फ़िल्म #PaanSinghTomar की समीक्षा
मिशन #Sensiblecinema के तहत आज (26/04/2020) एक बार फिर इरफ़ान खान अभिनीत और तिग्मांशु धूलिया द्वारा निर्देशित पान सिंह तोमर फ़िल्म देखी। ये कहानी भारतीय सेना के जवान और नेशनल एथलीट रहे पान सिंह तोमर के परिस्थितियों और भ्रष्ट व्यवस्था के कारण बागी बनने त्रासदी पूर्ण कहानी है। एक ऐसा एथलीट जिसने दुनिया में देश का नाम रोशन किया और देश के लिए ईनाम जीतकर लाया हो उसे ही पकड़ने के लिए उसके सर पर ईनाम रखा जाए भला इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है। पान सिंह तोमर (इरफ़ान खान) कहता है कैसी विडंबना है जब देश के लिए दौड़े और जीते तब कोई नाम तक नहीं जानता था आज वही पान सिंह तोमर जब बागी हो गया तो सब जानने लगे। बागी कोई शौक़ से नहीं बनता, परिस्थितियां और मजबूरी इंसान को बागी बनने पर मजबूर करती हैं। पान सिंह तोमर को हथियार उठाने पर मजबूर किया हमारी भ्रष्ट व्यवस्था ने, उसने अपने चाचा के विरूद्ध हथियार तब उठाया जब पुलिस, प्रशासन किसी ने उसकी गुहार नहीं सुनी।
ये कहानी है उस सैनिक, नेशनल एथलीट और बागी पान सिंह तोमर की जो देश के लिए विषम से विषम परिस्थितियों, न्यूनतम सुविधाओं जैसी अनेकों बाधाओं को पार करते हुए सात बार बाधा दौड़ (स्टीपलचेस) विजेता बना लेकिन अफसोस ज़िन्दगी की दौड़ में हार गया। उसके चाचा ने उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया था उसने पुलिस, प्रशासन से कई बार अपनी ज़मीन पाने के लिए गुहार लगाई पर हर बार उसे निराशा ही हाथ लगी ऊपर से चाचा और उसके आदमी पान सिंह के बेटे पर भी हमला करते हैं, उसकी मां को भी मारते हैं तब मजबूरन पान सिंह को बागी बनना पड़ता है। पर एक बार जिसने हथियार उठा लिया हो उसकी सामान्य ज़िन्दगी में वापसी असंभव है। कहानी फ़्लैश बैक में चलती है एक पत्रकार पान सिंह तोमर का इंटरव्यू लेने आता है, पान सिंह भी इंटरव्यू के लिए इसलिए राज़ी हो जाता है ताकि उसके बागी बनने की दास्तां मीडिया के माध्यम से जन जन तक पहुंचे। जब पत्रकार महोदय पहला ही प्रश्न दागते हैं कि आप डाकू क्यूं और कैसे बने तो वो पान सिंह भड़क उठता है कहता है हम बागी हैं, डाकू तो पार्लियामेंट में होते हैं। फिर वो अपनी आर्मी की नौकरी से लेकर नेशनल एथलीट बनने तक के सफर के बारे में पत्रकार को एक एक कर हर घटना बताता है, साथ ही बागी बनने की वजह भी स्पष्ट करता है। वो मारना पसंद करता है पर सरेंडर नहीं करता। वो कहता है सरेंडर का मतलब अपने गुनाहों को क़ुबूल करना, मैंने कोई गुनाह नहीं किया कभी किसी निर्दोष को नहीं मारा। मैं क्यूं करूं सरेंडर, ये पुलिस प्रशासन करे सरेंडर जिन्होंने मुझे बागी बनाया।
फ़िल्म के कई संवाद बहुत ही ज़बरदस्त हैं जैसे एक सीन में जब पान सिंह के कोच उसे गाली देते हैं तो वो कहता है गुरु जी मां बहन की गाली मत देना, हमारे यहां गाली पर गोली चल जाती है और हमें हमारी मां से बहुत प्यार है। पान सिंह का एक और डायलॉग है: चंबल में दुश्मन खत्म हो जाते हैं पर दुश्मनी नहीं। पुलिस के जिन मुखबिरों को वो मारता है उनके बारे में वो पत्रकार से कहता है उन्होंने हमसे गद्दारी की, वो निहत्थे थे पर निर्दोष नहीं इसलिए उन्हें मारा। बागी होने के बावजूद भी वो संवेदनाशून्य नहीं है, उसकी गैंग का कोई बागी जब पुलिस के हाथो मारता तो वो उसके परिवावालों को भरण पोषण के लिए पैसे भेजता। वो सीन बड़ा ही मार्मिक है जहां पान सिंह अपने चाचा भैरव सिंह से बोलता है: दद्दा तुमने ऐसा क्यों किया, हमें हथियार उठाने पर मजबूर क्यूं किया, हम तो सीधे साधे खिलाड़ी थे, मेरी इस हालत के लिए ज़िम्मेदार कौन है? बुंदेलखंड से ना होने के बावजूद इरफ़ान ने बुन्देली बोलने का अच्छा प्रयास किया है। जब पत्रकार पान सिंह का इंटरव्यू ले रहा था उस वक़्त बैकग्राउंड में जो म्यूज़िक बजता है अगर आप बुंदेलखंड या बृज भाषा वाले क्षेत्र से तालुक रखते हैं तो आपको अपनी मातृभूमि की याद दिलाएगा। अंतिम सीन जिसमें पान सिंह तोमर को गोली लगती है और उसे अपने पुराने दिन याद आते हैं वो सीन दिल को बेचैन कर देता है। भिंड मुरैना की पृष्ठभूमि पर बनी, हमारी व्यवस्था पर सवाल उठाने वाली इस फ़िल्म में बेहतरीन अभिनय से पान सिंह तोमर के किरदार को जीवित करने के लिए इरफ़ान हमेशा याद किए जाएंगे।
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