भाई जी, मैं कासे कहूं... ( भाग -1)
सपनों पर अपना कोई अख्तियार तो होता नहीं कि जैसा हम चाहें वैसा ही सपना आये।सपने तो ट्रेन के डेली पैसेन्जरों की तरह होते हैं जो बेरोकटोक धड़धड़ाते हुए स्लीपर कोच में घुस आतेहैं अौर धम्म से आपकी सीट पर बैठ जाते हैं।फिर, जनाब सपने भी कैसे कैसे बेसिर पैर के आते हैं।एेसी एेसी जगहों पर आप सपने में पहुंच जाते हैं,एेसे एेसे लोगों से मिलते हैं,एेसी एेसी घटनायें घटती हैं जिनके बारे में आपने कभी सोचा तक नहीं।देखिये,विज्ञान चाहे जितना तरक्की क्यों न कर गया हो पर सपनों के संसार के बारे में निश्चयपूर्वक वह भी कुछ नहीं कह पाता।सपने तो बस सपने ही हैं।
सीधे अपनी बात पर आता हूं,अब क्या कहूं कभी कभी तो सपने में अपने को एेसी असहज स्थिति में पाता हूं कि बिस्तर से उठकर किसी से कह भी नहीं सकता, यहां तक की अपनी पत्नी से भी नहीं।कई बार मुझे बहुत खुश मू़ड में बिस्तर से उठते देख पत्नी पूछ बैठती है-क्या बात है,बहुत खुश मूड में उठे हैं,कोई सुन्दर सपना देखा क्या,बताइये न सपने में एेसा क्या देखा।अब कैसे सच सच बता दूं कि मैं एक आइटम सांग पर कैटरीना के साथ डांस कर रहा था या आलिया भट्ट के साथ ट्रक चलाते हुए किसी हाइवे पर जा रहा था।अगर सच बता दूं तो पत्नी का पारा सातवें आसमान पर होगा यह कहते हुए कि सारे बाल सफेद होगये,मुंह में एक भी दांत सलामत नहीं हैं,ठीक से दिखाई सुनाई तक नहीं पड़ता फिर भी सपने देखते हैं हीरोइनों से इश्क लड़ाने के।पूजा पाठ में तो मन लगता नहीं,हनुमान चालीसा,रामायण कुछ तो कभी पढ़ते नहीं तो होगा क्या,मन में दिन भर जो बुरे विचार आयेंगे वही न रात को सपने बनकर दिखाई देंगे वगैरह वगैरह।इस मुसीबत से बचने के लिए मुझे हमेशा कुछ इस प्रकार वेजीटेरियन झूठ का सहारा लेना पड़ता है जैसेकि सपने में देख रहा था कि हम लोग किराये का माकान छोड़कर अपने खुद के फ्लैट में आगये हैं अौर तुम फिरोजी साड़ी में बहुत जंच रही हो।इस पर पत्नी खुश होकर कहती है तुम्हारे मुंह में घी शक्कर, भगवान करे जल्दी यह सपना सच हो।
विषयान्तर न हो जाय इसलिए सीधे असली बात पर आता हूं।आपने भी जरूर सुना होगा,मैं तो बचपन से सुनता आ रहा हूं कि भोर का सपना सच होता है।पर मेरी एेसी किस्मत कहां जो मैं भोर में सपने देखने की एेयाशी करूं।कारण सुबह जितनी जल्दी हैंड पम्प पर पहुंच जाअो उतनी जल्दी पानी के लिए नंबर आ जाता है,मुंह अंधेरे ही पास वाले नाले में निपटान करना ज्यादा सुरक्षित रहता है अादि आदि।पर कहावत है न कि जब खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।बस साहब ऊपर वाले की मेहरबानी ही कहिये कि पता नहीं कैसे आज भोर होने से पहले बिस्तर से उठ नहीं सका अौर भोर का सपना आ ही तो गया।