Saturday, October 25, 2014

भाई जी मैं कासे कहूं.....   (भाग-2)
अगर कोई तत्काल मुझसे पूछे कि शांति के क्षेत्र में मैने एेसा कौन सा उल्लेखनीय कार्य किया है तो मेरे पास कहने लायक एेसी कोई बड़ी उपलब्धी तो नहीं है सिवा इसके कि एक बार मुहल्ले में दो लड़ते हुए सांड़ों को अपनी जान जोॆखिम में डाल बड़ी मुश्किल से अलग कर उनके बीच शांति स्थापित की थी।इसके बाद अगर याद करूं तो कम से कम दो बार अौर अपने मुहल्ले की दो झगड़ालू महिलाअों मेंअपनी इज्जत का फलूदा बनवाकर भी बीचबचाव कर मुहल्ले में शांति स्थापित की।बचपन की ज्यादा याद तो मुझे है नहीं पर मां बताती हैं कि कभी कभार जब पिता जी बहुत गुस्से में मां से गाली गलौज करते तो मैं मां से लिपट कर जोर जोर से रोते हुए आसमान सिर पर उठा लेता था अौर मां पिटने से बच जाती थीं।इसी प्रकार के शांति स्थापना के मेरे बचपन के कुछ अौर किस्से हो सकता है मेरे मुहल्ले के लोग बता सकें।
  पर मेरी समस्या तो कुछ अौर ही है जिस वजह से मैं अपना भोर का सपना किसी से बताने में डर रहा हूं।अब एक वजह तो यही है कि यह भनक लगते ही कि नोबल पुरस्कार मिलने वाला है मेरे सारे नये पुराने उधारदाता अपना खाता बही बगल में दबाये बधाई देने के बहाने आ धमकेंगे।यह भी हो सकता है कि मेरे गोलोकवासी पिता जी को कर्ज देने वाले भी मुझे लायक बेटे का सम्मान दे्ने के लिए मय सूद अपना कर्ज वापस ले्ने आ जांय।पूज्य पिता जी ने हमेशा चार्वाक दर्शन-रिणम् कृत्वा घृतम् पिबेत-का सम्मा्न किया अौर भारत सरकार की तर्ज पर उधार पर उधार ले कर अपना जीवन तो नबाबी ठाठ से बिताया अौर जाते जाते बाकी परिवार को भगवान भरोसे सड़क पर खड़ा कर गये।
    डर की दूसरी वजह तो मेरे पड़ोसी ,मुहल्लेवाले ही हैं जिन्होंने वक्त बे वक्त कभी माचिस की दो तीली देकर,तो कभी एक दो चम्मच चीनी,कभी दो चार आलू प्याज,कभी थोड़ी सी चाय पत्ती देकर उस वक्त तो बेशक हमारी लाज बचाई पर बाद में पूरे मुहल्ले में अपनी इस उदारता का बारम्बार बखान कर हमारी पगड़ी उछाली।जैसे ही उन्हें पता लगेगा कि मुझे बड़ी पुरस्कार राशि मिलने वाली है,बस शुरू हो जायेगा अपनी बरसों पुरानी उदारता की याद दिला कर मुझसे सहयोग मांगने का सिलसिला।किसी के लड़के का इंजीनियरिंग में एडमीशन बिना मेरे सहयोग के रुक रहा होगा,तो किसी का अधूरा बना पड़ा माकान मेरे सहयोग की बाट जोह रहा होगा,वगैरह वगैरह।इसके बाद नंबर आता है रिश्ते-नातेदारों का।पूज्य पिता जी के साथ ही उनके नबाबी दौर के जाते ही जिन रिश्तेदारो ने तोते की तरह नजरें फेर ली थीं वे सब के सब नोबल पुरस्कार की खबर पाते ही प्रवासी पंछियों की तरह घर पर आना शुरू कर देंगे अौर बार बार पिता जी की नवाबी ठाठ,दरियादिली का बखान शुरू कर देंगे।यहां भी किसी की ब्याह योग्य लाड़ली के लिए सुयोग्य वर खोजने से लेकर उसकी शादी तक का सारा दायित्व मेरे ही कन्धों पर होगा क्योंकी अगर पूज्य पिता जी होते तो भला उनके बहनोई साहब को किस बात की चिन्ता होती।भगवान ने अगर मुझ पर इतनी कृपाकी है तो फूफा जी का मुझ पर इतना हक तो बनता  है।
      अगर इतने भर से छुटकारा मिल जाय तो भी बड़ी गनीमत समझिये दरअसल पिक्चर तो अभी बाकी ही है,यानी मुसीबत तो सिर्फ शुरू हुई है।जरा सोचिये चैनलों में जैसे ही मुझे नोबल पुरस्कार मिलने की खबर आयेगी चंदा मांगनेवालों,इण्टरव्यू लेने वालों का तांता घर पर लग जायेगा जिन्हें सादा चाय पिलाने में ही अपना तो जनाजा निकल जायेगा।इसके बाद भी इन्वेस्टमेंट कंपनियों के एजेन्ट,बीमा एजेन्ट भला कब छोड़ने वाले हैं ये तो गुड़ में चींटों की तरह चिपटते हैं।खुदा न खास्ता किसी तरह इनसे बच भी गया तो भी सिर पर एक तलवार तो लटकती ही रहेगी।माना कि अपहरण विशषज्ञ,चक्रवर्ती दस्यु सम्राट ददुआ स्वर्ग में सुख भोग रहा है लेकिन उसके योग्य उत्तराधिकारियों की कमी नहीं है जो भनक लगते ही फोन पर धमकी देंगे कि पुरस्कार पूरी राशि अमुक जगह चुपचाप अमुक व्यक्ति को दे दी जाय वरना.....।अब आप ही बताइये भाई जी कि यह नोबल पुरस्कार मेरे जीवन में हुदहुद चक्रवात बन कर आने वाला है या नहीं।मेरी तो नीली छतरी वाले से यही प्रार्थना है कि हे प्रभू कम से कम इस बार यह भोर का सपना सच न होने देना।

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