Monday, February 16, 2015

एक थी सिंगरौली----20
सिंगरौलिया गांव में हुई चर्चा ने परियोजनाअों के नजदीक के गांवों के युवाअों पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभावों पर रोशनी डाली।परियोजनाअों की चमक दमक ने इन युवाअों के अंदर लालसाअों का तूफान तो पैदा कर दिया लेकिन इनकी पूर्ति कैसे हो इसका रास्ता न दिखने पर वे कुंठित अौर गुमराह हो रहे थे।पर स्थिति वहां भी अच्छी नहीं थी जिनको इन ऊर्जा परियोजनाअों से विस्थापित होने पर परियोजना में नौकरी मिल गई थी।हालांकि नौकरी भी बहुत कम विस्थापितों को ही मिल सकी थी,अधिकांश तो बार बार इंटरव्यू दे दे कर थक गये क्योंकी इंटरव्यू देने के लिये भी काफी भाग दौड़ अौर पैसा खर्च कर के कई तरह के कागज बनवाने पड़ते थे।एेसे भी तमाम लोग थे जो इंटरव्यू देने के बाद काल लेटर का इंतजार करते करते अोवर एज हो गये थे।फिर भी जिनको नौकरी मिली प्लांट में उनकी किस्मत से उस समय तो बाकी लोग ईर्ष्या करते थे,खासकर उन्ही के परिवार के वे लोग जिन्हे नौकरी नहीं मिल पाई थी क्योंकी परिवार से एक व्यक्ति को ही नौकरी देने का नियम बनाया गया था।इस नियम के चलते विस्थापित परिवारों में बहुत सिर फुटौव्वल हुई जिसकी अलग ही लंबी दास्तान है।
                             कई साल हो गये चिल्काडांड के सामाजिक कार्यकर्ता कमलेश गुप्ता ने एक बार बातचीत के दौरान बताया था कि यह मत समझिये कि जिन विस्थापित लोगों को प्लांट में नौकरी मिल गई वे बड़े मजे में हैं।शुरू में तो सब कुछ अच्छा था,जिसकी नौकरी लगी उसके तो मानो भाग्य खुल गये थे।समस्याएं तो अब सामने आ रही हैं, जैसे जैसे उनके रिटायरमेंट का समय नजदीक आता जा रहा है।बड़े होते बच्चे उनके सामने सवालिया निशान बन कर खड़े हो रहे हैं।विस्थापितों को नौकरी उनकी पढ़ाई लिखाई के आधार पर नहीं बल्कि परियोजना में उनकी जमीन लिये जाने के कारण मिली है।ज्यादातर विस्थापितों को प्लांट में अटेंडेंट का ही काम मिला है।चलिये नौकरी से घर में चार पैसे तो आने लगे,देखा देखी ताम झाम भी बढ़ा लेकिन घर का माहौल नहीं बदल पाया,अौर बदलता भी कैसे जब किसी किसी परिवार में मां बाप दोनो ही नहीं पढ़े लिखे या फिर नाम मात्र को पढ़े हैं।इसका सीधा असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है।बच्चा स्कूल में पढ़ता है या मटरगस्ती करता है या स्कूल ही न जाकर इधर उधर आवारागर्दी करता है गलत सोहबत में पड़कर,इसकी फिकर ज्यादातर इन मां बाप को नहीं रहती।परिणाम भी सामने है,कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाय तो अधिकांश ये लड़के लड़कियां दसवीं ,बारहवीं या फिर किसी तरह से ग्रेजुएशन की डिग्री लेकर बेरोजगार घूम रहे हैं।अभी तो ठीक है कि बाप कमा रहे हैं,बेटे उड़ा रहे हैं,मोटरसाइकिल पर मुफ्त के पेट्रोल से तफरी कर रहे हैं,शापिंग सेंटर अौर कालोनियों के चक्कर काट रहे हैं,लेकिन कब तक।कल के इनकी शादी होगी ,बाल बच्चे होंगे अौर तब तक इनके बाप रिटायर्ड हो चुके होंगे  फिर तो शुरू होगी रोज रोज की गृह कलह।एेसा इक्का दुक्का दिखने भी लगा है।
                         लगभग दो वर्ष पहले विंध्यनगर में सृजन लोकहित समिति के कार्यालय में युवाअों की एक कार्यशाला में चिल्काडांड के ही सामाजिक कार्यकर्ता रामसुभग शुक्ला ने विस्थापित परिवारों के युवकों की मौजूदा त्रासद स्थिति का अपने अलग अंदाज में बयान किया।उन्होंने कहा कि चलिये हमने तो जैसे तैसे काट लिया,चाहे रो कर कहिये या हंस कर,लेकिन इस नई पीढ़ी के सामने बड़ी विकट स्थिति अा गई है।हमारे माता-पिता मुख्य रूप से खेती किसानी ही जानते थे,हम भी उसी में लगे लपटे रहते थे, बाद में अौर दूसरा हुनर भी सीखा।आज की नौजवान पीढ़ी कई मायने में हमसे अलग है।इसने अपने बाबा-आजी, नाना-नानी से गुजरे जमाने के बारे में सिर्फ किस्से कहानियां ही सुनीं,देखा तो अलग ही दुनिया को।इसके सामने दो तरह की दुनिया है,एक तो वह जहां वह रहता है-चिल्काडांड,नवजीवन विहार जैसी उपेक्षित,अभावग्रस्त,समस्याअों से घिरी विस्थापितों की बस्तियां,दूसरी दुनिया है परियोजना की कालोनियों की जहां हर तरह की सुविधायें मौजूद हैं।
.......क्रमश:
bhonpooo.blogspot.in

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