Wednesday, August 11, 2010

पिता जी की कलम से -हँसता चेहरा गुलाब लगता है

हंसता चेहरा गुलाब लगता है
चमकता माहताब लगता है
हंसी से बढ़ के और दौलत क्या
ये खजाना लुटाओ बढ़ता है
हंसी से सस्ती भी न चीज़ कोई
हंसो हसने में कुछ न लगता है
कैसा जादू है, कैसा इन्फेक्शन
हँसे जो एक दूजा हंसता है
हज़ार गम की एक दवा है हंसी
है बहादुर जो गम पे हँसता है
अश्क आँखों में है लबों पे हंसी
ना जाने कौन किसको छलता है
इश्क की राह उसने पकड़ी है
वह अंगारों पे रोज़ चलता है॥
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पिता अजय पाठक जी की
"दिल की कलम से "

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