Thursday, August 12, 2010

ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

धुप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो
वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में उसे
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो
पत्थरों में भी जुबां होती है दिल होता है
अपने घर की दर-ओ-दीवार सजाकर देखो
फासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढाकर देखो॥

शायर
शायद निदा साहब

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