आज बहुत दिनों बाद भावना की मीडिया क्लास में आपसे चर्चा कर रही हूँ। थोड़ी व्यस्त थी , व्यस्तता के कारण क्रमबद्धता टूटी उसके लिए माफ़ी चाहूंगी। आज हम मीडिया क्लास में चर्चा करेंगे मीडिया का बच्चों की सृजनात्मकता पर होने वाले असर के बारे में तो शुरू की जाए मीडिया क्लास …
मीडिया के मकड़ जाल में बच्चों की सृजनात्मकता
लुंगी डांस, गन्दी बात, बेबी डॉल मैं सोने दी, चीटियाँ कलाइयां वे … ये मेरी सवा दो साल की बेटी के पसंदीदा गाने हैं। वो बिना टीवी ऑन किये खाना नहीं खाती और जब तक टैब पर अपनी पसंद का वीडियो न देख ले तब तक सोती नहीं और तो और अब तो वो सुने हुए डायलॉग भी रिपीट करने की कोशिश करती है, चॉक्लेट का ऐड देखकर उसकी डिमांड करती है, मैगी मांगती है। मेरे टच स्क्रीन फ़ोन पर वीडियो खुद देख लेती है, यहां तक की मेरे फेसबुक प्रोफाइल की फोटो तक टच कर-करके बदल डालती है। ये है मीडिया का असर बच्चों पर। बहुत से लोग बड़े खुश होते हैं की उनका छोटा सा बच्चा स्मार्टली फ़ोन और लैपटॉप चलता है, ऐसा बताते हुए उन्हें फक्र होता है। पर हम ये भूल जाते हैं की वो जो देख रहा है या सुन रहा है उसका उस पर असर भी होता है।
आजकल बच्चों का ज़्यादा वक़्त टीवी देखते, वीडियो गेम्स और प्लेस्टेशन पर खेलते, सोशल साइट्स, व्हाट्अप, हाईक जैसे सोशल एप्प पर दोस्तों से बातें करते बीतता है। बच्चों में किताबें पढ़ने की आदत छूटती जा रही है। किताबों से दूरी और मीडिया से दोस्ती का असर बच्चों की सृजनात्मकता पर दिखाई पड़ने लगा है। उनकी कल्पनाशीलता कुंद होती जा रही है। उनसे कुछ लिखने या अभिव्यक्त करने को कहो तो वो अपनी बात बड़ी मुश्किल से रख पाते हैं , बार बार अटकते हैं। सवालों के जवाब आते हुए भी वो उन्हें ढंग से लिख नहीं पाते नतीजा खराब रिजल्ट। यही वजह है की अब कई स्कूलों में बच्चों को प्रतियोगिताओं के पुरस्कार के रूप में किताबें दी जाने लगी हैं ताकि बच्चे किताबें पढ़ने पर ध्यान दें।
आजकल बच्चों का ज़्यादा वक़्त टीवी देखते, वीडियो गेम्स और प्लेस्टेशन पर खेलते, सोशल साइट्स, व्हाट्अप, हाईक जैसे सोशल एप्प पर दोस्तों से बातें करते बीतता है। बच्चों में किताबें पढ़ने की आदत छूटती जा रही है। किताबों से दूरी और मीडिया से दोस्ती का असर बच्चों की सृजनात्मकता पर दिखाई पड़ने लगा है। उनकी कल्पनाशीलता कुंद होती जा रही है। उनसे कुछ लिखने या अभिव्यक्त करने को कहो तो वो अपनी बात बड़ी मुश्किल से रख पाते हैं , बार बार अटकते हैं। सवालों के जवाब आते हुए भी वो उन्हें ढंग से लिख नहीं पाते नतीजा खराब रिजल्ट। यही वजह है की अब कई स्कूलों में बच्चों को प्रतियोगिताओं के पुरस्कार के रूप में किताबें दी जाने लगी हैं ताकि बच्चे किताबें पढ़ने पर ध्यान दें।
हमारी भी ये जवाबदारी बनती है की हम अपने बच्चों को अपना ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त देने की कोशिश करें। स्कूली पढ़ाई के अलावा उनसे देश दुनिया में घट रही घटनाओ के बारे में चर्चा करें। उनके नज़रिये को सही दिशा दें। उन्हें खुद को अभिव्यक्त करने का अधिक से अधिक मौका दें। उनकी राय को तवज्जो दें। अपने मोहल्ले और सोसाइटी में बच्चों के लिए स्टोरी टेलिंग, एक्सटेम्पोर स्पीच (आशु भाषण ), कविता जैसी प्रतियोगिता रखें और इनाम में बच्चों को किताबें दें। कम्युनिटी लाइब्रेरी बनाएं और बच्चों को वहाँ जाने के लिए प्रेरित करें। अगर आपके बच्चे के किसी दोस्त का जन्मदिन हो तो उसको भी किताब भेंट करें। खाली वक्त में फेसबुक और व्हाट्अप पर टाइम पास करने के बजाये वो टाइम अपने बच्चों को दें। उनके साथ कुछ क्रिएटिव करें। खाली वक़्त में बच्चे क्या कर रहे हैं, टीवी और इंटरनेट क्या देख रहे हैं, फोन पर किससे क्या बातें कर रहे हैं उस पर निगरानी रखें। अगर वो गलत दिशा में जा रहे हों तो उन्हें फटकारने के बजाय उनको सही गलत का फ़र्क़ बताएं, उसके परिणाम से उनको वाक़िफ़ कराएं ताकि मीडिया का नकारात्मक प्रभाव आपके बच्चों पर न पड़े। इंटरनेट का सही इस्तेमाल उन्हें सिखाएं, उनके स्कूल के प्रोजेक्ट में आप भी रूचि लें और उनका सहयोग करें। बच्चों के साथ साथ आप भी किताबों से दोस्ती कर लें। बच्चा आपको पढ़ते देखेगा तो खुद भी पढ़ने में रूचि लेगा। खुद को और बच्चों को एक्टिव मीडिया यूजर बनाइये पैसिव मीडिया यूजर नहीं। इसी के साथ आज की चर्चा यहीं ख़त्म करते हैं इस उम्मीद के साथ की आप भी खुद में बदलाव लाएंगे बच्चों को सिर्फ स्कूल के भरोसे नहीं छोड़ेंगे। खुद भी कुछ नया सीखेंगे और उनको भी कुछ नया सिखाएंगे।
भावना पाठक
भावना पाठक
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