हास्यव्यंग-----
है बजट बड़ा यह मस्त मस्त.......
मैं विगत कई दिनों से बजटानंद में गोते लगा रहा था,खुशी थी कि हृदय में समा ही नहीं रही थी,छाती छप्पन इंच से ज्यादा ही चौड़ी हो गई थी। जैसा कि हमेशा से होता आया है भगवान से मेरी यह खुशी देखी न गई तभी तो उन्होंने हंस जी को भेज दिया मेरी खुशियों पर तुषारापात करने के लिये।हुआ यों कि मैं बाहर लान में टहलते हुए स्मार्ट इंडिया के सपनों में खोया हुआ था कि तभी हेलो कामरेड के स्वर ने बरबस ही मेरा कालर पकड़ कर सपनों की दुनिया से मुझे घसीट बाहर किया,देखा तो सामने हंस जी चिरपरिचित जेएनयू छाप मुस्कान के साथ खड़े थे।
हंस जी तो वे मित्रों के बीच कहे जाते हैं अपनी नीर-क्षीर विवेक वाली तीव्र बुद्धि के कारण हालांकि वे ज्यादातर अपनी कुशाग्र बुद्धि का दुरूपयोग ही करते रहे हैं सामने वाले पर तर्कों की भीषण बमबारी कर उस पर अपना बौद्धिक आतंक जमाने में।इस काम में उनकी जेएनयू मार्का वेषभूषा- ढ़ीली ढ़ाली जींस पैंट पर खादी का लंबा कुर्ता,आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा भी काफी मदद करती है।उड़ती उड़ती खबर उनके बारे में यह भी है कि कभी हंस जी की दिली ख्वाहिश जेएनयू में पढ़ने की थी लेकिन एंट्रेंस न निकाल पाने के कारण वह हसरत दिल में ही रह गई लेकिन मन पर जेएनयू का रंग इतना गाढ़ा चढ़ा कि आप की चाल ढ़ाल सब उसी रंग में रंग गई।
बिना किसी भूमिका के हंस जी ने सीधा प्रश्न दागा, कामरेड बजट के बारे में क्या ख्याल है। सौभाग्य से आज मुझे सुनहरा मौका मिल ही गया था अपनी धाक जमाने का,हंस जी से अपनी बौद्धिकता का लोहा मनवाने का,तो फिर भला मैं क्यों चूकता।हर तरफ बजट की ही तो चर्चा हो रही है लगातार कई दिनों से।सारे टीवी चैनेल एक सुर में वाहवाही कर रहे हैं वजट की,अखबारों में सम्पादकीय और लेख लिखे जा रहे हैं इसकी शान में।मैने भी तुर्की ब तुर्की जवाब दिया, कामरेड क्या आपको इस बजट के सन्तुलित, विकासोन्मुखी, देश को आगे ले जाने वाला होने में कोइ सन्देह है।फिर उनको बोलने का कोई मौका दिये बगैर मैने कहना जारी रक्खा कि पहली बार सब को साथ लेकर सबका विकास कर अच्छे दिन लाने वाला बजट आया है।आप ही बताइये कोई क्षेत्र छूटा है जिस ओर ध्यान न दिया गया हो इस बजट में। रही बात मध्यम वर्ग की उसकी तो मानसिकता बन गई है हर समय रिरियाने की।दो तो भी तमाम नाक भौं सिकोड़ेगा,ना दो तो भी।वित्त मंत्री जी ने ठीक किया जो झिड़क दिया इसको कि अपनी देखभाल खुद करे।पूरी दुनिया जानती है कि कुछ पाने के लिये कुछ खोना भी पड़ता है इसलिये अगर थोड़ा सा सर्विस टैक्स बढ़ा दिया तो क्या गलत किया। जब अपना इंड़िया स्मार्ट बनेगा तो सारे के सारे देशवासी स्मार्ट हो जायेंगे,मुझे तो अभी से गुदगुदी हो रही है सोच सोच कर।
इतना कह कर मैने गर्व से विजेता वाली दृष्टि हंस जी पर डाली लेकिन वे अप्रभावित रहते हुए बोले कामरेड यह सब तो मैं भी पढ़-सुन चुका हूं,मैं तो यह जानना चाहता हूं कि आप क्या सोचते हैं इस बारे में। चलिये मान लिया कि जो कुछ कहा जा रहा है सच है तो क्या सचमुच देश खुशहाल होगा।बजट का चेहरा ही बता रहा है कि उद्योगपति लाबी हावी रही। सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश इसका जीता जागता प्रमाण है।अब पढ़े लिखे को फारसी क्या, सब जानते हैं कि सरकार से कुछ भी पाने के लिये कितना एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है,तमाम अच्छी योजनाएं दम तोड़ देती हैं।दूसरी ओर बजट दर बजट ताकतवर सम्पन्न लोगों का प्रकृतिक संसाधनों पर कब्जा किसी न किसी बहाने बढ़ता ही जा रहा है। यह वर्ग सीधी उंगली के साथ साथ टेढ़ी उंगली से भी घी निकालने में उस्ताद है, कभी कभार ही टूजी स्पेकट्रम घोटाला,कोयला खदान आबंटन घोटाला के रूप में इनकी काली करतूत जनता के सामने आ पाती है वरना तो पर्दा ही पड़ा ही रहता है।कोई भी सरकार हो इनका काम बेरोकटोक चलता रहता है,सारी महत्वपूर्ण,गोपनीय जानकारियां इनको मिलती रहती हैं,हाल ही में उजागर हुआ पेट्रोलियम मंत्रालय जासूसी कांड यही तो बताता है।इधर साल दर साल जल, जंगल, जमीन जैसे जीविका के बुनियादी संसाधनों से बेदखल होकर लोकविद्या के जानकारों का एक बड़ा तबका जबरन अकुशल श्रमिक बना दिया जाता है,जबकी वह अपने हुनर के बल पर समाज को उपयोगी सेवाएं दे रहा था।पूंजी तो श्रम से पैदा होती है पर अब तक एक के बाद एक सरकारें विदेशी निवेशकों के पीछे झोली फैलाकर दौड़ना ही परम धर्म मानती रही हैं। आज जरूरत लोकविद्या की प्रतिष्ठा और राष्ट्रीय संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण की है ताकि हांथों को काम मिले, समाज में खुशहाली हो,ना कि गरीबी,भुखमरी के रेगिस्तान के बीच सौ-पचास स्मार्ट सिटी खड़ी करने या एकाध बुलेट ट्रेन चला देने की।
इतना कह कर हंस जी तो चले गये पर मुझे स्मार्ट इंडिया के सपने से बाहर निकाल यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा कर गये थे
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