एक थी सिंगरौली-14
पर्यावरण सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर वर्षों से की जा रही लापरवाही का भयानक परिणाम भी सामने आया है।न केवल रिहंद जलाशय का जल प्रदूषित हुआ है बल्कि आस पास के तमाम गांवों का पानी भी जहरीला हो गया है।गांवों में कुअों के पानी में फ्लोराइड की काफी अधिक मात्रा पाई गई जिसके कारण हड्डियों के रोग से बच्चे,बूढ़े सभी पीड़ित हैं।इतना ही नहीं बल्कि पानी में मरकरी की घातक मात्रा पाई गई ।नब्बे के दशक में ही कराये गये अध्यन में यह तथ्य सामने आया था कि रिहंद के पानी में मरकरी की उपस्थिति सामान्य स्तर से काफी ज्यादा है।इसीलिये रिहंद जलाशय की मछलियों न खाने की सलाह भी दी गई थी।लेकिन हर तरह की चेतावनियों की अनदेखी ही की गई।अधिक से अधिक उत्पादन करने की धु्न में पर्यावरणीय अौर सामाजिक सरोकारों को हमेशा ताक पर रक्खा गया जिसका नतीजा सामने है।
सिंगरौली क्षेत्र(उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश)के गावों में प्रदूषित पानी के चलते होनेवाली विकलांगता के मुद्दे को मीड़िया,खासकर प्रिट मीड़िया तो वर्षों से बारबार उठाता आ रहा है,इलेक्ट्रानिक मीड़िया ने भी इस मुद्दे पर फोकस किया है।संसद में भी इस पर चर्चा हुई क्योंकी यह कोई छोटी मोटी फौरी समस्या नहीं है।दर्जनों गांवों में बच्चे बूढ़े विकलांगता के शिकार हुए हैें।स्थिति तो यहां तक पहुंच गई है की इन गांवों में दूसरे गांवों के लोग शादी संबंध करने से कतराते हैं।स्थानीय डाक्टरों का कहना है कि इसका इलाज दवा से नहीं हो सकता क्योंकी पानी ही प्रदूषित है।इन गांवों के लोगों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि वे अब अपना गांव,यह इलाका छोड़ कर कहां जांय।इनमें से तमाम गांव एक बार पहले ही रिहंद से उजड़ चुके हैं। किसी तरह से जिंदगी धीरे धीरे पटरी पर आ रही थी कि यह जानलेवा मुसीबत गले आ पड़ी जिससे छुटकारा पाने की फिलहाल तो कोई उम्मीद नजर नहीं आती।क्या विकास के पीछे लट्ठ लेकर पड़े हमारे योजनाकार कभी सिंगरौली का दर्द महसूस कर पायेंगे।सवाल फिर यह भी उठता है कि यह किसका विकास है अौर कौन इसकी कीमत चुका रहा है।विकास की चर्चा चलने पर लोग झट से यह कह देते हैं कि किसी न किसी को तो इसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी ही ।अरे भाई, हर बार विकास की कीमत लोक विद्याधरसमाज(किसान,कारीगर,आदिवासी,महिला,छोटा दूकानदार ) ही क्यों चुकाये।एेसा विकास थोपने से पहले क्या कभी कीमत चुकाने वालों की राय भी ली जाती है।
एक ही भोपाल गैस त्रासदी आंख खोल देने के लिये काफी है।सीधा सा सबक है कि अौद्योगिक विकास के जरिये समाज में खुशहाली लाने का रास्ता कितना जोखिम भरा है।एेसे देशों के लिये तो यह डगर अौर भी कठिन है जहां पर्यावरण कानू्न बहुत कमजोर हैं,उससे भी लचर उनका क्रियान्वयन है।इसके उलट विकसित देशों में न केवल पर्यावरण कानून कड़े हैं,वहां सुुरक्षा के मानक भी ऊंचे हैं,उन पर अमल भी सख्ती से होता है।इसके अलावा नागरिक भी अपेक्षाकृत सतर्क रहते हैं,प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों(डर्टी इंडस्ट्री) को अपने यहां लगने ही नहीं देते। यह भी अनजाने ही नहीं हो रहा है कि प्रदूषण फैलानेवाले उद्योग विकसित देशों से स्थानान्तरित होकर विकासशील देशों में आ रहे हैं,वहां की पुरानी ,बेकार पड़ी टेक्नालाजी आ रही है।नागरिकों के विरोध के चलते यूरोप में कोयला आधारित बिजलीघर लगाना संभव नहीं है लेकिन विकासशील देशों में धड़ाधड़ एेसे बिजलीघर लगाये जा रहे हैं।यही कारण था कि यूनियन कार्बाइड कारखाना भारत में लगा अौर भीषण लापरवाहियों के चलते इतना बड़ा हादसा हुआ।
