Wednesday, August 11, 2010

गुलज़ार साहब की कुछ और त्रिवेणी प्रस्तुत है

त्रिवेणी- यह गुलज़ार साहब के द्वारा ही इजाद की गयी एक और विधा है जिसको उन्होंने इजाद तो १९७२-७३ में कर दिया था लेकिन यह प्रसिद्ध हुयी उनकी किताब आने के बाद। आज गुलज़ार साहब की लाडली बेटी "त्रिवेणी" जवान हो चुकी है। आप देखेंगे की इसमें ऊपर की दो पंक्तियाँ शेर की तरह होती है और अपने आप में पूरी होती हैं पर जो तीसरी पंक्ती है वो ऊपर वाली दोनों पंक्तियों का पूरा अर्थ ही बदल देती है। इसको गुलज़ार ने त्रिवेणी इसलिए कहा की जिस तरह से गंगा जमना सरस्वती तीन नदियाँ आपस मिलती हैं पर दिखती दो ही हैं कहा जाता है की सरस्वती दिखाई नहीं देती पर वो अन्दर कहीं बह रही है बस उसी तरह इस त्रिवेणी में तीसरी पंक्ती भी है। पढियेगा मज़ा आएगा----

हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी
तुम सलामत रहो हज़ार बरस

ये बरस तो फ़क़त दिनों में गए॥
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तुम्हारे होंठ बहुत खुश्क खुश्क रहते हैं
इन्ही लबों पे कभी ताज़ा शेर रहते थे

यह तुमने होठों पर अफ़साने रख लिए कब से॥
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यह सुस्त धुप अभी नीचे भी नहीं उतरी

ये सर्दियों में बहुत देर छत पे सोती है

लिहाफ उम्मीद का भी कब से तार तार हुआ॥

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कभी कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है

कीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था॥

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आप की खातिर अगर हम लूट भी लें आसमान

क्या मिलेगा चाँद चमकीले से शीशे तोड़ कर ?

चाँद चुभ जाएगा ऊँगली में तो खून आ जाएगा॥

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वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर एक दिन

जो मूड के देखा तो वह और मेरे साथ न था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं॥

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तमाम सफाए किताबों के फद्फदाने लगे

हवा धकेल के दरवाज़ा आ गयी घर में

कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो॥

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जंगल से गुज़रते थे तो कभी बस्ती भी मिल जाती थी

अब बस्ती में कोई पेड़ नज़र आ जाए तो भी जी भर आता है

दीवार पे सब्ज़ देखके अब याद आता है, पहले जंगल था॥

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कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं

आँख के शीशे मेरे चटके हुए हैं

टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझे॥

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एक से घर हैं सभी, एक से बाशिंदे हैं

अजनबी शहर में कुछ अजनबी लगता ही नहीं

एक से दर्द हैं सब, एक ही से रिश्ते हैं॥

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इस तेज़ धुप में भी अकेला नहीं था मैं

एक साया मेरे आगे पीछे दौड़ता रहा

तनहा तेरे ख़याल ने रहने नहीं दिया॥

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चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में च्भ्ते ही खून बह निकला

नंगे पाँव खेल रहा था, लड़का अपने आँगन में

बाप ने कल फिर दारू पी के माँ की बाह मरोड़ी थे॥

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शाम गुजरी है बहुत पास से होकर लेकिन

सर पे मंडराती हुयी रात से जी डरता है

सर चढ़े दिन की इसी बात से जी डरता है॥

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जिस्म के खोल के अन्दर ढूंढ रहा हूँ और कोई

एक जो मैं हूँ, एक जो कोई और चमकता है

एक म्यान में दो तलवारें कैसे रहती हैं?

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जिससे भी पूछा ठिकाना उसका

एक पता और बता जाता है

या वह बेघर है, या हरजाई है॥

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झुग्गी के अन्दर एक बच्चा रोते रोते

माँ से रूठ अपने आप ही सो भी गया

थोड़ी देर को "युद्ध विराम" हुआ है शायद॥

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सितारे चाँद की कश्ती में रात लाते हैं

सहर के आने से पहले ही बिक भी जाते हैं

बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब् का॥

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ज़मीन भी उसकी ज़मीन की ये नियामतें उसकी

ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बन्दे भी

खुदा से कहिये , कभी वो भी अपने घर आये॥

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शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर

किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुमको

तिनको का मेरा घर है, कभी आओ तो क्या हो?

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शाम से शम्मा जली देख रही है रास्ता

कोई परवाना इधर आया नहीं, देर हुयी

सौत होगी मेरी, जो पास में जलती होगी॥

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चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग नज़र आते हैं

रोड़े, पत्थर और गुलेलों से दिन भर खेला करता था

बहुत कहा आवार उल्काओं की संगत ठीक नहीं॥

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जो लिखोगे गवाही दे दूंगा

मेरी कीमत तो मेरे मुह पर लिखी है

"पोस्टल पोस्टकार्ड " हूँ मैं तो ॥

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गुलज़ार साहब की

"त्रिवेणी"

3 comments:

  1. त्रिवेणी से परिचय कराने का शुक्रिया , गुलजार जी की सारी त्रिवेणियाँ अच्च्छी लगीं ...शुक्रिया ।

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  2. gulzaar sahab ki to baat hi niraali hai shabd unki kalam se is tarah athkheliyan karte hain ki puchho mat.

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  3. Sampuran sigh kalra....Gulzar sahab sach main poorN hain....
    Bhavna ji aapne is 'Trveni' se parichaye aur yehan prastut kar ham jaison ko paDhane ka avsar diya....
    Dhanyavad..

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