फ़िल्म #मसान की समीक्षा
आपमें से ज़्यादातर लोगों ने मसान फ़िल्म देखी होगी। मुझे ये फ़िल्म कैसी लगी और मैंने इस फ़िल्म से क्या सीखा उसे शब्दों में पिरोने की एक छोटी सी कोशिश कर रही हूं। ये कहना अतिश्योक्ति ना होगी कि मसान जैसी फिल्में कम ही बनती हैं। नीरज घ्यवान निर्देशित #मसान ने भारतीय सिनेमा को विक्की कौशल जैसा नायाब अभिनेता दिया। दरअसल हम सबके भीतर एक मसान हैं जहां कुछ ना कुछ सुलगता रहता है, कई आरज़ू राख़ हो जाती हैं पर फिर भी कहीं कोई आस की चिंगारी उस राख के भीतर दबी रह जाती है जो नया कुछ गढ़ती है।
यह फ़िल्म उत्तर प्रदेश के बनारस में फिल्माई गई है। फ़िल्म में दो कहानियां एक दूसरे के पैरलल चलती है: एक देवी (ऋचा चड्ढा) की कहानी तो दूसरी दीपक यानि विक्की कौशल की कहानी। फ़िल्म की शुरुआत होती है देवी की कहानी से। देवी एक कंप्यूटर सेंटर में काम करती है वहीं उसकी मुलाक़ात पीयूष से होती है जो एक कॉलेज स्टूडेंट है, दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं और एक होटल में मिलते हैं। होटल स्टाफ को शक होता है कि देवी और पीयूष शादी शुदा नहीं है इसलिए वो पुलिस को बुलाता है। इंस्पेक्टर मिश्रा (भगवान तिवारी) पीयूष और देवी को आपत्तिजनक स्थिति में देख पीयूष को मारता पीटता है और देवी का वीडियो बना लेता है। पीयूष घबराकर खुद को बाथरूम में बंद कर लेता है और हाथ कि नस काटकर आत्महत्या कर लेता है। इंस्पेक्टर मिश्रा देवी के पिता (संजय मिश्रा) को बुलाता है उनसे मामले को रफा दफा करने के लिए तीन लाख घूंस देने को कहता है। देवी के पिता एक रिटायर्ड संस्कृति के मास्टर थे और अब जीविकोपार्जन के लिए बनारस के घाट पर ही कर्म कांड करते हैं। इतना पैसा एक साथ देना उनके लिए बड़ा मुश्किल होता है। देवी को जैसे तैसे रेलवे में नौकरी मिल जाती है। पिता बार बार बेटी को ऐसा कदम उठाने के लिए कोसते हैं। देवी पीयूष को भुला नहीं पाती और एक आत्म ग्लानि से विचलित है कि उसकी जान उसकी वजह से गई।
दूसरी कहानी है डोम राजा (विनीत कुमार) के छोटे बेटे दीपक (विक्की कौशल) और शालू गुप्ता ( श्वेता त्रिपाठी) की। विक्की को शालू से प्रेम हो जाता है। विक्की विशुद्ध इंजीनिरिंग वाला बंदा है और शालू को संगीत और शेर आे शायरी का शौक है पर बड़ी ही सादगी से वो शालू के सामने ये स्वीकार करता है कि शेर आे शायरी उसकी समझ में नहीं आते पर उसे शालू के मुंह से सुनना अच्छा लगता है। शालू कई बार उससे पूछती है कि वो कहां रहता है पर वो कभी भी उसे सही सही नहीं बताता। उसको डर है कि अगर शालू को उसकी हकीकत का पता चला कि वो और उसका परिवार शमशान पर लाशें जलाने का काम करते हैं और वो डोम है जाति से तो कहीं शालू उसे छोड़ ना दे। पर बार बार पूछने पर एक दिन वो उसे घीझकर सच्चाई बता ही देता है। इधर शालू का पूरा परिवार एक बस करके बद्री विशाल की यात्रा पर निकलते हैं। शालू दीपक से फोन पर बात करती है और कहती है वो बस जल्दी से अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ ले बाकी वो संभाल लेगी। दीपक भी शमशान की इस नर्क भरी ज़िन्दगी से निकलना चाहता है। वो पढ़ाई तैयारी ज़ोर शोर से शुरू कर देता है। दीपक गहरी नींद में था कि उसका बड़ा भाई उसे जगाता है और जल्दी शमशान घाट पहुंचने को कहता है क्यूंकि घाट पर एक साथ अचानक बहुत सी लाशें आ जाती हैं जिन्हें जलाने के लिए जगह और लोग दोनों ही कम पड़ते हैं। दीपक नींद भरी आंखों से शमशान घाट पहुंचता है और जब एक लाश को जलाने की तैयारी कर ही रहा होता है कि अचानक उस कफ़न से उस लाश का हाथ बाहर निकल जाता है। उस हाथ को देखकर जब वो लाश का चेहरा खोलता है तो उसके होश उड़ जाते हैं। किसकी थी वो लाश जिसे जलाते हुए वो ख़ुद भीतर भीतर धधक रहा था। मरघट का वो दृश्य मन को विचलित के देता है।
गांव के लड़के को जब पहली बार इश्क़ होता है तो उसे कैसा लगता है, दोस्तों की चुहलबाज़ी से वो कैसे शर्माता है, दबे स्वर में वो अपनी प्रेमिका से कैसे अपने प्रेम का इज़हार करता है, पहली बार जब वो उसे स्पर्श करता है तो कैसा महसूस करता है हर हाव भाव को विक्की कौशल ने बड़ी कुशलता से निभाया है, श्वेता त्रिपाठी का किरदार भी प्रभावशाली है। उत्तरप्रदेश के बनारस की एक शरमाई सकुचाई इश्क़ की गिरफ्त में क़ैद प्रेमिका के किरदार के साथ श्वेता ने भी न्याय किया है। ऋचा का अभिनय अच्छा है पर उनके भीतर वो बनारस की लड़की नहीं दिखाई देती। डोम राजा के किरदार में विनीत कुमार ने जान डाल दी है, उनकी आंखें, उनके संवाद, उनके हाव भाव ज़बरदस्त हैं। विनीत कुमार जी ने बताया था कि डोम राजा के किरदार को निभाने से पहले वो बनारस के डोम लोगों के बीच 8-10 जाकर रहे थे ताकि उनके हाव भाव, उठने बैठने के तरीके को आत्मसात कर सकें और उनकी वो मेहनत इस फ़िल्म में रंग लाई। संजय मिश्रा भी एक उम्दा कलाकार हैं। एक बेबस बाप की बेबसी को बहुत अच्छे ढंग से निभाया है संजय मिश्रा ने। फ़िल्म का एक डायलॉग मुझे भीतर तक छू गया: संगम में लोग दो ही बार आते हैं एक बार किसी अपने के साथ और दूसरी बार अकेले। जी हां ये वही संगम है जहां एक बार एक आत्म का दूसरी आत्मा से संगम होता है तो दूसरी बार उस आत्मा का परमात्मा से संगम होता है। अंतहीन दुखों की दास्तां बयां करती अदभुत फ़िल्म है। नहीं देखी तो एक बार ज़रूर देखिए इस फिल्म को।
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