आज़ादी ख्वाहिशों को पूरा करने की, अनंत आकाश में उड़ने की, उज्जवल भविष्य के सपने देखने की और इन सबके साथ खुली आबोहवा में आँखें मूंद कर बाहें फैलाए लम्बी साँसे लेते हुए दिल से कहने की - "हाँ मैं हूँ आज़ाद भारत का आज़ाद नागरिक। " क्यूँ इस ख़याल मात्र से ही दिल को कितना सुकून मिलता है, है न, तो फिर हमें इस सुकून के लिए उन लोगों का शुक्रियादा भी करना चाहिए जो इसके असली हक़दार हैं। बिरसामुन्दा, तिलका मांझी, तात्या टोपे, लक्ष्मीबाई, महात्मा गांधी, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह। ये आजादी के वो परवाने जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह किये बगैर देश हित को सर्वोपरि मन। लाख आंधी तूफ़ान आये मगर आज़ादी की उस लौ को भुझा नहीं पाए और वो लौ बुझती भी तो बुझती कैसे आज़ादी के इन मतवालों ने उसे अपने लहू से जो रौशन कर रखा था। दो सौ सालों तक अंग्रेजों की गुलामी का वो गुस्सा चिंगारी से आग बना, आग से शोला और फिर जो ज्वालामुखी फूटा उस जन आक्रोश ने परतंत्रा के परखच्चे उड़ा दिए। आज़ादी की इस दास्ताँ से आप किसी न किसी तरह तो वाकिफ होंगे ही या तो बड़े लोगों से सुना होगा या फिर किताबों में पढ़ा होगा और कुछ नहीं तो फिल्में तो देखी ही होंगी है न।
जब मैं छोटी थी तो मुझे पंद्रह अगस्त इसलिए अच्छा लगता था क्यूंकि उस दिन स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे, मिठाईयां मिलती, और बड़ा सा झंडा फहराया जाता था। ये सब देखकर मुझे बड़ा मज़ा आता था और बहुत ख़ुशी होती थी और मुझे अच्छी तरह से याद है की १४ अगस्त की रात मैं सो भी नहीं पाती थी क्यूंकि दर लगा रहता था की अगर सुबह नींद न खुली तो, कहीं मैं कार्यक्रम में हिस्सा न ले पायी तो? और जब ज़हन में इतने सवाल हो तो भला नींद किसे आती है।
खैर मुझे अब यादों से बहार निकल के आजादी के बाद आज देश के सामने कौन सी चुनौतियां हैं इस बारे में आपसे चर्चा करनी है। हालाकि देश को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद कराना एक बहुत बड़ी आज़ादी है पर ये आजादी तब तक अधूरी है जब तक की हमारा देश गरीबी, भुखमरी, कुपोषण जैसी बीमारियों से आज़ाद नहीं हो जाता। सबको शिक्षा और रोज़गार के सामान औसर नहीं मिल जाते। हमें आजादी मिले आधी से जियादा सदी बीतने के बावजूद आज भी कई गाँव ऐसे हैं जहां बिजली, पानी, अस्पताल और प्राईमरी स्कूल तक की सुविधा नहीं है। ग्रामीणों के उत्थान के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार करोडो रूपये खर्च करती है पर नतीजा वही धाक के तीन पात। वजह सारा का सारा पैसा और योजनायें सिर्फ कागज़ पर होती हैं। भला बुखा और कुपोषित भारत विकास की दुआद में कैसे जीत हांसिल कर पायेगा?
कई गाँव में स्कूल आज भी पेड़ों के नीचे लगते हैं और शिक्षक भूले भटके आया करते हैं। क्या करें पूरा दोष उनका भी नहीं है। कयिओं को कई महीनो से वेतन नहीं मिला तो शिक्षाकर्मियो को वेतन के नाम पर सिर्फ ३-४ हज़ार रुपये ही मिलते हैं। भला ऐसी महंगाई में इतने पैसों में काम कैसे चले। सरकारी स्कूलों में मध्यान भोजन योजना लागू होने से बच्चों की संख्या में इजाफा तो हुआ लेकिन वहाँ भी गड़बड़ी। घटिया भोजन से बच्चे बीमार पड़े तो कईयों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। और तो और कई बार तो अनाज का बोरा स्कूल पहुचता ही नहीं बल्कि प्रिंसिपल साहब के घर वाले मध्यान भोजन का लाभ उठाते हैं।
भ्रस्क्ताचार इसलिए बढ़ता है क्यूंकि हम चुप रहते हैं, या फिर नज़रंदाज़ कर देते हैं की छोडो हमें क्या फर्क पड़ता है, हमारा क्या जाता है? जिस दिन हमें फर्क पड़ना शुरू हो जाएगा उस दिन से ऐसी अनियमिताओं में और भ्रस्ताचार में कमी आना शुरू हो जायेगी। इस बात पे मुझे किसी कवी की दो लाईने याद आ रही हैं -