सपना भी कोई एेसा वैसा नहीं कि पत्नी से भी न बता सकूं बल्कि पत्नी से सपने का जिक्र इस डर से नहीं किया कि अगर वह इतनी खुशी बर्दाश्त न कर पाई तो।चलिये आप को बताए दे रहा हूं कि आज सपने में देखा कि इस वर्ष के नोबल पुरस्कार के लिए नोबल पुरस्कार कमेटी ने मेरे नाम का चयन किया।जाहिर सी बात है कि मेरे नाम का चयन विज्ञान,समाजविज्ञान, साहित्य आदि के लिए तो किया न जायेगा क्योंकि विज्ञान का मेरा ज्ञान आक्सीजन अौर हाइड्रोजन के मेल से बने पानी के सूत्र तक तथा साहित्य का ज्ञान मात्र रसखान के कुछ सवैयों तथा तीनों दासों-कबीर दास,तुलसी दास,रहीम दास के कुछ दोहों तक सीमित है।अब ले देकर बचता है शांति का नोबल पुरस्कार इसी में गुंजाइश बनती है क्योंकी यह एेसा क्षेत्र है जिसमें पढ़ा,अनपढ़,बूढ़ा,जवान हर कोई दावा ठोंक सकता है।अब जिसपर चयन समिति की नजरे इनायत हो जाय वही शांति का पुजारी हो जायेगा,उसी की शान में कसीदे पढ़ जाने लगेंगे।एक बार घोषणा हुई नहीं की सारी दुनिया को उसमें गुंण ही गुंण दिखाई देने लगेगा।वह एक शब्द भी बोल दे तो भाई लोग उसकी हजार पेज की व्याख्या कर डालेंगे।यहां तक कि अगर किसी कारणवश वह न भी बोले तो भी उसके मां-बाप,पत्नी,मित्रों,पड़ोसियों आदि सेउसके बारे में पूछ पूछ कर अच्छा खासा साहित्य तैयार कर लिया जाता है।
सपनों पर अपना कोई अख्तियार तो होता नहीं कि जैसा हम चाहें वैसा ही सपना आये।सपने तो ट्रेन के डेली पैसेन्जरों की तरह होते हैं जो बेरोकटोक धड़धड़ाते हुए स्लीपर कोच में घुस आतेहैं अौर धम्म से आपकी सीट पर बैठ जाते हैं।फिर, जनाब सपने भी कैसे कैसे बेसिर पैर के आते हैं।एेसी एेसी जगहों पर आप सपने में पहुंच जाते हैं,एेसे एेसे लोगों से मिलते हैं,एेसी एेसी घटनायें घटती हैं जिनके बारे में आपने कभी सोचा तक नहीं।देखिये,विज्ञान चाहे जितना तरक्की क्यों न कर गया हो पर सपनों के संसार के बारे में निश्चयपूर्वक वह भी कुछ नहीं कह पाता।सपने तो बस सपने ही हैं।
सीधे अपनी बात पर आता हूं,अब क्या कहूं कभी कभी तो सपने में अपने को एेसी असहज स्थिति में पाता हूं कि बिस्तर से उठकर किसी से कह भी नहीं सकता, यहां तक की अपनी पत्नी से भी नहीं।कई बार मुझे बहुत खुश मू़ड में बिस्तर से उठते देख पत्नी पूछ बैठती है-क्या बात है,बहुत खुश मूड में उठे हैं,कोई सुन्दर सपना देखा क्या,बताइये न सपने में एेसा क्या देखा।अब कैसे सच सच बता दूं कि मैं एक आइटम सांग पर कैटरीना के साथ डांस कर रहा था या आलिया भट्ट के साथ ट्रक चलाते हुए किसी हाइवे पर जा रहा था।अगर सच बता दूं तो पत्नी का पारा सातवें आसमान पर होगा यह कहते हुए कि सारे बाल सफेद होगये,मुंह में एक भी दांत सलामत नहीं हैं,ठीक से दिखाई सुनाई तक नहीं पड़ता फिर भी सपने देखते हैं हीरोइनों से इश्क लड़ाने के।