Friday, May 1, 2020

फ़िल्म #Maqbool की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...03)

फ़िल्म #Maqbool की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...03) 
आज (01/05/2020) मिशन #Sensiblecinema और यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत फ़िल्म #मकबूल दोबारा देखी। विशाल भाद्वाज द्वारा निर्देशित, 2003 में रिलीज़ हुई मकबूल "मैकबेथ" का ऐडपटेशन है। फ़िल्म में पंकज कपूर, इरफ़ान खान, ओम पुरी, नसरुद्दीन शाह और तब्बू जैसे दिग्गज कलाकारों ने काम किया है। वैसे तो अंडरवर्ल्ड पर भारतीय सिनेमा में कई फ़िल्में बनी हैं पर मकबूल की बात ही अलग है। शुरू के 10 मिनट तक फ़िल्म समझ में नहीं आती फिर धीरे धीरे एक एक लेयर खुलती जाती है और फ़िल्म की कहानी समझ में आने लगती है और कौतूहल बढ़ता जाता है। फ़िल्म की पटकथा, संवाद, अभिनय और संगीत सब कुछ लाजवाब है। ये फ़िल्म कहानी है अंडरवर्ल्ड के मकबूल (इरफ़ान खान) और उसकी प्रेयसी निम्मा (तब्बू) के अपराधबोध की। कहावत भी है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। हम जो बोते हैं वही काटते हैं। स्वार्थ या किसी मोह के वशीभूत होकर जब हम कोई ग़लत राह पर चल पड़ते हैं तो हमारा ज़मीर बार बार हमें ऐसा ना करने के लिए रोकता टोकता है, हमें सदा देता है पर हम उसे नजरअंदाज कर आगे निकल जाते हैं। पर वक़्त की मार बड़ी ज़ालिम होती है हुज़ूर, कोई रियायत नहीं मिलती, अपने किए का अपराधबोध हर वक़्त हमें सालता रहता है, साए की तरह हमारा पीछा करता रहता है, हमसे जोंक की तरह चिपक जाता है और ऐसा ही होता है मियां मकबूल और निम्मा के साथ भी। 
जहांगीर उर्फ बब्बा जी (पंकज कपूर) जो मुंबई के डॉन के नाम से जाना जाता वो किसी ज़माने में लालजी नाम के डॉन का दाहिना हाथ माना जाता था। लालजी के मारे जाने के बाद जहांगीर उनकी गद्दी पर बैठता है और अंडरवर्ल्ड के सारे काम यहां तक की नेताओं पर कमांड भी वही रखता है। मकबूल (इरफ़ान खान) बचपन से ही बब्बा जी के साथ रहा है उनका वफादार और चहेता होता है। बब्बा जी उम्र दराज होने के बावजूद आशिक़ मिज़ाज के होते हैं, उनकी बेटी की उम्र की लड़की (तब्बू) से निकाह किया और उसके इश्क़ की गिरफ्त में होते हैं पर तब्बू का दिल मकबूल पर आ जाता है और धीरे धीरे वो भी तब्बू को पसंद करने लगता है पर ये डर हर वक़्त उसे सताता है कि अगर बब्बा जी को उन दोनों के बारे में पता चल गया तो क्या होगा पर बेखौफ तब्बू बस किसी भी हाल में मकबूल की हो जाना चाहती है। वो मकबूल को उकसाती है कि वो बब्बा जी को मार दे या फिर उसे मार डाले और तब्बू के इश्क़ के वशीभूत हो मकबूल बब्बा जी को मार देता है और उनकी जगह ले लेता है। यहीं से मकबूल का पतन होना शुरू होता है, वो अपराधबोध की अग्नि में जलता रहता है, हर वक़्त डरा सहम, हर किसी को शक की निगाह से देखता है। यहां तक कि निम्मा के पेट में पलने वाले अपने बच्चे को भी बब्बा जी का बच्चा समझता है। इधर निम्मा को भी लगता है बब्बा जी के खून के धब्बे दीवार पर और छींटे उसके चेहरे पर अब तक हैं, वो अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है। मकबूल के सौ दुश्मन तैयार हो जाते हैं। फ़िल्म में मकबूल का किरदार खलनायक का है पर फिर भी मकबूल से नफ़रत नहीं होती, लगता है वो उसके सर पर मंडरा रहे मौत के साए से बस किसी तरह बाहर आ जाए। 
बब्बा जी के किरदार को पंकज कपूर ने ज़बरदस्त तरीके से निभाया है, उनके संवाद, उनकी आंखें और भाव भंगिमा लाजवाब हैं। इस फ़िल्म में उनके अभिनय की खूब सराहना हुई है। तब्बू और इरफ़ान की लुका छिपी वाली मोहब्बत देखते ही बनती है। पुलिस वाले पंडित जी (ओम पुरी) की भविष्यवाणी भी कौतूहल पैदा करती है कि भला अब आगे क्या होने वाला है। इरफ़ान का अभिनय दिल को छूता है। अंत में उनकी आखों से झलकता दर्द देखकर ऐसा लगता है मानो वो ऊपर वाले से अपने गुनाहों की माफी मांग रहा हो। जटिल से जटिल किरदार को बड़ी ही सहजता से निभा लेने गज़ब का हुनर था इरफ़ान में।

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