सिंगरौली क्षेत्र की त्रासदी भी भोपाल गैस त्रासदी की तरह ही इस अौद्योगिक सभ्यता की देन है।दोनो ही सुरक्षा मानकों की अनदेखी अौर घोर लापरवाही के कारण हुईं, फर्क बस यही है कि भोपाल त्रासदी अचानक एक रात जहरीली गैस के रिसाव से हुई,आनन फानन में हजारों लोग मरे अौर उससे कई गुना ज्यादा विभिन्न रोगों से पीड़ित हुए।प्रदेश की राजधानी में इतना बड़ा हादसा होने के कारण तुरंत ही मीड़िया,स्वयंसेवी संस्थाओँ के सक्रिय होने से प्रशासन भी हरकत में आया ,जबकी सिंगरौली की त्रासदी धीरे धीरे वर्षों में घटित हुई साथ ही दूर दराज में स्थित होने के कारण काफी समय तक नेशनल मीड़िया की नजरों से लगभग अोझल ही रहा।इसी वजह से स्थानीय प्रशासन हमेशा कुंभकर्णी नींद में सोता रहा सिवाय बलियरी ब्लास्ट जैसी चंद बड़ी दुर्घटनाअों को छोड़ कर।सिंगरौली क्षेत्र में इससे बड़ी लापरवाही अौर क्या हो सकती है कि कई दशकों से चल रहे अनवरत अौद्योगीकरण के बावजूद कभी भी पूरे इलाके में घर घर जा कर स्वास्थ्य सर्वेक्षण नहीं करवाया गया जबकी सिंगरौली में व्यापक स्वास्थ्य सर्वेक्षण की मांग स्थानीय जनसंगठन लोकहित समिति सन् 1984 से ही करता रहा जिस पर अगर ध्यान दिया जाता तो समय रहते तमाम लोगों को विकलांगता तथा दूसरे घातक रोगों से बचाया जा सकता था। इसी प्रकार अगर सुरक्षा मानकों का कड़ाई से पालन कराया जाता तो रिहंद के पानी को जहरीला होने से बचाया जा सकता था।
-अजय
bhonpooo.blogspot.in
पर्यावरण सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर वर्षों से की जा रही लापरवाही का भयानक परिणाम भी सामने आया है।न केवल रिहंद जलाशय का जल प्रदूषित हुआ है बल्कि आस पास के तमाम गांवों का पानी भी जहरीला हो गया है।गांवों में कुअों के पानी में फ्लोराइड की काफी अधिक मात्रा पाई गई जिसके कारण हड्डियों के रोग से बच्चे,बूढ़े सभी पीड़ित हैं।इतना ही नहीं बल्कि पानी में मरकरी की घातक मात्रा पाई गई ।नब्बे के दशक में ही कराये गये अध्यन में यह तथ्य सामने आया था कि रिहंद के पानी में मरकरी की उपस्थिति सामान्य स्तर से काफी ज्यादा है।इसीलिये रिहंद जलाशय की मछलियों न खाने की सलाह भी दी गई थी।लेकिन हर तरह की चेतावनियों की अनदेखी ही की गई।अधिक से अधिक उत्पादन करने की धु्न में पर्यावरणीय अौर सामाजिक सरोकारों को हमेशा ताक पर रक्खा गया जिसका नतीजा सामने है।
सिंगरौली क्षेत्र(उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश)के गावों में प्रदूषित पानी के चलते होनेवाली विकलांगता के मुद्दे को मीड़िया,खासकर प्रिट मीड़िया तो वर्षों से बारबार उठाता आ रहा है,इलेक्ट्रानिक मीड़िया ने भी इस मुद्दे पर फोकस किया है।संसद में भी इस पर चर्चा हुई क्योंकी यह कोई छोटी मोटी फौरी समस्या नहीं है।दर्जनों गांवों में बच्चे बूढ़े विकलांगता के शिकार हुए हैें।स्थिति तो यहां तक पहुंच गई है की इन गांवों में दूसरे गांवों के लोग शादी संबंध करने से कतराते हैं।स्थानीय डाक्टरों का कहना है कि इसका इलाज दवा से नहीं हो सकता क्योंकी पानी ही प्रदूषित है।इन गांवों के लोगों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि वे अब अपना गांव,यह इलाका छोड़ कर कहां जांय।