पूजा पाठ में तो मन लगता नहीं,हनुमान चालीसा,रामायण कुछ तो कभी पढ़ते नहीं तो होगा क्या,मन में दिन भर जो बुरे विचार आयेंगे वही न रात को सपने बनकर दिखाई देंगे वगैरह वगैरह।इस मुसीबत से बचने के लिए मुझे हमेशा कुछ इस प्रकार वेजीटेरियन झूठ का सहारा लेना पड़ता है जैसेकि सपने में देख रहा था कि हम लोग किराये का माकान छोड़कर अपने खुद के फ्लैट में आगये हैं अौर तुम फिरोजी साड़ी में बहुत जंच रही हो।इस पर पत्नी खुश होकर कहती है तुम्हारे मुंह में घी शक्कर, भगवान करे जल्दी यह सपना सच हो।
विषयान्तर न हो जाय इसलिए सीधे असली बात पर आता हूं।आपने भी जरूर सुना होगा,मैं तो बचपन से सुनता आ रहा हूं कि भोर का सपना सच होता है।पर मेरी एेसी किस्मत कहां जो मैं भोर में सपने देखने की एेयाशी करूं।कारण सुबह जितनी जल्दी हैंड पम्प पर पहुंच जाअो उतनी जल्दी पानी के लिए नंबर आ जाता है,मुंह अंधेरे ही पास वाले नाले में निपटान करना ज्यादा सुरक्षित रहता है अादि आदि।पर कहावत है न कि जब खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।बस साहब ऊपर वाले की मेहरबानी ही कहिये कि पता नहीं कैसे आज भोर होने से पहले बिस्तर से उठ नहीं सका अौर भोर का सपना आ ही तो गया।सपना भी कोई एेसा वैसा नहीं कि पत्नी से भी न बता सकूं बल्कि पत्नी से सपने का जिक्र इस डर से नहीं किया कि अगर वह इतनी खुशी बर्दाश्त न कर पाई तो।चलिये आप को बताए दे रहा हूं कि आज सपने में देखा कि इस वर्ष के नोबल पुरस्कार के लिए नोबल पुरस्कार कमेटी ने मेरे नाम का चयन किया।जाहिर सी बात है कि मेरे नाम का चयन विज्ञान,समाजविज्ञान, साहित्य आदि के लिए तो किया न जायेगा क्योंकि विज्ञान का मेरा ज्ञान आक्सीजन अौर हाइड्रोजन के मेल से बने पानी के सूत्र तक तथा साहित्य का ज्ञान मात्र रसखान के कुछ सवैयों तथा तीनों दासों-कबीर दास,तुलसी दास,रहीम दास के कुछ दोहों तक सीमित है।अब ले देकर बचता है शांति का नोबल पुरस्कार इसी में गुंजाइश बनती है क्योंकी यह एेसा क्षेत्र है जिसमें पढ़ा,अनपढ़,बूढ़ा,जवान हर कोई दावा ठोंक सकता है।अब जिसपर चयन समिति की नजरे इनायत हो जाय वही शांति का पुजारी हो जायेगा,उसी की शान में कसीदे पढ़ जाने लगेंगे।एक बार घोषणा हुई नहीं की सारी दुनिया को उसमें गुंण ही गुंण दिखाई देने लगेगा।वह एक शब्द भी बोल दे तो भाई लोग उसकी हजार पेज की व्याख्या कर डालेंगे।यहां तक कि अगर किसी कारणवश वह न भी बोले तो भी उसके मां-बाप,पत्नी,मित्रों,पड़ोसियों आदि सेउसके बारे में पूछ पूछ कर अच्छा खासा साहित्य तैयार कर लिया जाता है।
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