आज दिल की कलम से ……
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीँ छटपटा के बैठ गए
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
वो अपनी अपनी हथेली जलके बैठ गए
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकाने लगा के बैठे गए
लहूलुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जाके बैठ गए
ये सोच कर की दरख्तों की छाँव होती है
यहां बबूल की छाँव में आके बैठ गए।
दुष्यंत कुमार साहब की कलम से
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