तू खुद तो बदल, तू खुद तो बदल
तब तो ये ज़माना बदलेगा॥
और बदलाव एकाएक नहीं आता धीरे धीरे होता है। ऐसी बहुत सी कुरीतियाँ आज भी कायम हैं जिनसे हमें अभी आज़ाद होना बाकी है। कहने के लिए हम २१ सदी में रह रहे हैं पर फिर भी होणार किलिंग के नाम पे लोगों को मारा जाता है हमारे सामने और हम चुप चाप देखते रहते हैं। खाप पंचायतें खुद को न्यायपालिका से भी बड़ा मान लेती हैं और हम कोई विरोध नहीं करते उल्टा कई बुध्जीवी तो इसका समर्थन ही करते हैं।
एक तरफ हमारा देश आतंकवाद जैसी समस्या से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ नक्सलवाद एक बड़ी चुनौती बनके हमारे सामने आया है। सरकार ये अच्छी तरह जानती है की नक्सलवादियों की समस्या क्या है। सीधी सी बात है अगर आप उनके जल जंगल और ज़मीन को हथियाएँगे तो वो कहाँ जायेंगे क्या खायेंगे इसलिए वो सोचते हैं मरना भूख से भी है और लड़ते हुए भी तो क्यूँ न लड़के मारा जाए। सरकार जितना पैसा नक्सल उन्मूलन के नाम पे खर्च कर रही है वही पैसा उनके उठान में क्यूँ नहीं लगाती ? इतनी सी बात उसे क्यूँ नहीं समझ आती? वैसे नक्सलवाद उन्मूलन के लिए केंद्र सरकार ने ३५ जिलों को १४ हज़ार करोड़ रुपये दिए हैं पर सवाल ये उठता है की इतनी सतही राहत से आखिर क्या होगा?
आप सोच रहे होंगे अब तक मैं आपको सिर्फ समस्याओं पे समस्याएं बताये बताये जा रही हूँ क्या आजादी के बाद देश ने कोई तरक्की नहीं की? की है न अगर नहीं की होती तो आज हम विकासशील देशों की श्रेणी में नहीं खड़े होते। और ना ही भारत इतनी बड़ी युवा शक्ति बनके उभरता। यह हमारी म्हणत, लगन और जूनून का ही नतीजा है की आज अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत ने अपनी एक पहचान बना ली है। हमारे देश के पास वो युवा शक्ति है जो अगर ठान ले तो क्या नहीं कर सकती? बस ज़रुरत है युवा को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की। पर अफ़सोस आज के युवा के लिए आज़ादी के मायने ही बदल गए हें। वो आज़ादी का मतलब बेरोक टोक ज़िन्दगी को मानता है, दोस्तों से साथ मस्ती करने को मानता है, तफरी करने को मानता है। माना की ये सब भी ज़रूरी है ज़िन्दगी में पर क्या अपने समाज के प्रति हमारा कोई उतरदायित्व नहीं है? आज ज़यादातर लोगों के लिए आज़ादी महज़ सरकारी छुट्टी का ही ही एक और दिन बन के रह गया है। बड़े बड़े शहर में तो आलम ये है की पड़ोस में कौन रहता है ये तक पता नहीं होता सामने वाले को? सारे रिश्ते नाते को टाक पर रख कर सिर्फ पैसा कमाने के पीछे भागे जा रहे हें हम। तो कहीं न कहीं इस भागदौड़ वाली उप्भोग्तावादी संस्कृति से भी हमें आज़ादी चाहिए। कहीं ऐसा न हो की ये बाजारवादी संस्कृति की चका चौंध हमें इस कदर अपना गुलाम बना ले की फिर हम उसकी गुलामी से कभी आज़ाद ही ना हो पाएं। इन साड़ी चुनौतियों से निजात पाना ही आज के सन्दर्भ में असली आज़ादी है। तो इन ही शब्दों के साथ मैं आगे क्या करना है ये आप पर डालते हुए अपनी लेखनी को विराम देने देने जा रही हूँ की
तोपों से नहीं गोलों से नहीं
हौसलों से आज़ादी पायी है
अब तक तो देखा था अँधेरा
ये सुबह दिनों बाद आई
अभी महज़ टूटी जंजीरें
आगे और लड़ाई है। ।
भावना के
"दिल की कलम से "
आपने बहुत सी बातों को समेटा है। वैसे ये आज़ादी केवल नाम की ही है क्योंकि 14 अगस्त 1947 की रात को देश आज़ाद नहीं हुआ, केवल सत्ता परिवर्तन हुआ था। गोरे अंग्रेज़ों के हाथों शासन काले अंग्रेज़ों के पास आ गया। पिछले 63 सालों में बहुत काम हुआ है। भारत की एक पहचान बनी है विश्व में, फिर भी आज देश में आम आदमी दो जून की रोटी और पानी के लिए पिसता रहता है।
ReplyDeleteएक दिन सबके पास काम होगा, सिर पर छत होगी, जीवन के लिए आवश्यक सभी मूलभूत चीज़ें होंगी, उम्मीदें अभी बाकी हैं।