Saturday, August 14, 2010

बड़े दिनों से पीपली लाइव फिल्म का इंतज़ार कर रही थी

जब से पीपली लाइव के प्रोमोज देखे थे तब से इस फिल्म को देखने का बड़ा मन था। फिल्म वाकई बड़ी अच्छी है खासतौर से जिसने नत्था का कैरेक्टर निभाया है, उसकी एक्टिंग देखने लायक है। नत्था जियादा कुछ नहीं बोलता, पर उसका चेहरा ही सब कुछ बयान कर देता है। अगर आपने उन आदिवासियों को देखा हो जो शहर से बिलकुल कटे हैं और जिन्हें पैंट शर्ट वाले हम लोग भी अजूबा ही लगते हैं तो आपने ज़रूर नोटिस किया होगा की उनके चेहरे पे कोई एक्सप्रेशंस ही नहीं आते। वो बहुत ही निउट्रल लगते है। ठीक इसी तरह इस फिल्म में नत्था लगता है पक्का आदिवासी। दूसरा करेक्टर जो फिल्म में आपको हसाएगा वो है नत्था की माँ का। वो जो चिल्ला चिल्ला के बोलती है और जिस अंदाज़ में बोलती है- अरे भूतनी अब एहू का खाए डाल, ऐ बुधिया मोर खटिया धुप माँ निकार दे रे, सुनत नहीं आये। जब आप उनके मुह से ये सब सुनोगे तो हंस हंस के पेट पकड़ लोगे पक्का। खैर ये तो थी मजेदार बातें अब आते हैं मुद्दे पर। इस फिल्म में मीडिया वालों की अच्छी खबर ली गयी है और उनकी सो कॉल्ड ब्रेकिंग न्यूज़ की भी बखिया उधेडी गयी है। किस तरह मीडिया वाले किसी के पीछे नहा धोकर पड़ जाते हैं अच्छा दिखाया है अनुषा रिजवी ने इस फिल्म में। सबसे बड़ी बात उस किसान की त्रासदी दिखाई गयी है जो क़र्ज़ में डूबे होने के कारन अपनी ज़मीन बेचने के लिए मजबूर है। नत्था और उसके भाई बुधिया शंकर को जब एक लोकल नेता के एक चमचे से ये पता चलता है की सरकार आत्महत्या करने वाले के घरवालों को एक लाख रुपये मुआवजा देती है तो नत्था बेचारा मरने के लिए तैयार हो जाता है और इसके लिए उसको प्रेरित करता है उसका भाई बुधिया जो नत्था से जियादा होशियार है। जैसे ही एक रिपोर्टर को ये बात पता चलती है वो उस पर खबर बना के छाप देता है फिर क्या है दुसरे मीडिया वाले नत्था के गाँव में आके डेरा डाल लेते हैं। नत्था हर चैनल की ख़बरों के केंद्र में होता है। सरकार अलग राजनीती करती है, कृषि विभाग अलग दलीलें देता है और बेचारे नत्था की जान सांसत में आ जाती है। पिक्चर की एंडिंग मुझे कुछ जियादा अच्छी नहीं लगी ऐसा लगा कुछ और होना चाहिए शायद कुछ बाक़ी रह गया पर ओवर ऑल पिक्चर बहुत अच्छी है। बहुत कुछ सीखने को मिलता है हमें। और सबसे बड़ी बात इसमें एक भी सिने स्टार नहीं हैं बल्कि सारे कला कार हबीब तनवीर जे की नाटक मंडली के हैं। आज के इस दौर में जब या तो सेक्स बिकता है या फिर मार धाड़ ये फिल्म ये साबित करती है की अगर सीरियस मुद्दों को भी सलीके से उठाया जाए तो लोग ऐसी फिल्में भी पसंद करते हैं। अंत में एक वाकया जो पिक्चर हौल में हुआ। मेरे पीछे वाली सीट पे एक बच्चा था ५-६ साल का जैसे ही फिल्म स्टार्ट हुयी वह जोर जोर से रोने लगा - मम्मी ये गन्दी फिल्म है, मैं नहीं देखूँगा। छी- छी गंदे गंदे लोग हैं इसमें और वो चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मुझे गुस्सा उसपे नहीं आ रहा था बल्कि उसके माँ बाप से खफा थी मैं जिन्होंने उसे इस बात से अवगत नहीं कराया की हमारे देश में ऐसे लोग भी हैं। बच्चा भी क्या करेगा वो वही सीखेगा न जो माँ बाप सिखायेंगे। जब माँ बाप ही गरीब गुरबों को गन्दा बोलते हैं तो फिर बच्चा तो बोलेगा ही न। जब भी समय मिले ये फिल्म देखिएगा।


भावना के
"दिल की कलम से "

4 comments:

  1. फिल्म मैंने देखी ..जैसे आपको इंतज़ार था ..वैसे ही मैं भी इंतज़ार कर रहा था |

    सही लगी ...मुख्य बात इसके कलाकारों की एक्टिंग ..
    "फिल्म" तो लग ही नहीं थी ..मानों सच में किसी गांव में बैठे हो|

    कहानी भी बढ़िया ...

    कुछ ज्यादा ही हो हल्ला मचा रखा था, वैसा कुछ नहीं था ...सामाजिक मुद्दे तो "प्रकाश झा" भी लाते वो ज्यादा प्रभावकारी होते है |

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  2. aapne bilkul sahi kaha dost wo kya hai aajkal jin cheezon ka hohalla ziyada hota hai log uski hi taraf aakarshit hote hai aur phir logon ka rujhaan is film ko aur ziyada dekhne ka isliye bhi tha kyunki isse kahin na kahin amir khan bhi jude huye the, film mein shor sharaba ziyada hai i accept. Rahul aapko wo budhi daadi ka charactor kaisa laga aur khaas kar unki gaalee dene ka andaaz bataayiyega.

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  3. sandeep vyas (Allahabad)August 24, 2010 at 11:40 PM

    yahi bharat ki garib janta ka durbagya hai ki badi society ke loog unhe ganda or neta unhe keval chalta phirta vote bank hi samjhte hai.Iska ek sabse bada karan un logo ka ashikhshit hona hai.

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  4. समय मिलते ही देखता हूँ इस फ़िल्म को।

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