Thursday, May 14, 2020

फ़िल्म #Hindimedium की समीक्षा

फ़िल्म #Hindimedium की समीक्षा (यादों में इरफ़ान सीरीज...12)

आज (14/05/2020) यादों में इरफ़ान सीरीज के तहत इरफ़ान खान अभिनीत #Hindimedium देखी। इरफ़ान खान की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक हिंदी मीडियम को भी माना जा सकता है। 2017 में रिलीज़ हुई साकेत चौधरी द्वारा निर्देशित हिंदी मीडियम ज़बरदस्त हिट रही। जिन्होंने ने भी इरफ़ान खान की हिंदी मीडियम और अंग्रेज़ी मीडियम दोनों फिल्में देखी होंगी उनको शायद मेरी ही तरह हिंदी मीडियम अंग्रेज़ी मीडियम के मुक़ाबले ज़्यादा सशक्त और प्रभावी लगी होगी। हिंदी मीडियम की स्टोरी लाइन, फ़िल्म का मैसेज, डायलॉग्स ज़्यादा बेहतरीन हैं और वो चांदनी चौक का राज बत्रा (इरफ़ान खान) दिल के किसी कोने में अपनी परमानेंट जगह बना लेता है। ये फ़िल्म दो बड़े संदेश देती है पहला हमारे यहां अंग्रेज़ी महज़ एक भाषा नहीं बल्कि एक क्लास है और उस क्लास के सो कॉल्ड हाइली सोफेस्टिकैटेड लोगों  के बीच अपनी जगह बनाने के लिए  अंग्रेजी सीखना अनिवार्य है वरना आप पीछे छूट जाएंगे। फ़िल्म का दूसरा संदेश ये है कि बड़े बड़े नामी गिरामी निजी स्कूलों द्वारा शिक्षा के अधिकार के कानून का खुले आम जिस ढंग से माखौल उड़ाया जा रहा है, गरीबों के बच्चों को मिलने वाली सीटों का किस तरह से सौदा किया जाता है, कितने ऑर्गनाइज्ड ढंग से ये सारा खेल चलता है इस बात को बड़े ही बेहतरीन ढंग से इस फ़िल्म में दिखाने की कोशिश की गई है। एक और संदेश बरबस अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है वो यह है कि  गरीबों का दिल दरिया होता है, वो पैसों से अमीर हो ना हों पर दिल से अमीर होते हैं, दूसरों का हक मारना, दिखावे और मतलब के लिए किसी से जुड़ना उन्हें नहीं आता, मेहनत उनकी सबसे बड़ी ताकत है, वो पर पीड़ा से द्रवित होते है, दूसरों का दुख भी उसे अपना दुःख मालूम पड़ता है और लाख दुखों, तकलीफों और अभावों में भी वो स्वार्थी नहीं बन पाते और ज़िन्दगी की तमाम उठापटक के बीच भी वो खुशी के चंद लम्हे अपने और अपनों के लिए ढूंढ़ ही लेते हैं। 
फ़िल्म की कहानी बड़ी ही साधारण सी है लेकिन उसका ट्रीटमेंट ज़बरदस्त है। फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि राज बत्रा ( इरफ़ान खान) का अपना कपड़ों का शोरूम है चांदनी चौक में और वो अच्छा खासा कमा लेता है। राज और मीता की एक बेटी है पिया जिसका एडमिशन मीता दिल्ली के सबसे बेहतरीन स्कूल में कराना चाहती है। आज कल अच्छे स्कूलों में बच्चों का दाखिला कितनी टेढ़ी खीर है ये हम सब अच्छी तरह से जानते हैं और बड़े बड़े शहरों में तो स्कूल में बच्चे के एडमिशन के लिए बच्चे के साथ साथ मां बाप को भी अच्छी खासी ट्रेंनिग दी जाती है ताकि