बतकही-----
आप की जीत के मायने---3
आजादी के पहले और आजादी के समय के नेताओं के प्रति लोगों में सम्मान का भाव था,उनका त्याग और संघर्ष प्रेरित करता था।लेकिन आजादी के बाद राजनीति में आई गिरावट ने आमजन को राजनीति से विमुख किया।राजनीति में जाने का मकसद अब सेवा नहीं था,मकसद था ताकत बटोरना,दौलत इकट्ठी करना जिससे आनेवाली सात पुश्तें मौज कर सकें।बाद में बाहुबलियों,अपराधियों के राजनीति में सीधे प्रवेश पर नेता शब्द गाली बन गया।मान लिया गया कि राजनीति में जाना शरीफ लोगों के बस की बात नहीं है।मां-बाप घर से दूर जा कर पढ़ने वाले बच्चे को बार बार यही हिदायत देते थे कि सिर्फ पढ़ाई में मन लगाना राजनीति के चक्कर में कभी भूलकर भी मत पड़ना।
जिस तरह दिनोदिन चुनाव खर्चीले होते गये,मतदान केन्द्रों पर कब्जा,मत पेटियों की लूट आदि का चलन बढ़ता गया, लोगों के मन में यह धारणा पक्की होती गई कि साधारण आदमी अब चुनाव नहीं लड़ सकता है।बिहार-झारखण्ड के मेरे मित्रगण दिलीप भाई,अजय भाई वहां पर चुनाव के समय के बड़े रोचक किस्से सुनाया करते थे कि जिस प्रकार शादी ब्याह में लोग महीनों पहले से हलवाई,टेंट वाले , बैंड वाले को बयाना देकर बुक कर लेते हैं उसी तरह चुनाव के समय प्रत्याशी को बूथ कैप्चरिंग करवाने,जहां से हारने की आशंका हो वहां बूथ में गड़बड़ी करवाने के लिए विरोधी प्रत्याशी से पहले ही इन कामों में महारत रखने वाली पार्टियों को पेशगी की रकम देकर बुक करना पड़ता है।धीर धीरे कमोबेस पूरे देश की यही स्थिति हो गई।पचास- साठ के दशक के चुनाव तो अब किस्से-कहानियों जैसे लगते हैं।काफी पहले बैढ़न(सिंगरौली,म.प्र.) में स्व.लाल गजमोचन सिंह एडवोकेट जी पुराने समय के चुनाव का किस्सा सुनाया करते थे जब वे और पूर्व विधायक पंडित श्याम कार्तिक जी अलग अलग पार्टी से एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते थे और प्रचार करने गांवों में साथ साथ जाते थे,गांव में लोगों को इकट्ठा कर पहले एक फिर दूसरा अपनी बात रखता था।शाम को वापस आकर दोनो लोग तय करते थे कि कल किस ओर प्रचार में निकलना है।
समाज में जब राजनीति के प्रति इतनी गहरी उदासीनता और घृणा का भाव हो तब युवा वर्ग भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।आजादी के आन्दोलन,संघर्ष में तो युवकों ने खूब बढ़ चढ़कर भाग लिया था चाहे क्रान्तिकारियों की जमात में शामिल होकर या गांधी जी के सत्याग्रह में शामिल होकर।इसके बाद तो युवा वर्ग राजनीति से किनारा करता गया।जन संगठनों के सम्मेलनों , बैठकों में अक्सर यह जुमला सुनने को मिलता था कि आज का युवक कैरियरिस्ट हो गया है,समाज के दुख दर्द से उसका जैसे कोई लेना देना ही नहीं रह गया है।हां, बीच में सन् 1974 में भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आन्दोलन में युवकों ने बड़े पैमाने पर भाग लिया था जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण जी ने किया और उसे सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन का नाम दिया था।