Sunday, May 17, 2020

फिल्म #Apnaasmaan की समीक्षा

फ़िल्म #Apnaasmaan की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...14) 

कल रात (16/05/2020) #Sensiblecinema  और यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान खान अभिनीत #Apnaasmaan फ़िल्म देखी। फ़िल्म का निर्देशन किया है कौशिक रॉय ने जो जाने माने फ़िल्म निर्देशक बिमल रॉय जिन्होंने दो बीघा ज़मीन, परिणिता, बंदिनी जैसी फिल्में बनाई उनके भतीजे हैं। ये फ़िल्म 2007 में रिलीज़ हुई थी। फ़िल्म का प्लॉट बड़ा ही मार्मिक और संवेदनशील है। फ़िल्म का प्लॉट ये है कि जो चीज़ें जैसी हैं जब हम उन्हें उसी रूप में जब स्वीकार नहीं कर पाते और किसी चमत्कार की उम्मीद लिए ऐसा रास्ता अख्तियार कर लेते हैं जो अप्राकृतिक है तो स्थितियां बेहतर होने के बजाए बत्तर होती चली जाती हैं। ये सच है कि डिफरेंटली एबल्ड बच्चों की परवरिश करना बेहद कठिन होता है और हर माता पिता ये चाहते हैं कि उनका बच्चा भी नॉर्मल बच्चों की तरह ज़िन्दगी जी सके, उनके साथ मिक्स अप हो सके और इसके लिए वो कोई भी क़ीमत अदा करने को तैयार रहते हैं। इसमें गलती सिर्फ उन मां बापों की ही नहीं है बल्कि उनसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हमारा समाज है जो ऐसे बच्चों के साथ एडजस्ट करके चलने के बजाय उनका मज़ाक उड़ाया करता है जिसकी वजह से उन बच्चों के साथ साथ उनके घर वालों के चेहरे से भी मुस्कान गायब हो जाती है। ये फ़िल्म हमें यह भी सोचने के लिए मजबूर करती है कि आखिर अपने बच्चे को औरों के बच्चों से बेहतर या जीनियस साबित करने के लिए हम किस हद तक जा सकते हैं, इस गला काट प्रतिस्पर्धा की होड़ में हम कहीं उनके भीतर छुपी प्रतिभा को नजरअंदाज कर उनके नन्हे कंधों पर अपने सपनों का बोझ तो नहीं लाद रहे? हमें दो घड़ी रुककर से सोचना होगा कि हम अपने बच्चों को एक बेहतर इंसान बनाना चाहते हैं या एक संवेदनहीन मशीन। हर फ़िल्म कहीं ना कहीं कहानीकार से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ी होती है और फिल्मकार उस कहानी के माध्यम से ख़ुद के या उससे जुड़े अनुभव को ही फ़िल्म के रूप में हम दर्शकों के साथ साझा कर रहा होता है। इस फ़िल्म की कहानी भी काफी हद तक इस फ़िल्म के निर्देशक कौशिक रॉय की अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी हुई है। 

फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि रवि कुमार (इरफ़ान खान) नाम का एक सेल्समैन होता है जो एक प्लास्टिक कंपनी में काम करता है उसका तेरह चौदह वर्षीय बेटा बुद्धिराज (ध्रुव पियूष पंजवानी) थोड़ा ऑटिस्टिक होता है यानि दूसरे बच्चों के मुकाबले थोड़ा स्लो लरनर होता है जिसकी वजह से उसकी बीवी पद्मिनी (शोबना) हमेशा उदास सी रहती है। बुद्धि जब छोटा था तो ऊपर की ओर उछालकर खिलाने के कारण वो रवि के हाथ से नीचे गिर गया था इसकी वजह से पद्मिनी को लगता है बुद्धि की ऐसी हालत का ज़िम्मेदार खुद रवि है जबकि कई डॉक्टर्स ने ये बताया था कि वो पैदाइशी ऑटिस्टिक है, पर कहते हैं ना एक बार दिल में कोई बात घर कर जाए तो उसे निकालना इतना आसान नहीं होता। रवि को लगता है बुद्धि की वजह से उसे पद्मिनी का प्यार नहीं मिल रहा। एक दिन रवि एक डॉक्टर सत्या के ब्रेन बूस्टर के बारे में सुनता है साथ ही समाचार चैनलों और पत्रों से उसे ये भी पता चलता है कि डॉक्टर सत्या (अनुपम खेर) एक फ्रॉड डॉक्टर है और पुलिस उसे ढूंढ़ रही है लेकिन फिर भी वो डॉक्टर सत्या के पास अपने बेटे के लिए ब्रेन बूस्टर लेने जाता है। वो डॉक्टर से कहता है उसके ब्रेन बूस्टर को इंसानों पर टेस्ट करने के लिए उसके पास एक ह्यूमन वॉलंटियर है पर एक पिता होने के नाते वो चिंता भरे स्वर में डॉक्टर से ये भी पूछता है कि उसका कोई साइड इफेक्ट तो नहीं होगा उसके बच्चे पर। डॉक्टर सत्या रवि कुमार से कहते हैं इस दुनियां में हर किसी को किसी से कुछ चाहिए मसलन तुम्हे अपनी पत्नी का प्यार वापस चाहिए, तुम्हारी पत्नी को उसका बेटा जीनियस चाहिए, बुद्धि को उसकी मां का साथ चाहिए और मुझे तुमसे अपने ब्रेन बूस्टर को टेस्ट करने के लिए एक हमें वॉलंटियर चाहिए। उस बूस्टर के लगाते ही पहले तो बुद्धि को फिट्स आते हैं पर फिर वो नॉर्मल बच्चों की तरह हो जाता है और कैलकुलेटर की तरह गणित के जटिल से जटल सवाल हल कर लेता है पर उस बूस्टर का साइड इफेक्ट ये होता है कि वो अपने माता पिता को ही नहीं पहचान पाता साथ ही उसके भीतर की सारी संवेदनाएं ही ख़तम हो जाती हैं। बुद्धि एक गुस्सैल और बिगड़ैल इंसान की तरह हरकतें करने लगता है, बड़ों से बेरुखी से पेश आता है ये सब देखकर उसके माता पिता को बहुत तकलीफ़ होती है और अपने पुराने बुद्धि को बहुत मिस करते हैं। वो डॉक्टर सत्या की तलाश में हैं ताकि उस ब्रेन बूस्टर का एंटीडोट वो बुद्धि को दे सकें और उन्हें उनका बुद्धि वापस मिल जाए। 
फिल्म का संगीत बहुत ही अच्छा है खासकर वो गीत "दाना मिले माटी से तो पेड़ बन जाए"। अनुपम खेर एक मंजे हुए कलाकार हैं, डॉक्टर सत्या के किरदार को बखूबी निभाया है, डॉक्टर सेन के किरदार को रजत कपूर ने भी बड़ी ही संजीदगी से निभाया। पद्मिनी के किरदार में शोबना का अभिनय भी प्रभावशाली है और इरफान के तो क्या कहने। वो हर किरदार के सांचे में ढल जाते हैं। इस फ़िल्म में उनकी स्माइल नोटिस करने लायक है और वो बेचैनी भी जब ब्रेन बूस्टर देते ही बुद्धि के हांथ पांव ठंडे पड़ने लगते हैं। पत्नि के प्रेम से महरूम होने के फ्रस्ट्रेशन को भी इरफ़ान ने अपने अभिनय के ज़रिए बख़ूबी दिखाया है। वो सही मायने में एक कलाकार थे, ऐसे कलाकार जिसका अभिनय सीधे दिल को छूता हो जो हमें अपना सा मालूम होता हो। एक दृश्य में वो अपने एक साथी सेल्समैन को एमबीए की परिभाषा बताते हैं: मेडियोकर बट एरोगेंट। उनका एक डायलॉग है कि आजकल की जेनरेशन को सब कुछ फास्ट फास्ट चाहिए बिल्कुल फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स की तरह जो इंस्टेंट बन जाए। नौकरी, छोकरी, तरक्की सब कुछ इंस्टेंट, ये डायलॉग बड़ा ही मौजू है। वो अपने उस साथी से पूछता है कि जिस लड़की से उसकी शादी होने वाली है क्या उसने उस लड़की के साथ कुंडली मिल वाली। अपने तज़ुर्बे से रवि कहता है भाई लड़का लड़की की कुंडली मिले ना मिले पर सास बहू की कुंडली मिलना बहुत ज़रूरी है वरना लड़का बेचारा चक्की की तरह दोनों के बीच पिस्ता रहता है। फ़िल्म की कहानी बहुत अच्छी है इस फिल्म को  सभी पैरेंट्स को देखना चाहिए। फ़िल्म यू पी पर उपलब्ध है।

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