Saturday, August 7, 2010

गुलज़ार साहब की त्रिवेणी

गुलज़ार साहब के बारे में तो जितना भी कहा जाए कम है शब्द तो उनकी कलम से झरने की तरह फूटते हैं। जिसमें खनक भी होती है, जिंदगानी भी और कहानी भी। चाहे वो गीत हो, ग़ज़ल हो, शेर हो या फिर त्रिवेणी (त्रिप्लेट्स ) लिखने में गुलज़ार का कोई जवाब नहीं। उनके गीतों से तो आप सब ही वाकिफ होंगे ही पर शायद त्रिवेणी इतनी न पढ़ी हो और अगर पढ़ी हो तो जो मैं न पोस्ट कर पाऊँ वो आप कर दीजियेगा। श्रवण जी ने गुलज़ार साहब की त्रिवेणी पोस्ट करने का सुझाव दिया था। मित्र इस सुझाव के लिए शुक्रिया। तो पेश है गुलज़ार की त्रिवेणी---------

इतने लोगों में कह दो अपनी आँखों से

इतना ऊंचा न ऐसे बोला करें

लोग मेरा नाम जाने जाते हैं॥

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क्या पता कब कहाँ से मारेगी

बस की मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ

मौत का क्या है एक बार मारेगी॥

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कांटे वाले तार पे किसने गीले कपडे टाँगे हैं

खून टपकता रहता है ...और नाली में बह जाता है

क्यूँ उस फौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है॥

(यकीन मानिए गुलज़ार साहब की ये त्रिवेणी लिखते हुए मेरी रूह काँप गयी आँखों में अश्क हैं मेरे। ज़रा कल्पना कीजिये उस मंज़र की वर्दी खून से सनी है उस फौजी की, उसकी बेवा हर रोज़ उस वर्दी को रगड़ रगड़ के धोती है मगर फिर भी उसमें से खून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है। सरहद पे न जाने कितने जवान शहीद होते हैं देश की रक्षा की खातिर पर उनको बुनियादी सुविधायें तक कई बार मुहैया नहीं कराई जाती हैं उनका बलिदान, उनका खून पानी की तरह बह जाता है )

माँ ने दुआएं दी थी

एक चाँद सी दुल्हन की

आज फुटपाथ पे लेते हुए...ये चाँद मुझे रोटी नज़र आता है॥

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चलो आज इंतज़ार ख़तम हुआ

चलो अब तुम मिल ही जाओगे

मौत का कोई फायदा तो हुआ॥

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ये माना इस दौरान कुछ साल बीत गए हैं

फिर भी आँखों में चेहरा तुम्हारा समाया हुआ है

किताबों पर धुल जमने से कहानी कहाँ ख़तम होती है॥

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मुझे आज कोई और न रंग लगाओ

पुराना लाल रंग अभी भी ताज़ा है

अरमानो का खून हुए जियादा दिन नहीं हुआ है॥

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तेरे गेसू जब भी बातें करते हैं

उलझी उलझी सी वो बातें होती हैं

मेरी उँगलियों की मेह्मांगी उसे पसंद नहीं॥

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उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा

देर तक हाथ हिलाती रही वह साख फिजा में

अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए?

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ज़िन्दगी क्या है जान ने के लिए

ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है

आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥

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सब पे आती है सबकी बारी से

मौत मुंसिफ है, कम-ओ-बेश नहीं

ज़िन्दगी सब पे क्यूँ नहीं आती॥

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कोई चादर की तरह खींचे चला जाता है दरिया

कौन सोया है तलए इसके जिसे ढूंढ रहे हैं

डूबने वाले को भी चैन से सोने नहीं देते


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गंगा जमुना सरस्वती की तरह गुलज़ार की त्रिवेणी

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