वो इंटरव्यू के समय प्रिंसिपल को प्रभावित और कनविंस कर पाएं। देल्ही ग्रामर स्कूल जो दिल्ली का नंबर वन स्कूल है वो उन्हीं बच्चों को अपने यहां दाखिला देता है जो स्कूल के 2 से 3 किलोमीटर के दायरे में रहते हैं इसके लिए मीता की जिद्द पर राज को सबसे पहले चांदनी चौक का अपना पुश्तैनी घर छोड़कर वसंतकुंज की हाई फाई सोसायटी में शिफ्ट होना पड़ता है, बीवी के आग्रह पर मिट्ठू छोड़ बीवी को हनी बुलाना पड़ता है, अमीरों की तरह चोचले करने की प्रैक्टिस करनी पड़ती है, कंसल्टेंट से एटिकेट्स, ड्रेसिंग सेंस, अंग्रेज़ी बोलने की ट्रेनिंग लेनी पड़ती है पर इतने पापड़ बेलने के बाद भी पिया का एडमिशन उस स्कूल में नहीं हो पाता तो मीता का दिल टूट जाता है। मीता के चेहरे पर खुशी लाने के लिए राज हर संभव कोशिश करता है पर अंत में गरीबी के कोटे से बच्ची के एडमिशन के अलावा उसे कोई और रास्ता नहीं सूझता। फ़िल्म में एक बहुत ही बड़ा कटाक्ष है कि हमारे देश में पैसों के दम पर कुछ भी किया जा सकता है, कोई भी फर्जी दस्तावेज़ बनवाए जा सकते हैं और फर्जी दस्तावेज़ बनवाकर राज पिया का एडमिशन देल्ही ग्रामर स्कूल में कराने में सफल हो जाता है तभी अचानक उसे खबरिया चैनलों से पता चलता है कि शिक्षा के कानून में हो रही धांधली का पता लगाने के लिए गरीबी कोटा से आए आवेदनों की मौके पर जाकर जांच की जाएगी कि वो लोग वहां रहते भी हैं या नहीं। ये खबर सुनते ही मीता और राज को गरीबों की बस्ती भरत नगर में रातो रात शिफ्ट होना पड़ता है। गरीब बस्ती के लोगों की अपनी समस्याएं हैं  पानी, बिजली, राशन, घर से नौकरी के लिए धक्कों भरा सफ़र, काम में छोटी सी चूक होने पर पगार कटने की पीड़ा और ना जाने क्या क्या। इन सभी समस्याओं से मीता और राज को भी रोज़ दो चार होना पड़ता है, पर इसी दौरान दोनों को ये एहसास भी होता है कि ज़िंदादिली तो इन लोगों में है। 
फ़िल्म में एक सीन है वो भावुक कर देता है और उस सीन में दीपक डोबरियाल दिल जीत लेते हैं। सीन यूं है कि स्कूल में बच्चों का एडमिशन तो फ्री है पर एक्स्ट्रा कैरिक्युलर एक्टिविटीज के लिए 24 हज़ार रुपए जमा कराने होते हैं तो राज का दोस्त एक गाड़ी के नीचे जान बूझकर आ जाता है ताकि मामला रफ़ा दफा करने से जो पैसे मिले उससे राज पिया की वो फीस भर सके। फ़िल्म अंत तक बांधे रखती है। इरफ़ान का किरदार ज़बरदस्त है, लगता ही नहीं वो चांदनी चौक के नहीं है। मेथड एक्टिंग सीखनी हो तो कलाकार इरफ़ान के किरदारों से सीखें। दीपक और सबा क़मर (मीता) ने भी बहुत अच्छा काम किया है। ऐसी फिल्में मनोरंजन के साथ साथ दृष्टि निर्माण का भी काम करती हैं। साकेत चौधरी को ऐसी बेहतरीन फ़िल्म बनाने के लिए साधुवाद। फ़िल्म अमेजॉन प्राइम पर उपलब्ध है।

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