की जवानी के जलवे ना बिखरे या जब तक कोई मुन्नी बदनाम ना हो, इश्क़ का मंजन ना घिसा जाए तब तक पैसा वसूल वाली फीलिंग्स ही नहीं आती। बतौर दर्शक हमारे पास बहुत बड़ी ताकत है और हमें इस ताकत का इल्म होना चाहिए ताकि हम बेहतरीन सिनेमा देखने के अधिकारी बने। ये फ़िल्म कई पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करती है और हमें चीज़ों को नए एंगल से सोचने के लिए मजबूर करती है। तलवार में इस बात को भी बड़े करीने से उठाया गया है कि जब हम सिस्टम के आगे झुकते ही चले जाते हैं तो एक दिन ऐसा आता है कि रीढ़ की हड्डी ही गायब हो जाती है, यस सर यस सर करते करते सर जी के ग़लत होने पर भी मुंह से नो नहीं निकल पाता और जो सिस्टम की नहीं अपनी अंतरात्मा की सुनते हैं सिस्टम या तो उन्हें डाइजेस्ट नहीं कर पाता और आरोप पत्यारोप की राजनीति करके उसे सिस्टम से बाहर निकाल फेंकता है या फिर उसके आगे स्वयं नतमस्तक हो जाता है हालाकि पहली स्थिति की संभावना के आसार ज़्यादा है क्यूंकि सिस्टम में रहने वाले  ज़्यादातर लोगों की रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है। सबूतों को तोड़ने मरोड़ने, गवाहों के साथ किए जाने वाले खिलवाड़ की बानगी है ये फ़िल्म। 
फ़िल्म की कहानी तेरह वर्षीय आरुषि तलवार डबल मर्डर केस पर आधारित है जो 2008 में हुआ था। फ़िल्म में श्रुति के साथ साथ उसके घर में काम करने वाले अधेड़ उम्र के खेम्पाल का भी मर्डर हो जाता है। शक की सुइयां टंडन दंपत्ति पर जा रही थीं। पुलिस ने तो श्रुति के खेंपाल से अवैध संबंध बताकर इसे ऑनर किलिंग का मामला बता केस को क्लोज़ करना चाहा पर दबाव के चलते ये केस सीडीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर अश्विन कुमार (इरफ़ान खान) को हैंडल करने के लिए दिया जाता है। ये केस जब अश्विन कुमार को मिला तब तक कई सबूतों का आपस में घाल मेल हो चुका था लेकिन फ़िर भी अपने तज़ुर्बे के आधार पर अश्विन केस का रुख ही मोड़ देते हैं वो जुटाए गए सबूतों और शक की बिनाह पर किए गए नार्को टेस्ट से इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि टंडन दंपत्ति बेगुनाह हैं, मर्डर किसी और ने ही किया है। अश्विन को गुनहगार के घर से खेमपाल के खून के छीटों वाला तकिए का कवर भी बरामद होता है साथ ही एक नौकर गवाही देने के लिए भी तैयार हो जाता है कि तभी कहानी में ट्विस्ट आता है। जिस ऑफिसर के अंडर में अश्विन इस केस को हैंडल कर रहे थे उनका रिटायरमेंट हो जाता है और उनकी जगह आया नया अफसर पूरा का पूरा केस ही बदल देता है और अश्विन कुमार को इस केस से निकाल नई टीम बनाता है। नई टीम केस को अपने तरीके से हैंडल करती है पर इन सबका नतीजा ये होता है कि कोई फाइनल डिसीजन ना हो पाने के कारण चार्जशीट दाखिल नहीं हो पाती और केस मिस्ट्री बनकर रह जाता है। 
इरफ़ान ने हमेशा की तरह इस फिल्म में सीडीआई के ऑफिसर की भूमिका को भी लाजवाब ढंग से निभाया, केस में उनका डूबते जाना, कहीं सख्ती तो कहीं नर्मी से पेश आना, भिगोकर तर्क के साथ सामने वाले को बड़े प्यार से मारना, उनका हर एक एक्सप्रेशन और संवाद बेहद प्रभावशाली लगता है। रमेश टंडन और नूपुर टंडन के किरदार को नीरज काबी और कोकना सेन शर्मा ने भी बख़ूबी निभाया है। इस फ़िल्म का एक डायलॉग मुझे बहुत अच्छा लगा कि: सबूत और सजा जच्चा बच्चा की तरह होते हैं, जितनी मज़बूत जच्चा उतनी पक्की सज़ा। सबूत के साथ की गई छेड़खानी सज़ा को कमज़ोर कर देती है और कई बार तो गुनहगार बाहर और बेगुनाह सलाखों के पीछे होता है। लाजवाब फ़िल्म है, ना देखी हो तो वक़्त निकाल कर ज़रूर देखिएगा। ये फ़िल्म आपको डिज़्नी हॉट स्टार पर मिल जाएगी।

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