यह जनान्दोलन देखते ही देखते पूरे उत्तर भारत में फैल गया था।उसके बाद तो लम्बे समय तक इस प्रकार का आन्दोलन नहीं दिखा जिसमें इस तरह से जमकर युवकों ने भाग लिया हो।अस्सी के दशक में एनजीओ कल्चर की देश में आमद के साथ ही डीपोलिटकलाइजेशन बढ़ता गया।पहले तो फंडिंग एजेंसियां जमीनी स्तर पर चलने वाले आन्दोलनो के पास सहयोगियों केरूप में जाती थींऔर विभिन्न प्रकार से सहयोग करने की पेशकश करतीं थीं जैसे संघर्ष के डाक्यूमेंटेशन,कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविर,एक्सपोजर ट्रिप,कुछ के लिए फेलोशिप की व्यवस्था वगैरह वगैरह,पीछे इन्ही आन्दोलनों के कुछ साथी एनजीओ बनाकर काम करने लग जाते थे,तरह तरह के सुविधाजनक तर्क गढ़ लिये जाते थे-संघर्ष के साथ साथ रचना भी जरूरी है,रचना और संघर्ष साथ साथ चल सकते हैं या फिर हमारा काम तो चेतना फैलाना है,जागृत होने के बाद लोग खुद ही संघर्ष कर लेंगे।जैसे जैसे एनजीओ का विस्तार हुआ,फंडिंग एजेंसियों की पकड़ मजबूत होती गई।फिर तो ये एजेंसियां ही मुद्दे तय करने लगीं जिन पर उनसे फंड लेने वाले एनजीओ को काम करना था।लगभग हर दो तीन साल पर मुद्दे बदल जाते थे।अब आन्दोलन संघर्ष की जगह हर मर्ज का इलाज एनजीओ में देखा जाने लगा।जमीनी स्तर पर चलने वाले स्थानीय आन्दोलनों को धीरे धीरे एनजीओ कल्चर निगलता गया।समाजवादी चिंतक किशन पटनायक जी ने इस खतरे के प्रति शुरू में ही आगाह किया था।
इधर देश में नई आर्थिक नीति के साथ शुरू हुए उदारीकरण,भूमंडलीकरण के दौर ने स्थिति को बद से बदतर ही किया।राजनीति में आई गिरावट ने भ्रष्टाचार के लिए उर्वर जमीन उपलब्ध कराई।देश में चारो तरफ लूट खसोट का माहौल बढ़ा।युवकों में भी होड़ सी लगी देश के प्रतिष्ठित संस्थानों-आई आई टी, आई आई एम से पढ़ाई करके बड़े पैकेज पर विदेशों में नौकरी पाने की।मां-बाप की भी अधिकतर यही कोशिश रहती कि जायज-नाजायज किसी भी तरीके से उनके बच्चे मंहगे स्कूलों में दाखिला पा जायें ताकि पढ़ाई के बाद अच्छे पैकेज वाली नौकरियां पा सकें।मीडिया ने भी आक्रामक विज्ञापनों के जरिये बेलगाम उपभोग को हवा दी।देश में माल कल्चर के आगमन ने आग में घी का काम किया।मंहगे रेस्तरां में यार दोस्तों या परिवार के साथ खाना खाना,ब्रांडेड आइटम इस्तेमाल करना स्टेटस सिंबल बन गया।जिसे देखो वही इस मृगमरीचिका के पीछे दौड़ में शामिल होता चला गया।इतनी ख्वाहिशें वैध कमाई से तो पूरी होने से रहीं फिर तो अवैध कमाई का ही सहारा था।ऐसे में चपरासी से लेकर अफसर,संतरी से लेकर मंत्री तक ही नहीं बल्कि हर तरफ यहां तक की शिक्षा जैसे पवित्र समझे जाने वाले क्षेत्र में भी जो जिस स्तर का था उस स्तर पर भ्रष्टाचार के दलदल में खुशी खुशी धंसता गया।परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार नये नये कीर्तिमान बनाता गया।कभी कुछ सौ करोड़ रूपयों के हर्षद मेहता घोटाले की पूरे देश में गूंज थी।अब तो टूजी घोटाला,कोयला खदान आबंटन घोटाला आदि के सामने यह बहुत बौना दिखने लगा है।
.........क्रमश:
Bhonpooo.blogspot.in
No comments:
Post a Comment