इनमें से तमाम गांव एक बार पहले ही रिहंद से उजड़ चुके हैं। किसी तरह से जिंदगी धीरे धीरे पटरी पर आ रही थी कि यह जानलेवा मुसीबत गले आ पड़ी जिससे छुटकारा पाने की फिलहाल तो कोई उम्मीद नजर नहीं आती।क्या विकास के पीछे लट्ठ लेकर पड़े हमारे योजनाकार कभी सिंगरौली का दर्द महसूस कर पायेंगे।सवाल फिर यह भी उठता है कि यह किसका विकास है अौर कौन इसकी कीमत चुका रहा है।विकास की चर्चा चलने पर लोग झट से यह कह देते हैं कि किसी न किसी को तो इसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी ही ।अरे भाई, हर बार विकास की कीमत लोक विद्याधरसमाज(किसान,कारीगर,आदिवासी,महिला,छोटा दूकानदार ) ही क्यों चुकाये।एेसा विकास थोपने से पहले क्या कभी कीमत चुकाने वालों की राय भी ली जाती है।
एक ही भोपाल गैस त्रासदी आंख खोल देने के लिये काफी है।सीधा सा सबक है कि अौद्योगिक विकास के जरिये समाज में खुशहाली लाने का रास्ता कितना जोखिम भरा है।एेसे देशों के लिये तो यह डगर अौर भी कठिन है जहां पर्यावरण कानू्न बहुत कमजोर हैं,उससे भी लचर उनका क्रियान्वयन है।इसके उलट विकसित देशों में न केवल पर्यावरण कानून कड़े हैं,वहां सुुरक्षा के मानक भी ऊंचे हैं,उन पर अमल भी सख्ती से होता है।इसके अलावा नागरिक भी अपेक्षाकृत सतर्क रहते हैं,प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों(डर्टी इंडस्ट्री) को अपने यहां लगने ही नहीं देते। यह भी अनजाने ही नहीं हो रहा है कि प्रदूषण फैलानेवाले उद्योग विकसित देशों से स्थानान्तरित होकर विकासशील देशों में आ रहे हैं,वहां की पुरानी ,बेकार पड़ी टेक्नालाजी आ रही है।नागरिकों के विरोध के चलते यूरोप में कोयला आधारित बिजलीघर लगाना संभव नहीं है लेकिन विकासशील देशों में धड़ाधड़ एेसे बिजलीघर लगाये जा रहे हैं।यही कारण था कि यूनियन कार्बाइड कारखाना भारत में लगा अौर भीषण लापरवाहियों के चलते इतना बड़ा हादसा हुआ।
सिंगरौली क्षेत्र की त्रासदी भी भोपाल गैस त्रासदी की तरह ही इस अौद्योगिक सभ्यता की देन है।दोनो ही सुरक्षा मानकों की अनदेखी अौर घोर लापरवाही के कारण हुईं, फर्क बस यही है कि भोपाल त्रासदी अचानक एक रात जहरीली गैस के रिसाव से हुई,आनन फानन में हजारों लोग मरे अौर उससे कई गुना ज्यादा विभिन्न रोगों से पीड़ित हुए।प्रदेश की राजधानी में इतना बड़ा हादसा होने के कारण तुरंत ही मीड़िया,स्वयंसेवी संस्थाओँ के सक्रिय होने से प्रशासन भी हरकत में आया ,जबकी सिंगरौली की त्रासदी धीरे धीरे वर्षों में घटित हुई साथ ही दूर दराज में स्थित होने के कारण काफी समय तक नेशनल मीड़िया की नजरों से लगभग अोझल ही रहा।इसी वजह से स्थानीय प्रशासन हमेशा कुंभकर्णी नींद में सोता रहा सिवाय बलियरी ब्लास्ट जैसी चंद बड़ी दुर्घटनाअों को छोड़ कर।सिंगरौली क्षेत्र में इससे बड़ी लापरवाही अौर क्या हो सकती है कि कई दशकों से चल रहे अनवरत अौद्योगीकरण के बावजूद कभी भी पूरे इलाके में घर घर जा कर स्वास्थ्य सर्वेक्षण नहीं करवाया गया जबकी सिंगरौली में व्यापक स्वास्थ्य सर्वेक्षण की मांग स्थानीय जनसंगठन लोकहित समिति सन् 1984 से ही करता रहा जिस पर अगर ध्यान दिया जाता तो समय रहते तमाम लोगों को विकलांगता तथा दूसरे घातक रोगों से बचाया जा सकता था। इसी प्रकार अगर सुरक्षा मानकों का कड़ाई से पालन कराया जाता तो रिहंद के पानी को जहरीला होने से बचाया जा सकता था।
-अजय
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